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आज हर दूसरा व्यक्ति संपादक बना हुआ है, जिससे भ्रम की स्थिति है: वाशिंद्र मिश्र
वरिष्ठ पत्रकार वाशिंद्र मिश्र लगभग 31 वर्षों से पत्रिकारिता के क्षेत्र में सक्रिय हैं। उन्हें टेलिविजन इंडस्ट्री में 19 वर्षों और प्रिंट इंडस्ट्री में करीब 12 वर्षों का अनुभव है।
समाचार4मीडिया ब्यूरो 3 years ago
वरिष्ठ पत्रकार वाशिंद्र मिश्र लगभग 31 वर्षों से पत्रिकारिता के क्षेत्र में सक्रिय हैं। उन्हें टेलिविजन इंडस्ट्री में 19 वर्षों और प्रिंट इंडस्ट्री में करीब 12 वर्षों का अनुभव है। समाचार4मीडिया के साथ एक बातचीत में उन्होंने अपने इस सफर के बारे में विस्तार से बात की है। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश-
अपने प्रारंभिक जीवन और शिक्षा के बारे में कुछ बताइए, पत्रकार कैसे बने?
मुझे तो ग्रामीण विरासत मिली है, मैंने अपनी शुरुआती पढ़ाई भी गांव से ही की है। इसके बाद लखनऊ क्रिश्चियन कॉलेज से ग्रेजुएशन करने के बाद लखनऊ यूनिवर्सिटी से वेस्टर्न हिस्ट्री में पोस्ट ग्रेजुएशन किया। उस समय मैं लेखन और पढ़ाई में रुचि लेने लग गया था। ‘पॉयनियर’ में मेरा साप्ताहिक लेख आने लग गया था। जब मैं पीएचडी कर रहा था उसी समय एक वरिष्ठ पत्रकार का सानिध्य मुझे मिला और वहीं से मेरे पत्रकार बनने की कहानी शुरू हुई। शुरु में मुझे रिपोर्टिंग का काम दिया गया था। लगभग 12 साल तक मैंने प्रिंट में काम किया है और बड़े-बड़े अखबार जैसे ‘हिंदुस्तान टाइम्स‘ तक की टीम के साथ मुझे काम करने का मौका मिला। उसके बाद मैं टीवी पत्रकारिता में आ गया।
जब मैं ‘जी मीडिया‘ में आया तो मुझे लखनऊ ब्यूरो का चीफ बनाकर भेजा गया। उसके बाद मेरी मेहनत से प्रभावित होकर मुझे दिल्ली बुला लिया गया और बाद में प्रादेशिक चैनल्स की जिम्मेदारी मुझे दे दी गई। शुरू में यूपी से हमने शुरू किया और बाद में एमपी, राजस्थान और बिहार जैसे कई राज्यों में हमने प्रादेशिक चैनल शुरू किया और मुझे एडिटर की जिम्मेदारी दी गई। उसके बाद ‘नेटवर्क18‘ ग्रुप में सलाहकार संपादक की भूमिका में भी काम किया। इसके बाद एक और चैनल को रीलॉन्च किया और वर्तमान में मैं अपने खुद के डिजिटल नेटवर्क को बड़ा करने की कोशिश कर रहा हूं।
जैसा कि आपने बताया कि आपने 12 साल प्रिंट में काम किया तो कोई खास वजह रही कि आप फिर प्रिंट को छोड़कर टीवी में चले गए?
दरअसल,, जब टीवी इंडस्ट्री आगे बढ़ने लगी तो उस समय विद्वान लोग उनके पास नहीं थे। लगभग सभी बड़े लोग प्रिंट में होते थे तो टीवी में जितने भी लोग शुरुआती दौर में शामिल हुए, वो सब प्रिंट से ही थे। मेरे साथ भी कमोबेश यही हुआ था। मेरे भी दो सीनियर साथियों ने मुझे टीवी में आने का आग्रह किया था और मैं मना नहीं कर पाया। इसके अलावा मुझे लगता है कि प्रिंट में टैलेंट अधिक है और कार्यप्रणाली भी उत्तम है। प्रिंट में आप इतनी आसानी से किसी भी खबर को पेज पर नहीं छाप सकते हैं। उसका अपना एक तरीका है लेकिन टीवी में कई बार ऐसी गलती होती है। इसके अलावा आज भी प्रिंट का पत्रकार सामाजिक मुद्दों को लेकर अधिक मुखर है, लेकिन टीवी में कहीं ना कहीं ग्लैमर अधिक है। टीवी में ऐसा लगता है कि बस आदमी अपनी नौकरी कर रहा है, लेकिन प्रिंट में अखबार छपने के बाद भी घंटों उस पर बात चलती रहती है।
आपने बताया कि आपको ‘जी मीडिया‘ के प्रादेशिक चैनल्स की कमान दी गई। क्या आपको ऐसा लगता है कि इस देश में रीजनल मीडिया को उतनी तवज्जो नहीं दी जाती?
मुझे ऐसा लगता है कि रीजनल चैनल अधिक शक्तिशाली होते हैं। दरअसल लोकल स्तर की खबरें जो आम आदमी से जुड़ी हुई रहती हैं, वो रीजनल मीडिया ही दिखा सकता है, नेशनल मीडिया नहीं। नेशनल मीडिया के पास उतना स्पेस नहीं होता कि वो छोटी-छोटी खबरों को जगह दे सके। अखबार को ही आप देख लीजिए, लोग सभी प्रकार के अखबार पढ़ते हैं लेकिन हां, भाषा कभी-कभी समस्या बन जाती है। दक्षिण में आप देखिए कि कैसे वहां के स्थानीय स्तर के चैनल और समाचार पत्र हमसे अच्छा कर रहे हैं जबकि मध्य भारत में ऐसा नहीं देखने को मिलता है। इसके लिए हिंदी चैनल लाने वाले लोग भी उतने ही जिम्मेदार हैं, जितना कि एक हिंदी का पत्रकार, अगर आप अपने दर्शकों से जुड़ नहीं सकते हैं और उनके हिसाब से आप कंटेंट नहीं बना सकते हैं तो वो आपसे रिश्ता तोड़ लेता है।
क्या आपको संपादक रहते हुए कभी ऐसा महसूस हुआ कि रीजनल टीवी में पत्रकार को डराना धमकाना अधिक होता है? क्या उतनी आसानी से सुनवाई होती है?
मेरे अनुसार यह समस्या सिर्फ टीवी नहीं बल्कि हर जगह आती है। इसमें रीजनल और नेशनल का कोई भेद नहीं है और पूरी जांच भी करनी जरूरी होती है। मैं आपको प्रिंट का एक उदाहरण देता हूं। वर्षों पहले ‘एनबीटी‘ के एक जिला स्तर के पत्रकार ने एक खबर छापी, जिसको लेकर डीएम और एसपी नाराज थे। पत्रकार के खिलाफ मुकदमे लिखकर जेल भेजने की कोशिश हुई और स्थानीय पत्रकार प्रदर्शन करने लगे। धीरे-धीरे वो मुद्दा राष्ट्रीय स्तर का मुद्दा बन गया। फिर प्रेस काउंसिल की एक फैक्ट चेक करने वाली कमेटी को भेजा गया और जांच में पाया गया कि उस जिला स्तर के पत्रकार ने अपनी विचारधारा के तहत खबरों को अलग मोड़ दिया और एसपी और डीएम के निजी जीवन पर भी गलत लिखा, वहीं पशुओं की तस्करी में भी स्थानीय मीडिया की भूमिका संदिग्ध थी। इसलिए मेरा कहना यह है कि कोई भी मामला रीजनल बनाम नेशनल नहीं होता। अच्छे से जांच लगभग सभी मामलों की होती रही है। हालांकि कुछ सालों से मैं चीजों में बदलाव देख रहा हूं। पहले पत्रकार का एक नियम होता था कि वो दोनों पक्षों को अपनी रिपोर्ट में जगह देता था लेकिन वर्तमान में ये चीज बदल गई है। आजकल मैं देख रहा हूं कि ज्यादातर बस एक ही पक्ष को दिखाया जाता है। अगर आप पक्ष में लिख रहे हैं तो ठीक लेकिन अगर आप आलोचक हैं तो आपको दुश्मन की तरह मान लिया जाता है। इसलिए अब वो संस्थान खत्म हो रहे हैं, जो ईमानदारी की मिसाल हुआ करते थे।
जैसा कि आपने बताया कि आपने वर्तमान में अपने डिजिटल चैनल की जिम्मेदारी संभाली हुई है तो क्या आपको लगता है कि अब डिजिटल ही भविष्य है?
मुझे पूरी तरह से ऐसा नहीं लगता है। दरअसल डिजिटल में पिछले कुछ समय से फेक कंटेंट की शिकायत बड़ी आ रही है और ऐसे में लोग इससे परेशान हो रहे हैं। मुझे नहीं लगता है कि यह मीडिया का विकल्प बन सकता है। आज हर दूसरा व्यक्ति संपादक बना हुआ है और इससे भ्रम की स्थिति बनी हुई है। कई लोग तो बस एजेंडा चलाते हुए दिखाई दे रहे हैं और ऐसे में उसकी उम्र कितनी होगी, कह नहीं सकते! कई लोग जो अखबार और टीवी में अपने बेकार काम के कारण निकाल दिए गए और अब यहां आकर अपनी कुंठा निकाल रहे हैं। आज देश डिजिटल क्रांति की ओर बढ़ चुका है और ऐसे में आप देश की जनता को अपनी एकतरफा रिपोर्टिंग से पागल नहीं बना सकते है। अब वो समय खत्म हो गया है कि एक पत्रकार मामले को तूल देकर अपना हित साध ले, ऐसा करने वाले अब खत्म होने की कगार पर है। कुछ पत्रकार विदेशी घटनाओं में भी भारत को घसीटने का काम करते हैं, लेकिन एक-दो दिन से अधिक वो मुद्दा चलता नहीं है। अब जनता जागरूक और समझदार हो चुकी है।
क्या आपको ऐसा लगता है कि देश में आज लिखने और बोलने की आजादी नहीं है?
नहीं! मैं ऐसा बिल्कुल भी नहीं मानता हूं कि देश में बोलने और लिखने की आजादी नहीं है। अगर ऐसा नहीं होता तो हम और आप संवाद कैसे कर रहे होते? दरअसल ये एजेंडा कुछ लोगों की कुंठा का नतीजा है। संविधान ने आपको अधिकार दिए हैं तो सीमाएं भी बनाई हैं। समस्या तब आती है जब आप अधिकारों की आड़ में सीमाओं को लांघ जाते हैं। एक आम आदमी से लेकर पीएम तक सब दायरे से बंधे हुए हैं। हमें एक जागरूक और समझदार पत्रकार होकर बात कहनी चाहिए। देश सबसे बड़ा होता है, अगर कोई मीडिया हाउस किसी अखबार या चैनल को चला रहा है तो उसकी एक पॉलिसी होती है और हर व्यक्ति को उसे समझना चाहिए।
समाचार4मीडिया के साथ वाशिंद्र मिश्र की बातचीत का वीडियो आप यहां देख सकते हैं।
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