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जिस तरह हिन्गलिश का हिन्दी भाषा मे प्रकोप हुआ है उससे हिन्दी को किस तरह के खतरे हैं?

ऐसा तभी होगा जब हिन्दी में न तो लेखक रह जायेंगे, न साहित्यकार। हमारी पीढ़ी आज की पीढ़ी से ज्यादा अंग्रेजी पढ़ती थी। लेकिन हमने अंग्रेजी को छानकर ही उसे अपनी भाषा में जगह दी। विश्वविद्यालय और अंतरिक्ष जैसे शब्द गढ़े गए और वे चले भी। लेकिन सब जगह नहीं। चण्डीगढ़ में एक लतीफा है कि रिक्शेवाले को बोलो विश्वविद्यालय चलो तो बगलें झांकता है, युनिवर्सिटी बो

समाचार4मीडिया ब्यूरो 12 years ago

ऐसा तभी होगा जब हिन्दी में न तो लेखक रह जायेंगे, न साहित्यकार। हमारी पीढ़ी आज की पीढ़ी से ज्यादा अंग्रेजी पढ़ती थी। लेकिन हमने अंग्रेजी को छानकर ही उसे अपनी भाषा में जगह दी। विश्वविद्यालय और अंतरिक्ष जैसे शब्द गढ़े गए और वे चले भी। लेकिन सब जगह नहीं। चण्डीगढ़ में एक लतीफा है कि रिक्शेवाले को बोलो विश्वविद्यालय चलो तो बगलें झांकता है, युनिवर्सिटी बोलो तो सही जगह पर पहुंचा देता है। यह इसलिये है कि युनिवर्सिटी कैंपस प्रयोग चलाया गया, न कि विश्वविद्यालय परिसर। भाषा का यह एक बहुत व्यावहारिक पहलू है। हमनें शब्दों के बेहतर विकल्प तैयार करने बंद कर दिए, उन्हें प्रचलित भी नहीं किया। दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि टेलीविजन तथा समाचारपत्रों के दफ्तर में जो एक बाजार को देखने वाला विभाग होता है, वह बहुत प्रभावी हो जाता है, सम्पादकों की पीठ तक पर सवार हो जाता है। वह कहता है आप जिस भाषा में अखबार छापते हैं, वह विद्वानों के लिये है। सड़क की मिली जुली भाषा में छापिये, यानी अंग्रेजी प्रधान हिंदी में। हिन्दी में हिन्गलिश का प्रकोप इसी तरह आया है। उन लोगों की वजह से जिनका हिन्दी से बहुत सम्बन्ध ही नहीं है। मंगलेश डबराल: हिन्दी भाषा में हिंगलिश का प्रवेश भाषाई संवेदहीनता के कारण है। हिन्दी के कुछ अखबारों और चेनलों ने जो भाषा अपनाई है वह सिर्फ खिचडी किस्म की भाषा नहीं है, यदि कहें तो घपला किस्म की भाषा है उसमें भाषा वास्तव में कही पीछे छूट गइ है। जिन शब्दों के लिये हमारे पास हिन्दी अनुवाद नही है मसलन सूचना क्रान्ति से जो शब्द सामने आये जैसे कम्प्यूटर, बाईट, मेमोरी, हार्डडिस्क इनके अनुवाद की जरूरत नही है , हम इन्हें वैसे ही हिन्दी में स्वीकार कर सकते हैं लेकिन हिन्दी में बेहतर शब्द हैं जैसे विज्ञान उसको साईंस लिखा जा रहा है, या पर्यावरण को एनवायरमेन्ट लिखा जा रहा है। जो कृत्रिम शब्द हैं उनका इस्तेमाल नहीं करना चाहिये हिन्दी की ज्यादातर विकृति इसी वजह से है। अंग्रेजी में हर साल साठ हजार शब्द जोडे जा रहे हैं जो हिन्दी सहित अन्य भाषाओ से भी लिये जा रहे है, हिन्दी से घेराव, हडताल इत्यादि जैसे शब्द तक शामिल किये गये हैं। यही बात हिन्दी भाषा में नहीं हो रही है हम नये शब्दों को समाहित नहीं करते बल्कि विज्ञान की जगह साईंस लिख रहे हैं। जो हिन्दी के शब्द प्रचलन में है, जिसे जनता समझती है उन्हें विकृत किया जा रहा है। हिन्दी को खतरा इन्हीं बातों से है। अभय कुमार दुबे: हर भाषा कहीं न कहीं हाइब्रिड होती है। साथ-साथ उसके शुद्धीकरण की मुहिमें भी चलती रहती हैं। ये दोनों प्रक्रियाएँ मिल-जुल कर उसकी रचना करती हैं। जो भाषा केवल संकर होती चली जाएगी, उसके साथ क्रियोलीकरण जैसी दुर्घटनाएँ होंगी। जो केवल शुद्धीकरण के फेर में फँस जाएगी, उसका हाल उर्दू जैसा होगा। आपको ध्यान होगा कि अट्ठारहवीं सदी में उर्दू में मतरू़कात की मुहिम चली थी। मतरू़कात का मतलब होता है छँटाई। दिल्ली में शाह हातिम जैसे फारसी के कुछ आलिमों ने तय किया कि उर्दू से भाखा यानी लोक-भाषाओं के सारे शब्द निकाल कर फेंक दिए जाएँ। लखनऊ में भी यही कारनामा किया गया। नतीजा यह निकला कि उर्दू में अरबी-फारसी के शब्द ठूँस दिए गए। वह समाज से कट कर एक मुट्ठी-भर अभिजनों की भाषा बन कर रह गई। उर्दू बोलने-बरतने वाला यह मुट्ठी भर अभिजन अशराफ मुसलमानों, कायस्थों और कश्मीरी पंडितों का मिला-जुला भद्र वर्ग था। आधा गाँव के भोजपुरीभाषी ग्रामीण मुसलमानों को मुस्लिम लीग के उर्दूभाषी प्रचारक इसीलिए अजनबी लगते हैं। इस भद्र वर्ग का आख्यान और इसके अंतर्विरोध फ्रांसिस रॉबिंसन ने अच्छी तरह उजागर किए हैं। मतरू़कात की मुहिम पर पड़ा हुआ ऐतिहासिक पर्दा अमृत राय ने अपनी एक रचना में पूरी तरह से उठा दिया है। हिंदी में भी बार-बार संस्कृत ठूँसने की कोशिशें हुईं हैं। उसे उर्दू, अरबी, फारसी, ब्रज, अवधी, अंग्रेज़ी, और भोजपुरी से काटने की कोशिशें हुई हैं। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने बीसवीं सदी के पहले दशक से ही इसका जबरदस्त विरोध शुरू किया, और संस्कृत समेत हर भाषा के शब्दों के लिए हिंदी के दरवाज़े खुले रखने की पुरज़ोर वकालत की। संस्कृतनिष्ठता के खिलाफ इसी प्रतिरोध की नुमाइंदगी आगे चल कर आचार्य किशोरी दास वाजपेयी ने की। रामविलास शर्मा ने की। आज हिंदी में कोशकारों, व्याकरणाचार्यों और भाषाकारों की समृद्ध परम्परा है जो हिंदी को शुद्धीकरण के पैरोकारों से बचाते रहते हैं। जहाँ तक क्रियोलीकरण के खतरे का सवाल है, वह हिंदी को छू भी नहीं सकता। क्रियोलीकरण केवल उन्हीं भाषाओं का होता है, जिनके पास विकसित व्याकरण नहीं होता, समृद्ध साहित्यिक परम्परा नहीं होती। जिन भाषाओं में उनके बोले हुए रूप ही प्रधान होते हैं, या जिनमें आधुनिक मीडिया का विकास नहीं होता, या जिनमें राजनीतिक-सांस्कृतिक-वैचारिक विमर्श की परम्पराएँ नहीं होतीं, उनके क्रियोलीकरण का खतरा होता है। हिंदी का विकास इन तमाम खतरों से परे निकल गया है। वह एक शक्तिशाली भाषा है। वह विविध लहज़ों में बोलती और लिखती है। वह एकाधिक क्षेत्रों की ज़रूरतें पूरी करती है। उसमें पिछले तीस-चालीस सालों में जो उछाल आया है, वह अभी कम से कम आधी सदी तक और जारी रहने वाला है। हिंगलिश की परिघटना एक अस्थायी चरण है। धीरे-धीरे इसके प्रभाव में गिरावट आना तय है। ज़ी टीवी ने इसकी शुरुआत की थी। आज ज़ी टीवी से हिंगलिश खत्म हो चुकी है। उन्होंने अपने आप उसे शुरू किया था, अपने आप ही खत्म कर दिया। नवभारत टाइम्स इसे चला रहा है। पर उसका हर तरफ मज़ाक उड़ता है। वह पैरंट जैसा एक शब्द चलाता है, जो अंग्रेज़ी में भी मौजूद नहीं है। वहाँ से भी हिंगलिश जाएगी। हिंदी के दोनों सबसे बड़े अखबार, भास्कर और जागरण में हिंगलिश नहीं चलती है। दरअसल, इसके पीछे जो थियरी काम कर रही है, वह मूर्खतापूर्ण है। भूमंडलीकरण के तहत भारतीय अर्थव्यवस्था का जो विकास हुआ है, उसके प्रभाव के तहत एक आग्रह बना है कि जिस तरह हम हिंदी बोलते समय अंग्रेज़ी के शब्द इस्तेमाल करते हैं, वैसी ही लिखने भी लगें। यानी बोलने वाली और लिखने वाली हिंदी एक हो जाए। सास्युर की भाषा में लांगे और परोल एक हो जाए। यह हो ही नहीं सकता। दुनिया में कहीं नहीं हो सकता। भाषा तो हमारी आपकी देह की तरह है। उसमें भी एक यकृत या जिगर होता है, जो फिल्टर की तरह काम करता है। जो शब्द उसका नहीं होता, वह अपने-आप बाहर फेंक दिया जाता है। अगर पैरंट को हिंगलिश का रूपक मानें तो कहा जा सकता है कि हिंदी में पैरंट नहीं चलने वाला। वैसे भी हिंगलिश की चिंता दिल्ली जैसी जगहों पर ज़्यादा है। हिंदी के विशाल इलाके में हिंदी की दुनिया अपेक्षाकृत अधिक आत्म-विश्वस्त है। डॉ वेद प्रताप वैदिक: हाईब्रिड या लो-ब्रिड का प्रयोग ही यह बतलाता है कि हमने अंग्रेजी के वर्चस्व को स्वीकार कर लिया है। अंग्रेजी के प्रयोग से हिन्दी हाब्रिड नहीं होती, इसी तरह संस्कृत के शब्दों के अंधाधुंध भरमार से हिन्दी कोई समृद्ध नहीं होती है बल्कि वह अधिक कठिन हो जाती है और बोधगम्य नही रहती। भाषा को सरल बहते हुये नीर की तरह होना चाहिये इसलिये उसमें जिस भाषा के भी या बोली के भी शब्द आते है और वो आसानी से अन्तर्भुक्त हो जाते हैं उनको स्वीकार करना चाहिये। समाचार4मीडिया देश के प्रतिष्ठित और नं.1 मीडियापोर्टल exchange4media.com की हिंदी वेबसाइट है। समाचार4मीडिया.कॉम में हम आपकी राय और सुझावों की कद्र करते हैं। आप अपनी राय, सुझाव और ख़बरें हमें mail2s4m@gmail.com पर भेज सकते हैं या 01204007700 पर संपर्क कर सकते हैं। आप हमें हमारे फेसबुक पेज पर भी फॉलो कर सकते हैं।


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