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मालिक ईमानदार है, तो वह नहीं चाहेगा कि उसका अखबार किसी की ओर झुका दिखाई दे: राम कृपाल सिंह
राम कृपाल सिंह देश के वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं। इन्होंने 40 साल से भी अधिक का समय मीडिया को दिया है। वहीं ‘टाइम्स ग्रुप’ के साथ इन्होंने करीब 24 साल काम किया है।
समाचार4मीडिया ब्यूरो 3 years ago
राम कृपाल सिंह देश के वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं। इन्होंने 40 साल से भी अधिक का समय मीडिया को दिया है। वहीं ‘टाइम्स ग्रुप’ के साथ इन्होंने करीब 24 साल काम किया है। समाचार4 मीडिया से खास बातचीत में राम कृपाल सिंह ने न सिर्फ अपनी जीवन यात्रा को साझा किया बल्कि वर्तमान मीडिया पर भी खुलकर अपने विचार रखे। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश:
आप तो कानून की पढ़ाई कर रहे थे, फिर पत्रकार कैसे बन गए?
मैं ‘बीएचयू‘ से कानून की पढ़ाई कर रहा था और मेरी इच्छा न्यायपालिका में ही जाने की थी। वर्तमान में राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश राय जी और मैं साथ ही पढ़ा करते थे। जेपी आंदोलन के समय मैं और हरिवंश जी दोनों एक साथ उससे जुड़े हुए थे। हरिवंश जी ने ही मुझसे कहा कि एक पत्रकार का कोर्स होता है और आपको वो करना चाहिए।
मैंने उनकी बात मानी और कोर्स पूरा होने के बाद मुझे ‘आज‘ अखबार के चंद्रकांत जी ने बुलाया। उन्होंने मुझे वहां काम करने का ऑफर दिया और मैंने तकरीबन छह महीने वहां काम किया। इसके बाद मुझे ‘टाइम्स ऑफ इंडिया‘ से जुड़ने का मौका मिला और वर्ष 1978 में मुझे मुंबई जाने का मौका मिला और इसी के साथ ‘टाइम्स ग्रुप‘ के साथ मेरा रिश्ता शुरू हुआ।
आपने जिस दौर में अपना काम शुरू किया वो एक राजनीतिक अस्थिरता का दौर था, कुछ उस दौर के बारे में बताए।
गुजरात के एक कॉलेज की कैंटीन का बिल बढ़ा दिया गया था और इसके बाद वहां एक असंतोष पैदा हुआ। फिर वो लोग जेपी से मिले और उन्होंने भी छात्रों का समर्थन किया। हरिवंश जी ने ही कोशिश करके जेपी को ‘राजा राम मोहन राय‘ हॉस्टल में बुलाया था। देखते ही देखते वो आंदोलन ‘चिमन भाई पटेल हटाओ‘ से ‘अब्दुल गफूर हटाओ‘ तक जा पहुंचा था।
उसी दौर में मेरे पत्रकार जीवन की शुरुआत हो रही थी। इसके बाद जैसा कि मैंने आपको बताया कि मैं मुंबई गया, लेकिन मैं लखनऊ आना चाहता था। उस समय तक राजेंद्र माथुर जी ‘नवभारत टाइम्स‘ जॉइन कर चुके थे और 1980 के शुरुआती समय में मैं लखनऊ ‘नवभारत टाइम्स‘ चला आया।
इसके बाद इंदिरा गांधी जी की हत्या हुई और बाद में राजीव गांधी जी को पीएम बना दिया गया। उस दौर की लगभग सभी घटनाओं को मैंने कवर किया है। उसी दौर में संतोष भारतीय जी मेरे पास आए और ‘रविवार‘ में काम करने का ऑफर वो लाए थे। उस समय नकवी जी और मैं साथ ही रहते थे और हम दोनों फिर ‘रविवार‘ में चले गए।
मैं उस समय सहायक संपादक और नकवी जी बतौर समाचार संपादक ‘रविवार‘ से जुड़े और 1985 के आसपास वो समय था, जब हम ‘चौथी दुनिया‘ नाम के अखबार से जुड़ गए। एक समय के बाद वापस लखनऊ जाने का मौका मिला, क्योंकि एसपी सिंह और राजेंद्र माथुर चाहते थे कि मैं वापस ‘नवभारत टाइम्स‘ में आ जाऊं और मैं और नकवी जी एक बार फिर लखनऊ की ओर चल दिए।
इसी के बाद राम जन्मभूमि आंदोलन की शुरुआत होती है। 1990 में जो गोलीकांड हुआ और उसके बाद 1992 में बाबरी मस्जिद के उस ढांचे को गिराया गया, वो सब घटनाएं मैंने एक पत्रकार के तौर पर देखीं और अनुभव की हैं।
एक दौर शाहबानो केस का भी आया, जब मैं ‘रविवार‘ में था। कभी किसी ने कल्पना नहीं की थी कि एक चुनी हुई सरकार अपने प्रचंड बहुमत का इस्तेमाल सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को बदलने के लिए कर सकती है।
उस घटना के बाद भारत की राजनीति में एक अभूतपूर्व बदलाव आया। उस एक्शन के रिएक्शन में राजीव गांधी को राम मंदिर का ताला खुलवाना पड़ा। मुझे ऐसा लगता है कि जेपी आंदोलन से लेकर बाबरी मस्जिद के विध्वंस तक का दौर एक ऐसा दौर था, जिसमें पत्रकारिता करना और निष्पक्ष काम करना बड़ी चुनौती थी।
शाहबनो के साथ जो हुआ, वो गलत था। क्या आप बताना चाहेंगे कि उस समय समाचार पत्रों ने इस घटनाक्रम को लेकर कैसे कवरेज की?
आजादी के बाद के समय को देखें तो देश में कई जगह छोटे-मोटे विवाद देखने को मिले, लेकिन राजीव गांधी ने कोर्ट के निर्णय के साथ जो छेड़छाड़ की, उसका व्यापक असर देखने को मिला।
दरअसल, आप इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि एक सांप्रदायिक राजनीति की शुरुआत उसी दौर के बाद देश में शुरू हुई। दरअसल, राजीव गांधी राजनीति के उन दांवपेचों से अवगत नहीं थे, जो कि अपने जीवनकाल में हर नेता को झेलने होते हैं।
इसके विपरीत अगर आप इंदिरा गांधी को देखें तो वो हर विचारधारा के लोगों को अपने पास रखती थीं, जगह देती थीं और सुनती भी थीं, लेकिन करती वही थीं, जो उनके मन को अच्छा लगता था। राजीव गांधी की इसी गलती का परिणाम राष्ट्रीय स्तर पर दंगों के रूप में देखा गया और उस समय ऐसी घटनाओं की कवरेज करना इतना आसान नहीं होता है।
1990 से 1992 के बीच जो घटनाएं हुईं, उनका निष्पक्ष तरीके से विश्लेषण करना बेहद कठिन कार्य था, ये सब संवेदनशील घटनाएं थीं, जिन्होंने देश की राजनीति को एक नए आयाम दिए।
बाबरी मस्जिद के गुंबद को जब तोड़ा गया तो वो तस्वीर सबसे पहले ‘टाइम्स नेटवर्क‘ के अखबारों में छापी गई थी। इसके अलावा दंगों में मरने वाले लोगों की कभी हमने गलत रिपोर्टिंग नहीं की। उस दौर में कई ऐसे अखबार और पत्रिकाएं थे, जो बढ़ा-चढ़ाकर आकंड़ा दिखा रहे थे, लेकिन हम लोगों ने कभी ऐसा कुछ नहीं किया।
एक अखबार को चलाने के लिए तमाम संसाधन और पैसा चाहिए। क्या संपादक होने के नाते कभी आपने कॉर्पोरेट का दबाब झेला है?
मैंने अरुण पुरी जी के साथ भी काम किया, अशोक जैन और उनके बच्चे विनीत और समीर जैन के साथ भी काम किया है। ‘टाइम्स ग्रुप‘ के साथ मेरी यात्रा 24 साल से भी अधिक समय तक रही है। मुझे एक बार विनीत जैन ने साफ कहा था कि अगर कोई विज्ञापनदाता किसी भी खबर के लिए अगर आप पर दबाब डाले तो आप सीधे मुझे कॉल कर सकते हैं।
मैं आपको ये दावे के साथ कह सकता हूं कि मैंने आज तक किसी के भी दबाब में कोई न्यूज नहीं छापी है। इतना जरूर है कि अगर किसी दिन अमुक कंपनी का परिणाम जारी हो रहा हो तो उसका मालिक अनुरोध जरूर करता था।
इस प्रकार के अनुरोधों पर मैं एक ही जवाब देता था कि अगर परिणाम आएगा तो वो वैसे भी छपने ही वाला है। इसमें संपादक से कहने की कोई जरूरत नहीं है।
आपको बता दूं कि अरुण पुरी जी हमेशा एक बात कहते थे कि आप किसी भी व्यक्ति के चरित्र हनन की खबर को पूरी पड़ताल करने के बाद ही छापें ! अगर वो गलत हुई तो माफी मांगने की नौबत भी आएगी, लेकिन तब तक बड़ी देर हो जाएगी। मुझे अपने अनुभव से ऐसा लगता है कि अगर आप ईमानदार हैं और अपनी जिम्मेदारी समझते हैं तो कोई भी व्यक्ति नहीं चाहेगा कि उसका अखबार किसी की ओर झुका हुआ दिखाई दे।
वर्तमान में टीवी और टीआरपी के खेल में हो रहे शोर शराबे को कैसे देख रहे हैं ?
टीवी, रेडियो और अखबार ये तीनों माध्यम अपने आप में एक अलग तरह से काम करते हैं। इनकी कुछ ताकतें हैं तो कुछ कमजोरी भी हैं। अगर किसी दिन खबरें अधिक हैं तो अखबार में पेजों की संख्या बढ़ाई जा सकती है, लेकिन टीवी के पास तो सिर्फ तय समय है। उसमे भी आपको विज्ञापन दिखाने हैं।
अब इसी का आप दूसरा पहलू देखिए।अगर आज सुबह दस बजे कोई घटना हुई तो अखबार में तो कल सुबह ही आएगी, लेकिन टीवी में आप उसको तुरंत देख सकते हैं वो भी वीडियो के साथ। मुझे ऐसा लगता है कि दर्शकों/पाठकों को बनाए रखने की हर माध्यम की अपनी मजबूरी होती है। इसके लिए कई बार कुछ अलग करने के चक्कर में नाग- नागिन जैसी चीज होती हैं।
जिस हिंदुस्तान को लोग सिर्फ किताबों में पढ़ते थे और सुनते थे, उस हिंदुस्तान से टीवी ने लोगों को रूबरू करवाया और मुझे लगता है कि वो दौर अब खत्म हो गया है और अब आने वाले समय में चीजें बेहतर होंगी।
वर्तमान में कई लोग कहते हैं कि टीवी डिबेट खत्म कर देनी चाहिए, सोशल मीडिया पर भी तमाम द्वेष फैला हुआ है! इससे कितने सहमत हैं?
देखिए, जो पीड़ा आपके प्रश्न में है, वो दर्शक की भी है और मेरी भी है, लेकिन मैं आशावादी इंसान हूं। श्री कृष्ण को भी पता था कि ये जो हो रहा है वो ठीक नहीं हो रहा है, लेकिन आगे का रास्ता भी यहीं से होकर निकलेगा।
ऑपरेशन ‘ब्लू स्टार‘ के बाद भी इंदिरा गांधी जी को ये कहना पड़ा था कि ये जरूरी हो गया था, इसलिए करना पड़ा। इस दौर में भी ऐसे कई चैनल्स हैं, जो अब साफ सुथरे ढंग से अपनी बात कहने लगे हैं। आज जिस तरह से शोर हो रहा है और मेहमानों की आवाज सुनाई ही नहीं देती है तो जो भी एंकर ये कर रहे हैं, उन्हें उनका दर्शक ही आने वाले समय में कुछ अच्छा करने के लिए मजबूर कर देगा।
समाचार4मीडिया के साथ राम कृपाल सिंह की बातचीत का वीडियो आप यहां देख सकते हैं।
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