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हिंदी के लिए करिश्मा उस माध्यम ने किया, जिसे कभी बुद्धू बक्सा कहा गया
हिंदी के लिए करिश्मा उस माध्यम ने किया, जिसे कभी बुद्धू बक्सा कहा गया
राजेश बादल
इन दिनों राष्ट्रभाषा हिंदी के बारे में अनेक स्तरों पर जानकार विलाप करते नज़र आते हैं। अगर उनकी बात को गंभीरता से लिया जाए तो लगता है कि हिंदी आख़िरी सांसें गिन रही है। अगर अब ध्यान न दिया गया तो करोड़ों दिलों में धड़कने वाली ये भाषा जैसे विलुप्त हो जाएगी।
समाचार4मीडिया ब्यूरो
9 years ago
राजेश बादल
इन दिनों राष्ट्रभाषा हिंदी के बारे में अनेक स्तरों पर जानकार विलाप करते नज़र आते हैं। अगर उनकी बात को गंभीरता से लिया जाए तो लगता है कि हिंदी आख़िरी सांसें गिन रही है। अगर अब ध्यान न दिया गया तो करोड़ों दिलों में धड़कने वाली ये भाषा जैसे विलुप्त हो जाएगी।
क़रीब चालीस बरस से हिंदी के अस्तित्व पर आशंका जताने वालों को मैं ख़ुद देख रहा हूं। पुरानी पीढ़ी के लोगों से भी हिंदी की चिंता सुनता आया हूं। ताज़्ज़ुब है कि दशकों से इस प्रलाप के बाद भी हिंदी किसी अमरबेल की तरह फैलती नज़र आ रही है। आज जिस इलाक़े में हिंदी बोली, समझी और पढ़ी जा रही है, क्या सौ साल पहले भी यही स्थिति थी? उत्तर है-बिलकुल नहीं। तब के हिन्दुस्तान में हिंदी के पंडित थे ही कितने? राज काज की भाषा उर्दू थी और उस पर फ़ारसी का असर था। हिंदी का परिष्कार और प्रयोग तो पिछली सदी में ही पनपा और विकसित हुआ है। ग़ुलाम भारत में भी हिंदी कभी जन जन की भाषा नहीं रही। अलबत्ता यह अवश्य महसूस किया जाने लगा था कि अगर किसी भाषा में हिन्दुस्तान की संपर्क भाषा बनने की संभावना है तो वो हिंदी ही है। भोजपुरी, अवधी, बृज, बुंदेली, बघेली, मालवी, निमाड़ी, छत्तीसगढ़ी और राजस्थान की अनेक बोलियों की छोटी-छोटी नदियों ने आपस में मिलकर हिंदी की गंगा बहाई। संस्कृत का मूल आधार तो था ही। इसके बाद उर्दू और अंग्रेज़ी ने भी हिंदी के अनुष्ठान में अपनी अपनी आहुतियाँ समर्पित कीं। अगर आप डेढ़-दो सौ साल की हिंदी यात्रा देखें तो पाते हैं कि शुरुआती दौर की हिंदी आभिजात्य वर्ग के लिए थी। कठिन और संस्कृतनिष्ठ।
आज के बच्चे अगर पढ़ें तो शायद उसे हिंदी ही न माने। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते गए, हिंदी बोलचाल की या यूं कहें आम अवाम की भाषा बनती गई। पूरब से रविन्द्रनाथ टैगोर हों या पश्चिम से महात्मा गांधी, उत्तर से भारतेंदु हरिश्चंद्र, जयशंकर प्रसाद, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, महावीर प्रसाद द्विवेदी और हज़ारी प्रसाद द्विवेदी हों या फिर दक्षिण से चक्रवर्ती राजगोपालाचारी। आज़ादी के लिए हंसते हंसते फांसी पर चढ़ जाने वाले क्रांतिकारी भी हिंदी को संपर्क की भाषा बना चुके थे। यक़ीन न हो तो सरदार भगत सिंह के विचार पढ़ लीजिए। सभी ने हिंदी को देश की प्रतिनिधि भाषा स्वीकार कर लिया था।
ज़रा याद कीजिए उस दौर के हिन्दुस्तान में अभिव्यक्ति के माध्यम कितने थे? सिर्फ़ एक माध्यम था और वो था मुद्रित माध्यम। क़िताबों और समाचार पत्र पत्रिकाओं के ज़रिए उस काल में हिंदी लोगों तक पहुंचती थी। साक्षरता का प्रतिशत कम था। इसलिए लिखा गया साहित्य आम आदमी तक आसानी से पहुंचाना मुश्किल काम था। मगर आज़ादी के आंदोलन में हिंदी अभिव्यक्ति का एक बड़ा ज़रिया बन चुकी थी।
कहा जा सकता है कि पूरे देश को आज़ादी के लिए एकजुट करने में हिंदी की बड़ी भूमिका थी। जो भाषा हज़ारों में लिखी जाती थी और लाखों में बोली जाती थी, वो करोड़ों की भाषा बन गई थी। आज़ादी के बाद प्रिंट माध्यम के साथ आकाशवाणी ने भी कंधे से कंधा मिलकर काम शुरू कर दिया। रेडियो ने तो हिंदी को प्रसारित करने में क्रांतिकारी काम किया। रेडियो सुनने के लिए पढ़ा लिखा होना ज़रूरी नहीं था। लिहाज़ा आकाशवाणी सुन-सुन कर लोगों ने हिंदी को जन-जन की भाषा और बोली बना दिया। तीसरा माध्यम आया भारतीय सिनेमा। हिंदी चलचित्रों ने तो वो काम किया,जो हिंदी के लिए करोड़ों-अरबों रूपए खर्च करके भी सरकारें नहीं कर सकतीं थीं। दुनिया का अव्वल कारोबार बन चुके भारतीय सिनेमा ने दक्षिण भारत के उन इलाक़ों में भी लोगों को हिंदी सिखा दी, जो राजनीति का शिकार होकर हिंदी का उग्र विरोध करते आए थे। आज सारे विश्व में बोली और लिखी जाने वाली भाषाओं के जानकारों की संख्या देख लीजिए। हमारी हिंदी अलग से सितारों की तरह चमकती दिखाई देती है। भारतीय सिनेमा का यह क़र्ज़ हिंदी प्रेमी शायद ही कभी उतार पाएं।
मैं इस लेख को आंकड़ों से भरकर उबाऊ और बोझिल नहीं बनाना चाहता। पाठक तमाम स्रोतों से इन्हें हासिल कर सकते हैं। आशय सिर्फ यह है कि हम हिंदी के विस्तार और प्रसार के नज़रिए से आगे ही गए हैं। पीछे नहीं लौटे। मिसाल के तौर पर पत्र -पत्रिकाओं को देख लीजिए। आज़ादी मिलने के समय हिंदी की मैगजीन और अख़बार कितने थे? आप सौ तक की गिनती में समेट सकते थे। आज यह संख्या हज़ारों में है। समाचार पत्रों का हिसाब-किताब देखने के लिए एक भारी भरकम विभाग तैनात है। जिन अख़बारों की प्रसार संख्या तीस-चालीस बरस पहले कुछ लाख होती थी, आज वो करोड़ों में जा पहुंची है। ज़ाहिर है इन्हें पढ़ने वाले पेड़-पौधे अथवा मवेशी नहीं हैं? फिर कौन हैं जो हिंदी के मुद्रित प्रकाशनों की तादाद बढ़ाते जा रहे हैं। सिर्फ प्रकाशनों की नफ़री ही नहीं बढ़ रही, उनके क़ारोबार के ग्राफ़ में भी ज़बरदस्त उछाल आया है।
दुनिया का कौन सा देश छूटा है, जहां हिंदी की किताबें नहीं मिलतीं। भारत के आधा दर्जन से ज़्यादा प्रकाशकों के विदेशों में अपनी किताबों के शो रूम हैं। हिन्दुस्तान में आज भी पचास फीसदी विश्वविद्यालय हिंदी नहीं पढ़ाते और दुनिया भर में पचास से ज़्यादा विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जाती है। इसका क्या अर्थ निकाला जाए। यहां याद दिलाना ज़रूरी है कि जिस पाकिस्तान में उन्नीस सौ सैंतालीस के बाद से देवनागरी और हिंदी पर बंदिश है, उसी देश में पिछले साल छह भागों में अठारह सौ पन्नों की एक उपन्यास श्रृंखला हिंदी में छपी है। 'दरवाज़ा खुलता है' नाम से यह उपन्यास लाहौर के संगेमील प्रकाशन ने छापा है। पाकिस्तान में इसकी भारी मांग है और लोगों को भले ही समझ न आए, ड्राइंग रूम में सजा कर रखने के लिए वे इसे खरीद रहे हैं। अच्छी बात ये है कि उर्दू से हिंदी में इसका अनुवाद जाने माने भारतीय लेखक डॉक्टर केवल धीर ने किया है। हिंदी प्रेमियों के लिए क्या ये उदाहरण गर्व के कुछ पल उपलब्ध नहीं कराता ?
हिंदी के लिए करिश्मा तो उस माध्यम ने किया, जिसे किसी ज़माने में बुद्धू बक्सा कहा गया था और जिसके भारत में प्रवेश का भरपूर विरोध हुआ था। यह माध्यम है टेलीविजन। क़रीब-क़रीब तीस साल से टेलीविजन भारत में घर परिवार का सदस्य बन गया है। बेशक़ आज के भारत में सभी भारतीय भाषाओं में छोटे परदे ने अपनी घुसपैठ की है लेकिन सबसे आगे तो हिंदी ही है।
ख़बरिया हों या मनोरंजन चैनल-हिंदी के दर्शक सबसे आगे की कतार में बैठे हैं। यही नहीं, अहिंदी भाषी प्रदेशों में भी हिंदी के चैनल, हिंदी के गाने और धारावाहिक उतनी ही दिलचस्पी से देखे जाते हैं, जितने उन प्रदेशों की अपनी भाषा के चैनल। एक अनुमान के मुताबिक़ छोटे परदे ने पैंतीस बरस में क़रीब पंद्रह करोड़ लोगों को हिंदी का जानकार बना दिया है। जब अहिंदी भाषी राज्यों के लोगों को राष्ट्रीय महत्त्व की कोई भी सूचना लेनी होती है और उन्हें अपनी भाषा के चैनल पर नहीं मिलती तो वे तुरंत हिंदी के चैनलों की शरण लेते हैं। बरसों से यह क्रम चल रहा है। इस वजह से वो हिंदी समझने और बोलने भी लगे हैं।
टेलीविजन से आगे जाएं तो इन दिनों नई नस्ल की जीवन शैली सोशल मीडिया के इर्द गिर्द सिमट कर रह गई है। इंटरनेट,वेबसाइट ट्विटर,व्हाटसअप,ब्लॉग,यूट्यूब और अन्य नए माध्यम अवतारों ने ज़िंदगी का रंग बदल कर रख दिया है। कारोबारी हितों ने हिंदी के बाज़ार देखा है इसलिए सोशल मीडिया के सभी रूप हिंदी में उपलब्ध हैं। गांव, क़स्बे और शहरों की नौजवान पीढ़ी इन सारे रूपों से एक दिन में अनेक घंटे रूबरू होती है। क्या आपको यक़ीन है कि हमारे लड़के -लडकियां अंग्रेज़ी में इतना महारथ हासिल कर चुके हैं कि उन्हें हिंदी की ज़रुरत ही नहीं है? कम से कम मैं तो नहीं सोचता। हिंदी में मोबाइल पर संदेश जाते हैं, मेल जाते हैं, गूगल बाबा हर भाषा से हिंदी में अनुवाद की सुविधा मुहैया कराते हैं तो जो लोग इस सुविधा का लाभ उठाते हैं वो कोई दक्षिण अफ़्रीका या ऑस्ट्रेलिया के लोग नहीं हैं। यह सब हिंदी की श्रीवृद्धि नहीं तो और क्या है।
फिर आज के दौर में हिंदी के सामने चुनौतियों की बात क्यों की जाती है? क्यों भाषाविद् और पंडित छाती कूटते नज़र आते हैं। अगर देश-विदेश में हिंदी जानने वाले लोग बढ़ रहे हैं,कारोबार बढ़ रहा है, पैसा भी कमाया जा रहा है तो फिर चिंता करने वाले कौन हैं ? इसका उत्तर वास्तव में हमारे घरों में मौजूद है। चिंता का कारण हिंदी का सिकुड़ना नहीं, बल्कि उसके स्वाद में हो रही मिलावट है। हम लोग रेडियो पर पुराने हिंदी गाने सुनकर झूमने लगते हैं लेकिन जब बेटा या बेटी आकर उसे बंद कर अंग्रेज़ी के गाने सुनने लगता है तो हमें लगता है ये लोग अपनी मातृभाषा से प्यार नहीं करते या इन्हें हिंदी क्यों अच्छी नहीं लगती। जब आप बाज़ार जाते हैं,पुस्तक मेलों में जाते हैं तो आप प्रेमचंद, वृन्दावनलाल वर्मा और धर्मवीर भारती की किताबें देखने रुक जाते हैं और आपके बच्चे अंग्रेज़ी की किताबें खरीद कर उसका बिल ले रहे होते हैं। आप हैरानी से और कुछ बेगानेपन से बच्चों को घूरते हैं। आप टेलीविजन पर कोई हिंदी का सीरियल या गाना देखना चाहते हैं तो आपका बच्चा रिमोट आपके हाथ से लेकर चैनल बदल देता है। आप देखते रह जाते हैं। आप बच्चों के साथ हिंदी फिल्म देखना चाहते हैं और बच्चे आपके सामने अंग्रेज़ी फिल्म का प्रस्ताव रख देते हैं। आप जैसे तैसे सिनेमा जाते भी हैं तो फिल्म की भाषा आपके ऊपर से निकल जाती है। बच्चे फिल्म के डायलॉग पर झूमते हैं,गानों पर खुद भी गाते हैं और आप बच्चों को विदेशियों की तरह देखते हैं।
ज़रा याद कीजिए। उन बच्चों की स्कूलिंग के दौरान आपने कभी उनके हिंदी में कम अंक आने पर चिंता की? मैथ्स, फ़िजिक्स, कैमिस्ट्री, या अंग्रेज़ी में अनुतीर्ण होने पर निश्चित ही आपने टोका होगा, लेकिन हिंदी कमज़ोर होने पर शायद ही ध्यान दिया हो। जिन लोगों ने ध्यान दिया भी होगा तो उनका प्रतिशत बहुत कम है। बचपन में उस बच्चे के ग़लत सलत अंग्रेज़ी बोलने पर भी आप पड़ोसियों के सामने गर्व से मुस्कराया करते थे।आप उसमें आधुनिक भारत के भविष्य की तस्वीर देखते थे।
दरअसल ये उदाहरण आपको अटपटे लग सकते हैं, लेकिन सच्चाई यही है कि हमारी मानसिकता में ये नमूने घुलमिल गए हैं। दिन में दस बार हम राष्ट्रभाषा का तिरस्कार होते अपनों के बीच देखते हैं और चूं तक नहीं करते। इस दुर्दशा पर अब तो आह या ठंडी सांस भी नहीं निकलती। हमारे स्कूलों में शुद्ध हिंदी के जानकार शिक्षक नहीं मिलते। उनकी व्याकरण कमज़ोर है। कॉलेजों में हिंदी के प्राध्यापक स्तरीय नहीं हैं। आधे से ज़्यादा यूनिवर्सिटीज़ मं हिंदी नहीं पढ़ाई जाती। शिक्षक ठेके पर रखे जाते हैं। उन्हें एक एक पीरियड के हिसाब से पैसे मिलते हैं। ऐसे में ज्ञानवान लोग आपको कहां से मिलेंगे? क्या आप अपने बच्चे को हिंदी शिक्षक बनाना चाहेंगे? मैं जानता हूं। आपका उत्तर न में होगा।
अशुद्ध और मिलावटी भाषा का खतरा गंभीर है। मोबाइल और इंटरनेट पर विकृत हिंदी हमें नज़र आती है। हम देखते रहते हैं। न केवल देखते रहते हैं बल्कि चंद रोज़ बाद उसी विकृत भाषा का हम भी इस्तेमाल करने लगते हैं। शास्त्रीय जानकारों की फ़सल हम नहीं उगा रहे हैं। हिंदी की अमरबेल तो फैलती रहेगी। उसे किसी सरकार या समाज के संरक्षण की ज़रुरत नहीं है। उसे आपकी मेहरबानी भी नहीं चाहिए। इतने माध्यमों का आविष्कार होने के बाद उसका विस्तार कोई नहीं रोक सकता। साल दर साल हिंदी के जानने-समझने वाले बढ़ते ही जाएंगे। उसके लिए किसी तरह के विलाप कीआवश्यकता नहीं है। बचाना है तो उसकी शुद्धता को बचाइये। उसकी आत्मा और उसकी मिठास को बचाइए। आने वाली पीढ़ियों को बताइए कि असल हिंदी कौन सी है? सरकारी मदद पर होने वाले कागज़ी सम्मेलनों में छाती पीटने से कुछ नहीं होगा। अपना घर ठीक कीजिए -हिंदी आपको दुआएं देगी।
(लेखक राज्यसभा टेलीविजन के कार्यकारी निदेशक एवं प्रख्यात पत्रकार हैं)
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