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मीडिया में हिन्दी भाषा लागातार अपना परिष्कृत स्वरूप खोती जा रही है, इसकी क्या वजह है?

मंगलेश डबराल, सम्पादक, पब्लिक एजेण्डा: इसकी मुख्य वजह यह है कि मीडिया ने बाजार की भाषा अपना ली है यानि जो बाजार भाषा विज्ञापनों में, होर्डिंग्स में,फिल्मों में अपनाई गई है उसे विभिन्न सूचनो माध्यमों ने अपनाया है। मैं व्यवहार की हिन्दी के पक्ष में बहुत हूँ बाजार की हिन्दी के पक्ष में नहीं हूँ।हिन्दी की परिष्कृत भाषा विचार तथा चिंतन की दुनिया में, सम

समाचार4मीडिया ब्यूरो 12 years ago

मंगलेश डबराल, सम्पादक, पब्लिक एजेण्डा: इसकी मुख्य वजह यह है कि मीडिया ने बाजार की भाषा अपना ली है यानि जो बाजार भाषा विज्ञापनों में, होर्डिंग्स में,फिल्मों में अपनाई गई है उसे विभिन्न सूचनो माध्यमों ने अपनाया है। मैं व्यवहार की हिन्दी के पक्ष में बहुत हूँ बाजार की हिन्दी के पक्ष में नहीं हूँ।हिन्दी की परिष्कृत भाषा विचार तथा चिंतन की दुनिया में, सम्वेदना के क्षेत्रों में काम आ सकती है उसकी भूमिका वहां है जो बनी रहेगी। हिन्दी को विचार, चिंतन और सम्वेदना की भाषा बनाये रखने की भी चिंता करनी होगी। यदि मीडिया को जनता से सार्थक मानवीय सम्वाद स्थापित करना है तो उसके लिये हमें सम्वेदना की भाषा को अपनाने की जरूरत है। यह सही है कि समाचारपत्र सर्वजनिक मीडिया है, एक सार्वजनिक स्फेयर की चीज है लेकिन अपने पब्लिक विमर्श में भी उसका काम है कि चिंतन, विचार, सम्वेदनाओं को तरजीह दें। आज मीडिया में इसका खयाल नही रखा जा रहा है। आज मीडिया के बिभिन्न स्वरूपों, अखबारों तथा रेडियों एफ एम इत्यादि में चुटीली चटपटी, मनोरंजनकारी, बिकने योग्य हिन्दी का प्रचलन ज्यादा चिन्ता का विषय है। ज्यादातर मीडिया में पाठक-श्रोता तथा दर्शक तीनों को उपभोक्ता मानकर चलनें की और उसको सोचवीहीन तथा चिंतनवीहीन सामग्री परोसने की प्रवृत्ति बढती गई है। यदि आप देखे तो टेलीविजन का मूल स्वरूप मनोरंजनकारी है, उसे मनोरंजन के लिये इजाद ही किया गया था इसलिये वहां पहूँचकर हर चीज मनोरंजन में बदल जाती है, चाहे वो राजनीति हो या कोई गम्भीर बहस हो या किसी बहुत बडी सामाजिक समस्या पर बात होती हो वह अन्ततः मनोरंजन में बदल जाता है। इलेक्ट्राँनिक मीडिया में राजनीति भी मनोरंजन है इसलिये आपने देखा होगा कोई भी राजनैतिक बहस तूतू मैंमैं में खतम होती है। यह एक परफार्मेन्स में बदल जाती है हिन्दी भाषा की विकृति का इससे भी गहरा सम्बन्ध है। मीडिया की इस मनोरंजकता ने भाषा को फूहड बना दिया है। हिन्दी भाषा के परिष्कृत स्वरूप का खोना चिंता का विषय नहीं है चिंता का विषय इसकी मनोरंजकता है जो अन्ततः भाषाई स्तर पर फूहड है। ओम थानवी, संपादक, जनसत्ता: परिष्कृत स्वरूप कहने पर एक ऐसी शुद्ध भाषा का बोध होता है जो मानो जड़ भाषा हो। गांधी जी के जमाने में पुरूषोत्तम दास टंडन और आचार्य रामचंद्र शुक्ल जैसे लोग हुए जो महान थे, लेकिन भाषा के मामले में कट्टरपंथी थे। उनसे उलट जो दूसरी दिशा थी, उनमें महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, गणेशशंकर विद्यार्थी जैसे लोग थे। उनका भाषा के प्रति जो नजरिया था, वह गांधी जी के भाषाई विचारों से ज्यादा मेल खाता था। और वह परिष्कृत हिन्दी का रास्ता नहीं था। वह उस सहज, आमफहम, बोलचाल की हिन्दी का रास्ता था जिसमें शब्दों को अरबी, फारसी, तुर्की, अंग्रेजी, पश्तो आदि भाषाओ से भी लिया गया। यदि हिन्दी को आम लोगों के करीब लाना था तो वह परिष्कृत हिन्दी या किताबी हिन्दी का रास्ता नहीं हो सकता था, जो बोलचाल की हिंदी से अपने को दूर रखती आई है। अभय कुमार दुबे, वरिष्ठ पत्रकार: आपका सवाल ही बुनियादी रूप से गलत है। परिष्कृत तो क्या, हिंदी भाषा ने अपना कोई स्वरूप नहीं खोया है। बात तो उल्टी है। मैं तो यह देख रहा हूँ कि हिंदी ने उस्त्रारोस्त्रार अपना विकास किया है। पुराने स्वरूप अपनी जगह कायम हैं, और नए स्वरूप उभर आए हैं। हिंदी का संसार बेहतर और विविध हुआ है। जिसे आप परिष्कृत हिंदी कह रहे हैं शायद उससे आपका मतलब साहित्यालोचना के दायरे में या हिंदी के परम्परागत बुद्धिजीवियों द्वारा बोली और लिखी जाने वाली परिनिष्ठित हिंदी से है। वह हिंदी अपनी जगह कायम है। जो लोग पहले उसे बरतते थे, वे आज भी उसे ही बरतते हैं। उस दुनिया में जो प्रवेश करना चाहेगा, उसे उसी तरह की परिष्कृत या परिनिष्ठित हिंदी का इस्तेमाल करना होगा। करना भी चाहिए, क्योंकि वह हिंदी उस दायरे की ज़रूरतों से उपजी है, उसी की शर्तें पूरी करती है। लेकिन, मीडिया साहित्यालोचना और साहित्यकारों के गोष्ठीबाज़ संसार से अलग तरह का क्षेत्र है। उसे अपनी अलग भाषा चाहिए। जो उसे अस्सी के दशक में मिलनी शुरू हुई, जब मुद्रित मीडिया पहली बार साहित्यिक भाषा के रंगतबे से मुक्त हुआ। उसने अपनी स्वतंत्र भाषाई डगर चुनी। अस्सी के दशक से ही हिंदी पत्रकारिता का वास्तविक विकास शुरू हुआ। उसे नया उछाल मिला। पत्रकार बनने के लिए कवि, कहानीकार, साहित्यालोचक या कुल मिला कर साहित्यकार होने की प्रतिष्ठा ज़रूरी नहीं रह गई। इससे पहले साहित्यकारों को दैनिक पत्रों का सम्पादक बना दिया जाता था, या वे किसी अखबार की रविवारीय पत्रिका में गद्देदार जगह पकड़ लेते थे। उनका समाचार जमा करने से, राजनीतिक विश्लेषण करने से, या खोजी पत्रकारिता करने से, या पत्रकारिता की विशिष्ट कला से कोई वास्ता नहीं रहता था। दरअसल, ये सभी साहित्यकार पत्रकारिता को दोयम दर्जे का काम मानते थे। उनका निगाह में हर रिपोर्टर तिरस्कार योग्य था, क्योंकि वह उनकी तरह जटिल वाक्य रचना वाली परिनिष्ठित हिंदी नहीं लिख सकता था, या निर्मलजी या नामवरजी की तरह रुक-रुक कर उसी हिंदी में व्याख्यान नहीं दे सकता था। रूपक के तौर पर अगर मैं कहूँ तो अस्सी के दशक के बाद अज्ञेयों, विद्यानिवास मिश्राओं और रघुवीर सहायों की जगह प्रभाष जोशियों, राजेंद्र माथुरों और सुरेंद्र प्रताप सिंहों ने ले ली। आज हिंदी का मीडिया जो कुछ भी है, उसकी बुनियाद में यही परिवर्तन है। वैसे भी अगर हिंदी को चारों ओर फैलना था, नवसाक्षरों तक पहुँचना था, तो उसे साहित्यिक भाषा के बंद गलियारे से निकलना ही चाहिए था। मीडिया की भाषा लाज़मी तौर पर बाहरी प्रभाव ज़्यादा तेज़ी से ग्रहण करती है। उसमें संकरता अपेक्षाकृत ज़्यादा होती है। पहले प्रिंट जरनलिज़म की हिंदी बनी, फिर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की हिंदी बनी जो प्रिंट से भी अलग तरह की है। उसके फौरन बाद या उसी के साथ-साथ एफएम चैनलों की हिंदी तैयार हुई। समाज-विज्ञान की हिंदी ज़रा देर से बननी शुरू हुई। आज तरह-तरह की हिंदियों की आवाज़ गूँज रही है। इनमें से किसी भी हिंदी को साहित्य-जगत की परिनिष्ठित हिंदी की कसौटियों पर कसना एक भूल होगी। उस हिंदी को श्रेष्ठ और इन हिंदियों को हीन मानना एक डॉयग्लासिकल रवैया है जिसमें एक ही भाषा के एक रूप के प्रभु और दूसरे रूपों को अधीनस्थ बना दिया जाता है। डॉयग्लासिया भाषाई लोकतंत्र की एंटीथीसिस है। यहाँ मैं साफ कर दूँ कि मैं साहित्यिक भाषा का विरोधी नहीं हूँ। मेरी तो भाषिक शिक्षा-दीक्षा उसी में हुई है। मैं खुद भी मोटे तौर पर उसी को बरतता हूँ। समाज-विज्ञान की हिंदी साहित्यिक भाषा के विमर्शी पहलुओं को लेकर ही बन रही है। चूँकि आपने सवाल मीडिया की हिंदी को लेकर पूछा था, इसलिए मैंने यह जवाब दिया। डॉ वेद प्रकाश वैदिक, वरिष्ठ पत्रकार: इसकी मुख्य वजह यह है कि हमारे देश में अंग्रेजी का वर्चस्व है शिक्षा में, चिकित्सा में, न्यायालयों में और संसद में भी, हर जगह अंग्रेजी का बोलबाला है जिसका बोलबाला होता है लोग उसकी नकल करते हैं। इस समय अंग्रेजी भाषाओं में महाजन के स्थान पर पहूँच गई है, महाजनो येन गतः स पन्थाः। जब तक उसको इस पद से अपदस्थ नहीं किया जायेगा तब तक भाषायें नहीं परम्परायें, हमारी जीवन पद्धति सब भ्रष्ट होती रहेगी। अंग्रेजी जुबान का हिस्सा बनती जा रही है जिससे उसका प्रभाव हमारी सोच में और लेखन में भी पड रहा है। हम बगैर सोचे कुछ भी लिखते है, हमारे भीतर भाषा का संस्कार धीरे धीरे खत्म हुआ है। मैं परिष्कृत हिन्दी के पक्ष में नहीं हूँ लेकिन मैं भ्रष्ट हिन्दी के पक्ष में भी नहीं हूँ। समाचार4मीडिया देश के प्रतिष्ठित और नं.1 मीडियापोर्टल exchange4media.com की हिंदी वेबसाइट है। समाचार4मीडिया.कॉम में हम आपकी राय और सुझावों की कद्र करते हैं। आप अपनी राय, सुझाव और ख़बरें हमें mail2s4m@gmail.com पर भेज सकते हैं या 01204007700 पर संपर्क कर सकते हैं। आप हमें हमारे फेसबुक पेज पर भी फॉलो कर सकते हैं।


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