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जयदीप कर्णिक ने उठाया सवाल, त्याग और समर्पण की उम्मीद पत्रकारों से ही क्यों?

देश के पहले सोशियो-कल्चरल फेस्ट के दूसरे दिन ‘किसकी गोदी में है मीडिया’ जैसे चर्चित विषय पर चर्चा हुई।

समाचार4मीडिया ब्यूरो 1 year ago

देश के पहले सोशियो-कल्चरल फेस्ट के दूसरे दिन ‘किसकी गोदी में है मीडिया’ जैसे चर्चित विषय पर चर्चा हुई। चर्चाकार हर्षवर्धन त्रिपाठी ने विषय की भूमिका रखी।  बतौर वक्ता अमर उजाला डिजिटल के संपादक जयदीप कर्णिक और वरिष्ठ पत्रकार वर्तिका नंदा ने बेबाकी से अपनी बातें श्रोतागणों के सामने रखीं।

जयदीप कर्णिक ने कहा कि एक गढ़े हुए विमर्श को गोदी मीडिया के मुहावरे में गढ़ा गया है। डिजिटल मीडिया के आने के बाद मीडिया की दुनिया में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ। जनता तक पहुंचने वाले सूचना का सिस्टम टूट गया। पत्रकारिता की परीक्षाएं पास  किए बगैर जब लोग पत्रकार बनने लगे, तो संपादन के नाम पर जो अखबार चैनल के दफ्तरों में रुक जाता था। वो सोशल मीडिया पर सार्वजनिक होने लगा। संपादकों की दादागिरी भी खत्म हुई। संपादकों और मीडिया हाउस के जो एजेंडे थे, वो खत्म होने लगे। इसका बुरा प्रभाव यह हुआ कि जिन लोगों के एजेंडों को समाज विरोधी, देश विरोधी मानकर छलनियों में छान दिया जाता था। उन्हें लगने लगा कि अब हमें पानी में जहर घोलने से कोई रोक नहीं सकता। उन्होंने अपनी सेनाएं बनाई और यह तय किया कि इस सिस्टम को ध्वस्त करने का इससे अच्छा मौका नहीं है। हम अपने कमरों में बैठकर ऐसे एजेंडा चलाएंगे, जिसे तथाकथित संपादक रोक दिया करते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि सोशल मीडिया पर कई जानकारियां लोगों को भ्रमित करने लगे।

खुद का एजेंडा चलाने के लिए मीडिया को बदनाम करने की कोशिश

वक्ताओं ने कहा कि ज्यादातर फिजूल की बातें आने से सोशल मीडिया को वॉट्सऐप यूनिवर्सिटी करार दे दिया गया। लोगों का उसकी सूचनाओं से विश्वास उठने लगा। लोग फिर संपादकीय संस्थाओं की तरफ लौटने लगे। इसके बाद षड्यंत्रकारियों को लगा कि डिजिटल मीडिया पर भी दाल नहीं गल रही है तो यह  फिर यह माहौल बनाने की कोशिश की गई कि सारा मीडिया बेकार है। बिका हुआ है। मीडिया गोदी में बैठा है। जब तक हम इस मीडिया को बदनाम नहीं कर देंगे। हमारे एजेंडा नहीं चल सकते। इसके बाद से ही मीडिया को गोदी में बैठाने की कोशिशें हो रही है। मीडिया सिर्फ पाठक, दर्शक की गोदी में बैठा हुआ है।

गोदी शब्द का अपमान

वरिष्ठ पत्रकार वर्तिका नंदा ने कहा कहा कि गोदी वात्सल्य से भरा शब्द है। गोदी मीडिया मां की गोद और मीडिया दोनों को अपमानित करने वाला शब्द है। मेरा मानना है कि गोदी मीडिया शब्द ठीक नहीं है। कोई संस्थान किसी की छाया में जाकर थोड़ी देर सुस्ताता है तो ऐसा हर युग में हुआ है। कभी ऑल इंडिया रेडियो को इंदिरा रेडियो कहा जाता था। पहले दूरदर्शन के एंकर के तटस्थ रहते है। अब तो चैनल पर जाते ही पता चल जाता है कि एंकर क्या करेगा। एंकर ऐसे झगड़ते है जैसे कि अब पति-पत्नी भी नहीं झगड़ते।

वर्तिका ने कहा कि हमें वही मीडिया मिल रहा है, जिसके हम लायक है। आप जो देखना चाहते है, वो दिखाया जा रहा है। लोगों के पास हमेशा वैकल्पिक मीडिया की चॉइस रही है। कोरोना में हम खालिस चीजों की तरफ लौटे, तुलसी के पत्ते खाए, काढ़ा पीने लगे। तो ऐसा मीडिया के साथ भी किया जा सकता है। जो मीडिया खालिस है, दर्शक उसकी तरफ लौटने लगे हैं।

त्याग और समर्पण की उम्मीद पत्रकारों से ही क्यों

चर्चा के दौरान सवाल-जवाब का दौर भी चला। एक विद्यार्थी ने पूछा कि पत्रकार आज महंगी गडि़यों में चलते हैं, मोटी तनख्वाएं लेते हैं। पहले के पत्रकार तो ऐसे नहीं थे। इस पर कर्णिक ने कहा कि महंगाई सबके लिए समान है। चाहे पत्रकार हो या कोई दूसरा। जिस अखबार की लागत 20 रुपए आती है, लोग चाहते हैं कि वह उन्हें दो-तीन रुपए में मिले। आखिर पत्रकारों से ही त्याग और समर्पण की उम्मीद क्यों की जाती है।


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