होम / इंडस्ट्री ब्रीफिंग / धुंध, धुआं और हिंदी का हुंआ-हुंआ

धुंध, धुआं और हिंदी का हुंआ-हुंआ

राकेश कायस्थ चारो तरफ धूल, धुंध और धुआं है। आंखें फाड़कर देखो, तब भी कुछ

समाचार4मीडिया ब्यूरो 9 years ago

राकेश कायस्थ चारो तरफ धूल, धुंध और धुआं है। आंखें फाड़कर देखो, तब भी कुछ समझ में नहीं आता कि हो क्या रहा है। हिंदी के जंगल में आजकल सिर्फ हुआं-हुआं है। कितना भी सुनने की कोशिश करो कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा है। भाषा, संस्कृति और कला के पहेदारों में आधे गांधी जी के बंदर बन गये हैं। करीब एक चौथाई पाला बदलकर सरकार की गोद में बैठ गये हैं या बैठने की कोशिश कर रहे हैं और जो बाकी बचे हैं, वे हुंआ-हुंआ कर रहे हैं। कोलाहल बढ़ रहा है, लेकिन हिंदी के सपूत क्या कह रहे हैं, किससे कह रहे हैं, कुछ समझ में नहीं आ रहा है। कोई आगे बढ़कर हिम्मत करके गला साफ करके कुछ कहने की कोशिश करता है, तो पीछे से हूटिंग की आवाज़ आती है। कोई पुरस्कार लौटाता है तो शोर उठता है—अरे इसकी टाइमिंग देखो, ये तो अब शहीद कहलाएगा जबकि हिंदी का ज्यादा बड़ा क्रांतिकारी मैं हूं। पुरस्कार क्यों लौटाया गया, असली सवाल क्या थे, ये सब बातें हुआं-हुआं में गुम हो जाती हैं। इसी हुआं-हुआं काल में करीब तीन दशक बाद भारत में विश्व हिंदी सम्मेलन हुआ, जिसमें बहुत ढूंढने पर भी हिंदी के इक्का-दुक्का लेखक ही मिले। भक्तगण जंघा पीटकर अट्टाहास करते नज़र आये कि देखो क्या गत बना दी हमने सबकी, कांग्रेसी कोटे से पुरस्कार लेकर खुद को लेखक समझते थे। राष्ट्रवादी सरकार ने सबका लाइसेंस ही रद्द कर दिया। जब किसी सरकारी कार्यक्रम में नज़र ही नहीं आओगे तो काहे के लेखक। भक्त खुश है, संघ पीठ थपथपा रहा है। सरकार भी इसे सांस्कृतिक पुनर्जागरण की शुरुआत मान रही है लेकिन दरअसल यह देश के सांस्कृतिक अधोपतन का प्रस्थान बिंदु है। हिंदी सम्मेलन में क्या हुआ, इस पर मीडिया में ख़बरें लगातार आ रही हैं। विदेशों से आये प्रतिनिधि कह रहे हैं कि हमारे ठहरने तक की व्यवस्था नहीं की गई। कई विद्वान कह रहे हैं कि अपने देश में हिंदी की स्थिति को लेकर मुझे पर्चा पढ़ना था, लेकिन मुझे मौका नहीं दिया गया। किसी ने कहा कि हिंदी पर कार्यक्रम पिछली भाजपा सरकारों के कार्यकाल में भी हुए हैं, लेकिन यह हिंदी का कार्यक्रम नहीं बल्कि पार्टी का अधिवेशन लग रहा था। भोपाल में जो कुछ हुआ उसमें कुछ भी अप्रत्याशित नहीं है। संघ के लाडले नरेंद्र मोदी से इससे इतर कुछ करने की अपेक्षा भला किसे थी? सवाल दूसरा है। वैचारिक प्रतिपक्ष आज इतना दुर्बल क्यों नज़र आ रहा है। बात सिर्फ हिंदी की नहीं है। यह सच है कि 1991 के बाद का दौर संस्थानों के पतन का दौर है। संसद, न्यायपालिका, मीडिया लोकतंत्र के किसी भी खंभे की बात करें तो वह कमज़ोर ही हुआ है। लेकिन किसी वैचारिक आग्रह के तहत संस्था और संस्थानों को खत्म करने के जितने सुनियोजित प्रयास अब शुरू हुए हैं, वे पहले कभी नज़र नहीं आये। तीन उदाहरण सामने हैं। सबसे पहले द्विअर्थीय गानो के ज़रिये अपनी फिल्मे बेचने वाले पहलाज निहलानी को फिल्म सेंसर बोर्ड की जिम्मेदारी दी गई, ताकि वे सुनिश्चित कर सकें कि फिल्मों में सबकुछ महान भारतीय संस्कृति के अनुरूप हो रहा है। उसके बाद उन गजेंद्र चौहान को एफटीआईआई पुणे की जिम्मेदारी दी गई जिन्हे चार बड़े अंतराराष्ट्रीय फिल्मकारों के नाम नहीं मालूम। ताजा मामला विश्व हिंदी सम्मेलन का है। सम्मेलन में जो कुछ हुआ उसके जवाब में हिंदी की दुनिया से सिर्फ हुआं-हुआं ही सुनाई दिया। कोई एकजुटता नहीं, कोई स्पष्ट संदेश नहीं। पिछले कुछ सालों में सोशल मीडिया सूचनाओं के आदान-प्रदान का सबसे बड़ा प्लेटफॉर्म बन गया है। हिंदी के बड़े रचनाकार प्रभावी ढंग से अपनी बात कहने के लिए इसका कितना इस्तेमाल कर पाते हैं? आशीर्वाद की मुद्रा में हाथ उठाये घूमने वाले ज्यादातर लेखक इन प्लेटफॉर्मों का इस्तेमाल करके लोगो तक अपनी बात पहुंचाने में नाकाम रहे हैं। कई बड़े लेखकों और पत्रकारों को मैने चलताउ किस्म की हल्की-फुल्की निजी टिप्पणियां करके अपने विश्वसनीयता खोते भी देखा है। मैं यह बात समझ पाने में असमर्थ हूं कि विश्व हिंदी सम्मेलन में ना बुलाये जाने से हिंदी के लेखकों की दुनिया क्यों उजड़ गई? वैचारिक मतभेद पहले भी रहे हैं, लेकिन इतनी क्षुद्रता पहले किसी सरकार ने नहीं की। जिस सरकार को ज्ञानपीठ और साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त लेखको तक का सम्मान करने की तमीज नहीं, उस सरकार के कार्यक्रम में जाना ही क्यों? लेकिन जब जिंदगी ही सरकारी आतिथ्य और अनुदानों पर कटी हो तो दर्द तो होगा ही। हिंदी का साहित्यिक समाज पकाउ अंदाज़ में बाज़ारवाद का रोना रोता है, लेकिन अपने प्रयासो से हिंदी की किताबों के लिए अब तक एक छोटा बाज़ार तक नहीं बना पाया। पठनीयता के संकट पर धाराप्रवाह प्रवचन हैं, लेकिन पाठकों के प्रति कोई जबादेही नहीं है। चोर प्रकाशको को पैसे देकर किताबे छपवाकर खुद बांटने और सरकारी लाइब्रेरी तक पहुंचने की लालसा है। नोटरी पब्लिक की तरह ठप्पे लगा रहे आलोचको से कालजयी होने का सार्टिफिकेट लेने की उत्कंठा है, लेकिन पाठकों तक पहुंचने की ईमानदार कोशिश नहीं। अगर कोई बड़ा लेखक पहल करे भी तो उसे हिकारत की नज़र से देखा जाता है। हिंदी का समाज अपने वंशानुगत कुंठाओं में जकड़ा हुआ है। अपवादों की सबकी अपनी-अपनी सूची हो सकती है। कई लोगो को यह बातें असाधारण किस्म का सरलीकरण लग सकती हैं। लेकिन जो भी लोग लेखक या पाठक के तौर पर हिंदी की दुनिया जानते हैं, क्या वे इन तथ्यों से इनकार कर सकते हैं? सरकार जो कर रही है, वह अपनी जगह है, लेकिन लेखक क्या कर रहे हैं? इतिहास गवाह है कि दुनिया का सर्वश्रेष्ठ साहित्य उन्हीं दौर में लिखा गया है, जब सत्ता ने संस्कृति और समाज का दमन किया है, अभियक्ति के अधिकार को कुचलने की कोशिश की है। दमन अभी शुरू हुआ है, यह सिलसिला अभी और आगे बढ़ेगा, इसलिए मैं यह मानकर चल रहा हूं कि सृजन का स्वर्णिम युग भी अब दूर नहीं है। शर्त सिर्फ इतनी है कि लेखक हुंआ-हुंआ से बाहर निकले और अपना काम ईमानदारी से करे। (लेखक एक व्यंगकार है और स्टार टीवी नेटवर्क से जुड़े हैं। इस लेख में व्यक्त किए गए उनके विचार निजी हैं।) समाचार4मीडिया देश के प्रतिष्ठित और नं.1 मीडियापोर्टल exchange4media.com की हिंदी वेबसाइट है। समाचार4मीडिया.कॉम में हम आपकी राय और सुझावों की कद्र करते हैं। आप अपनी राय, सुझाव और ख़बरें हमें mail2s4m@gmail.com पर भेज सकते हैं या 01204007700 पर संपर्क कर सकते हैं। आप हमें हमारे फेसबुक पेज पर भी फॉलो कर सकते हैं।


टैग्स
सम्बंधित खबरें

रिलायंस-डिज्नी मर्जर में शामिल नहीं होंगे स्टूडियो के हेड विक्रम दुग्गल 

डिज्नी इंडिया में स्टूडियो के हेड विक्रम दुग्गल ने रिलायंस और डिज्नी के मर्जर के बाद बनी नई इकाई का हिस्सा न बनने का फैसला किया है

13 hours ago

Dentsu India व IWMBuzz Media ने मिलाया हाथ, 'इंडिया गेमिंग अवॉर्ड्स' का करेगा आयोजन

'डेंट्सु इंडिया' (Dentsu India) ने IWMBuzz Media के साथ मिलकर 'इंडिया गेमिंग अवॉर्ड्स' के तीसरे संस्करण की घोषणा की है, जो 7 दिसंबर 2024 को मुंबई में आयोजित किया जाएगा।

1 day ago

फॉरेन कॉरेस्पोंडेंट्स क्लब की गवर्निंग कमेटी का पुनर्गठन, ये वरिष्ठ पत्रकार बने सदस्य

फॉरेन कॉरेस्पोंडेंट्स क्लब (FCC) ने अपनी गवर्निंग कमेटी का पुनर्गठन किया है, जो तुरंत प्रभाव से लागू हो गया है।

1 day ago

विनियमित संस्थाओं को SEBI का अल्टीमेटम, फिनफ्लुएंसर्स से रहें दूर

भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) ने भारत के वित्तीय प्रभावशाली व्यक्तित्वों, जिन्हें 'फिनफ्लुएंसर' कहा जाता है, पर कड़ी पकड़ बनाते हुए एक आदेश जारी किया है।

1 day ago

NCLT ने खारिज की ZEE-सोनी विलय को लेकर फैंटम स्टूडियोज इंडिया की ये याचिका

फैंटम स्टूडियोज ZEEL का एक अल्प शेयरधारक है, जिसके पास कंपनी के करीब 1.3 मिलियन शेयर हैं, जिनकी कीमत लगभग 50 करोड़ रुपये बताई जाती है।

2 days ago


बड़ी खबरें

'जागरण न्यू मीडिया' में रोजगार का सुनहरा अवसर

जॉब की तलाश कर रहे पत्रकारों के लिए नोएडा, सेक्टर 16 स्थित जागरण न्यू मीडिया के साथ जुड़ने का सुनहरा अवसर है।

13 hours ago

‘Goa Chronicle’ को चलाए रखना हो रहा मुश्किल: सावियो रोड्रिग्स

इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म पर केंद्रित ऑनलाइन न्यूज पोर्टल ‘गोवा क्रॉनिकल’ के फाउंडर और एडिटर-इन-चीफ सावियो रोड्रिग्स का कहना है कि आने वाले समय में इस दिशा में कुछ कठोर फैसले लेने पड़ सकते हैं।

10 hours ago

रिलायंस-डिज्नी मर्जर में शामिल नहीं होंगे स्टूडियो के हेड विक्रम दुग्गल 

डिज्नी इंडिया में स्टूडियो के हेड विक्रम दुग्गल ने रिलायंस और डिज्नी के मर्जर के बाद बनी नई इकाई का हिस्सा न बनने का फैसला किया है

13 hours ago

फ्लिपकार्ट ने विज्ञापनों से की 2023-24 में जबरदस्त कमाई

फ्लिपकार्ट इंटरनेट ने 2023-24 में विज्ञापन से लगभग 5000 करोड़ रुपये कमाए, जो पिछले साल के 3324.7 करोड़ रुपये से अधिक है।

1 day ago

क्या ब्रॉडकास्टिंग बिल में देरी का मुख्य कारण OTT प्लेटफॉर्म्स की असहमति है?

विवादित 'ब्रॉडकास्टिंग सर्विसेज (रेगुलेशन) बिल' को लेकर देरी होती दिख रही है, क्योंकि सूचना-प्रसारण मंत्रालय को हितधारकों के बीच सहमति की कमी का सामना करना पड़ रहा है। 

1 day ago