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अखबारों की बेहतरी के लिए अब पाठकों को आगे आना होगा: शशि शेखर

‘हिन्दुस्तान’ के एडिटर-इन-चीफ शशि शेखर ने समाचार4मीडिया से बातचीत के दौरान पत्रकारिता से जुड़े अपने तमाम अनुभव शेयर किए और कई मुद्दों पर खुलकर बात की।

पंकज शर्मा 1 year ago

दिग्गज संपादक, ‘हिन्दुस्तान’ के एडिटर-इन-चीफ और 'समाचार4मीडिया पत्रकारिता 40अंडर40' की जूरी के अध्यक्ष शशि शेखर से हाल ही में दिल्ली स्थित ‘एचटी मीडिया लिमिटेड’ के ऑफिस में मुलाकात हुई। मीडिया में चार दशक से ज्यादा समय से सक्रिय शशि शेखर ने इस दौरान पत्रकारिता से जुड़े अपने तमाम अनुभव शेयर किए और कई मुद्दों पर खुलकर बात की। शशि शेखर के साथ हुई इस बातचीत के प्रमुख अंश आप यहां पढ़ सकते हैं-

सबसे पहले बात करते हैं फेक न्यूज की, जिसकी आजकल काफी चर्चा हो रही है। पिछले दिनों हरियाणा के सूरजकुंड में हुए विभिन्न राज्यों के गृहमंत्रियों के सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी यह मुद्दा उठाते हुए चिंता जताई थी। फेक न्यूज को लेकर आपका क्या कहना है, आखिर यह क्यों इतनी बढ़ रही है?

फेक न्यूज बढ़ने के पीछे दो कारण हैं, एक तो यह है कि जिस मीडिया यानी सोशल मीडिया के जरिये उसका प्रसार किया जाता है, उसकी गति बहुत तेज है। दूसरा, चीजों को जानने की लोगों की जो आकांक्षाएं हैं, उन्हें राजनीतिज्ञों की तरफ से मोल्ड कर दिया गया है। जैसे-आप देखिए कि लोग कहते हैं कि चुनाव में बेरोजगारी और महंगाई मुद्दा है, लेकिन वोट उनके नाम पर नहीं पड़ता है।

जैसे हम जब रिसर्च करते हैं तो तमाम अखबारों/चैनलों के लिए कहा जाता है कि लोग ज्योतिष विषय पर नहीं पढ़ना/देखना चाहते हैं, लेकिन यदि आप उसे छापेंगे/दिखाएंगे तो पाएंगे कि पाठकों के सबसे ज्यादा पत्र उसी विषय पर आते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर वो कौन लोग हैं, जो ज्योतिष नहीं पढ़ना/देखना चाहते और कौन हैं जो सबसे ज्यादा अपनी प्रतिक्रिया देते हैं।
मैं तो इसे फेक न्यूज कहने के भी खिलाफ हूं, क्योंकि मेरा मानना है कि न्यूज तो वही है जो सच है। मेरी नजर में इसे फेक फैक्ट्स बोलना चाहिए।    

क्या आपको लगता है कि फेक न्यूज या यूं कहें कि फेक फैक्ट पर लगाम लगाने के लिए वर्तमान में उठाए जा रहे कदम कारगर हैं। जैसे-पीआईबी समेत तमाम संस्थानों ने अपनी फैक्ट चेक टीम बना रखी है। आपकी नजर में इसकी रोकथाम के लिए क्या कोई ठोस ‘फॉर्मूला’ है?

मेरी नजर में इसकी रोकथाम के लिए कोई ठोस ‘फॉर्मूला’ नहीं है। झूठ हमेशा से बिकाऊ  था और झूठ आज भी बिकाऊ  है। झूठ तब बिकता है, जब सत्य मौजूद होता है। इसके लिए मैं एक उदाहरण बताता हूं-दुनिया का बाजार इसलिए चलता है कि उसमें असली सिक्के और असली रुपये चलते हैं, यदि वहां सभी नकली सिक्के और नकली रुपये चलने लगें तो बाजार बंद हो जाए।

इसी तरह असली और नकली न्यूज की बात है। इसलिए कहा जाता है कि संस्थानों को वर्षों लग जाते हैं अपनी ब्रैंड इक्विटी बनाने में। इसी तरह पत्रकारों को भी वर्षों लग जाते हैं अपनी क्रेडिबिलिटी बनाने में। तो ये समय है, जब सच्चे पत्रकारों के वाकई अच्छे दिन आ गए हैं, क्योंकि लोग उनकी ओर देखते हैं कि यदि यह बोल रहा होगा तो सच बोल रहा होगा।    

अब जबकि कोविड लगभग खत्म हो चुका है। ऐसे में अखबारों के नजरिये से वर्तमान दौर को आप किस रूप में देखते हैं। क्या अखबार कोविड से पहले के दौर की तरह अपनी पहुंच फिर बनाने में और टीवी व डिजिटल को टक्कर देने में कामयाब रहेंगे?

ये सभी अलग मीडियम हैं, इसलिए टक्कर देने जैसी कोई बात ही नहीं हैं। हां, जहां तक अखबारों के सर्कुलेशन की बात है तो आंकड़े गवाह हैं कि 90 प्रतिशत से ज्यादा सर्कुलेशन वापस आ गया है। अखबारों की जो कॉपियां पहले की तरह नहीं वापस आ पाईं, उनका कोविड से कोई लेना-देना नहीं है। मेरा मानना है कि वह फेक सर्कुलेशन था, जो कुछ अखबारों में सर्कुलेशन विभाग के लोग कॉपी बढ़ा-चढ़ाकर बता देते हैं, वह खत्म हो गया है। हालांकि, असली पाठक तो तुरंत ही लौट आया था।  इसके साथ ही उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि सभी अखबार ऐसा नहीं करते हैं। सिर्फ कुछ छोटे-मोटे अखबार ही अपने निहित स्वार्थ के लिए ऐसा करते हैं।

मीडिया में अपने लंबे कार्यकाल के दौरान आपने पत्रकारिता को काफी बारीकी से देखा है। आपकी नजर में पहले के मुकाबले वर्तमान दौर की पत्रकारिता में क्या बदलाव आया है। क्या यह सकारात्मक है अथवा नकारात्मक। इस बदलाव को आप किस रूप में देखते हैं?

मेरी नजर में यह बदलाव नकारात्मक नहीं बल्कि पूरी तरह सकारात्मक है। मैं जब 20 साल का था, उस समय पत्रकार बन गया। मैं जिस समय पत्रकारिता के पेशे में आया, उस समय बड़ी तेजी से टेक्नोलॉजी बदल रही थी। प्रिंटिंग टेक्नोलॉजी बदल रही थी। पुरानी रोटरी जा रही थी। ऑफसेट मशीनें आ रही थीं। मेरे देखते-देखते कंपोजिंग के लिए कंप्यूटर आ गए और यह धीरे-धीरे हमारी जिंदगी का हिस्सा बन गए। जब इंसानियत बदल रही थी, तौर-तरीके बदल रहे थे, टेक्नोलॉजी बदल रही थी, उस समय मीडिया ने भी अपने आपको उसी तरह से बदला।

अब कभी-कभी लगता है कि आज मैं 20 साल का क्यों नहीं हूं। तब के दौर में और अब के दौर में एक बड़ा अंतर यह है कि करीब 40 साल पहले मुझे अपनी बात रखने के लिए किसी संस्थान की आवश्यकता होती थी। आज बहुत से ऐसे लोग हैं जो किसी संस्थान के बिना भी अपनी बात रखने में सक्षम हो पा रहे हैं। यह वो दौर है, जहां सभी साहसी-दुस्साहसी और ऊंचे सपने देखने वाले लोगों के लिए खुला आमंत्रण है कि आइए, मैदान में उतरिये और कुछ नया कीजिए, आपके लिए जगह खाली है।  

तमाम अखबारों ने अब सबस्क्रिप्शन मॉडल अपनाया हुआ है, यानी बिना सबस्क्राइब किए पाठक अब उन अखबारों को इंटरनेट पर नहीं पढ़ सकते हैं। इस मॉडल के बारे में आपका क्या कहना है? क्या आपको नहीं लगता कि इससे रीडरशिप प्रभावित होती है। क्योंकि डिजिटल रूप से समृद्ध पाठकों के पास आज सूचना प्राप्त करने के तमाम स्रोत हैं। ऐसे में वे पैसा देकर ऑनलाइन अखबार क्यों पढ़ेंगे? इस बारे में क्या कहना चाहेंगे?

जब पाठक पैसा देकर अखबार खरीदते हैं तो वे पैसा देकर इसे इंटरनेट पर क्यों नहीं पढ़ना चाहेंगे। मेरा मानना है कि कंटेंट फ्री रखने की इजाजत ही खत्म कर देनी चाहिए। कानूनी बाध्यता होनी चाहिए कि पैसा खर्च करके अखबार पढ़ें। इस देश का कबाड़ा ही इसलिए हुआ, जब अखबारों में 80 के दशक में इनविटेशन प्राइस यानी आमंत्रण मूल्य शुरू हुआ। ऐसे में लोगों को लगने लगा कि अखबार काफी सस्ती चीज है और उन्हें यही आदत पड़ गई। फिर टीवी चैनल आ गए और अंधी दौड़ शुरू हो गई। ऐसे में बजाय कंटेट पर लड़ाई करने के चैनल फ्री दिखाने शुरू कर दिए गए।

मुझे याद है कि जब मैं ‘आजतक’ के साथ काम करता था, तो हमने एक साल के अंदर ही सबसे विश्वसनीय ब्रैंड की उपाधि हासिल कर ली थी और उसकी वजह यही थी कि हमारा मानना था कि खबर वही है, जो सच हो। सबसे पहले खबर दिखाने से ज्यादा हमारा जोर सबसे पहले सच दिखाने का था। जब आपका कंटेंट नया और विश्वसनीय होगा, ऐसे में पाठक/दर्शक पैसे क्यों नहीं देना चाहेंगे। जब आप अखबार खरीदने के लिए पैसा ही नहीं खर्च करेंगे तो अखबार ‘जिंदा’ कैसे रहेगा?            

तमाम अखबारों में एडिटोरियल पर मार्केटिंग व विज्ञापन का काफी दबाव रहता है। आपकी नजर में एक संपादक इस तरह के दबावों से किस तरह मुक्त होकर स्वतंत्र रूप से संपादकीय कार्यों का निर्वहन कर सकता है? 

देखिए, यह तो सबसे ज्यादा ऐसे लोगों की शोशेबाजी है, जो कभी संपादक हुआ करते थे और अब उस पद पर नहीं हैं। कुछ तो ऐसे भी संपादक हुए हैं जो किसी एक संस्थान से निकाले जाने के बाद फिर उसी संस्थान में दूसरी-तीसरी बार संपादक बने। मैं ऐसे लोगों से पूछना चाहता हूं कि यदि वह संस्थान इतना ही खराब था, तो फिर आप दोबारा वहां क्यों गए। कुछ ऐसे भी लोग हैं, जो पद से हटने के बाद लिखना शुरू कर देते हैं कि वहां तो काफी दबाव था।

मैं ऐसे लोगों से पूछता हूं कि ऐसे में आप वहां इतने साल क्या कर रहे थे? जहां तक मेरी बात है तो मैं नहीं मानता कि मेरे ऊपर इस तरह का कोई दबाव है। न ही मुझसे कोई कहता है कि विज्ञापन के लिए ये खबर लगा दो और न ही मैं किसी के कहने पर लगाता हूं, लेकिन संपादकों को भी यह मानना चाहिए कि जब उनका अखबार लोगों तक कम दाम पर पहुंच रहा है तो उनकी सैलरी आखिर कहां से आती है? ऐसे में इसका कोई ऐसा रास्ता तलाशना पड़ेगा कि आपका संपादक भी बचा रहे और सारी चीजें बची रहें। कुछ लोग इधर बहुत शोशेबाजी कर रहे हैं। तमाम पत्रकार बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, मैं इनसे पूछता हूं कि जब आपके संस्थान में गड़बड़ी हो रही थी, तब आपके मानक कहां चले गए थे?

आप देखिए कि आज के दौर में जो स्वयंभू बड़े और ईमानदार पत्रकार हैं, क्या वो किसी निश्चित एजेंडे पर नहीं चल रहे हैं? पत्रकारों में कितने ऐसे लोग हैं, जो तटस्थ हैं? ऐसे कितने पत्रकार हैं जो कहते हैं कि मुझे पदमश्री नहीं चाहिए, मैं कभी राज्यसभा नहीं जाऊंगा। ऐसे कितने पत्रकार हैं जो सीना ठोंककर कहते हैं कि मैं रिटायर होने के बाद सीधा अपने गांव चला जाऊंगा। लेकिन कम से कम अपने बारे में मैं यह दावे के साथ कहता हूं। भाई, जब हम किसी तरह की तीन-पांच नहीं करते हैं तो हम क्यों किसी के लिए पार्टी बनें, हमें इस तरह की जरूरत ही नहीं है।

पत्रकारिता की दुनिया में शशि शेखर जाना-माना नाम है। शशि शेखर के बारे में कहा जाता है कि वह काम करते हुए कभी थकते नहीं हैं। अपनी इस असीम ऊर्जा से वह अपने अधीन कार्यरत सहकर्मियों के लिए भी प्रेरणा स्रोत बने हुए हैं। आखिर इस असीम ऊर्जा के पीछे क्या राज है?

सच कहूं तो इसके पीछे कोई राज नहीं है। मैं ऐसा ही हूं। ईश्वर ने मुझे ऐसा ही बनाया है। 

इस फील्ड में कार्यरत अथवा नवागत पत्रकार आपसे काफी प्रेरित होते हैं। ऐसे में मीडिया में आ रहे युवा पत्रकारों के लिए आप क्या संदेश या यूं कहें कि सफलता का क्या ‘मूलमंत्र’ देना चाहेंगे?

मैं खुद को इतना बड़ा अथवा ‘मसीहा’ नहीं मानता कि मैं लोगों से कुछ कहूं। मैं उनसे सिर्फ यही कहना चाहूंगा कि देखिए, आप यदि खबर के धंधे में हैं तो खबर सिर्फ सत्य है। सत्य भी वही है जो प्रमाणित हो सके। आपको दो उदाहरण देता हूं। बोफोर्स का मामला जब आया, तो उस समय हम तमाम नौजवानों ने इस पर काफी कुछ लिखा। उस समय बहुत कुछ लिखा गया कि भ्रष्टाचार हो गया और पता नहीं क्या-क्या हो गया, लेकिन ये आज तक प्रमाणित नहीं हुआ कि बोफोर्स में किसने दलाली ली, किसने दी और क्या हुआ।

अब राफेल का मामला आया, तब कुछ लोगों ने बड़ा हल्ला मचाया और बाकायदा चैलेंज किया कि अमुक अखबार और अमुक संपादक राफेल मामले पर नहीं छाप रहा है, लेकिन जब मेरे पास राफेल मामले पर कोई प्रूफ ही नहीं था तो मैं क्या छापता। उस समय एक अखबार ने इस पर काफी छापा, लेकिन सुप्रीम कोर्ट में वह टिक ही नहीं सका। अब या तो वह अखबार सही था या सुप्रीम कोर्ट, कोई तो फैसला करेगा। आखिर सुप्रीम कोर्ट तथ्यों पर काम करता है, वह आपके मन से थोड़े ही न फैसला देगा। इसलिए, मैं फिर कहता हूं कि सत्य वही है, जो प्रमाणित हो सके। इसलिए, यदि आप सत्य से जरा भी विचलित होंगे, जो जान लीजिए कि आप उसी समय प्रोपेगेंडा का हिस्सा बन जाएंगे।

हाल ही में कानपुर से समाजवादी पार्टी के विधायक अमिताभ बाजपेई को एक साल की सजा सुनाई गई है। कुछ दिन पहले बीजेपी के एक विधायक को सजा हुई थी। कुछ दिन पहले आजम खान की विधानसभा की सदस्यता गई थी। इसी तरह तमाम कई बड़े नेताओं को सजा हुई।

मैं आपको बता दूं कि ये सजाएं अखबारों की रिपोट्र्स पर नहीं हुईं, बल्कि उन विवेचनाओं पर हुईं, जो प्रमाणित कर सकीं कि इन्होंने गलत किया था। ऐसे में जब कुछ लोग यदि ये कहते हैं कि अखबार में ये नहीं लिखा गया और इस बारे में नहीं लिखा गया तो उन्हें ये भी तो सोचना चाहिए कि आखिर किस आधार पर लिखा जाए। लिखने के लिए कोई तो प्रमाण होना चाहिए।


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