होम / साक्षात्कार / मीडिया पॉलिसी को लेकर उठे विवाद में बेवजह उछाला जा रहा है मेरा नाम: आलोक मेहता

मीडिया पॉलिसी को लेकर उठे विवाद में बेवजह उछाला जा रहा है मेरा नाम: आलोक मेहता

समाचार4मीडिया के साथ बातचीत में वरिष्ठ पत्रकार और एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष आलोक मेहता (पदमश्री) ने तमाम मुद्दों पर खुलकर अपनी बात रखी।

समाचार4मीडिया ब्यूरो 3 years ago

डिजिटल मीडिया और सोशल मीडिया के लिए केंद्र सरकार ने पिछले दिनों कुछ गाइडलाइंस जारी की हैं। मीडिया के एक वर्ग द्वारा इन गाइडलाइंस को मीडिया को नियंत्रित करने वाला कहकर इनकी आलोचना की जा रही है। कहा जा रहा है कि डिजिटल मीडिया पर सरकार की ताजा गाइडलाइंस आने से बहुत पहले ही मंत्रियों का समूह इस पर लगातार काम कर रहा था और इस पर रिपोर्ट तैयार की गई थी। इस रिपोर्ट्स को ही धीरे-धीरे लागू किया जा रहा है। जिन मंत्रियों के समूह के आधार पर यह रिपोर्ट तैयार की गई है, उनमें पांच कैबिनेट मंत्री थे और चार राज्य मंत्री।

मीडिया जगत में इस रिपोर्ट को लेकर भी चर्चा छिड़ी हुई है। इस रिपोर्ट के बारे में कुछ मीडिया प्रतिष्ठानों का कहना है कि मंत्रियों व तमाम पत्रकारों की भी कुछ मीटिंग हुई थी। ऐसी एक मीटिंग में सरकार के पक्ष में या सकारात्मक खबरें प्रोत्साहित करने के लिए और छवि खराब करने वाली खबरों को रोकने के लिए हुई चर्चा के आधार पर  रणनीति तैयार की गई। समाचार4मीडिया के साथ एक बातचीत में वरिष्ठ पत्रकार और एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष आलोक मेहता (पदमश्री) ने इस पूरे मुद्दे पर खुलकर अपनी राय रखी। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश

आपको क्यों लगता है कि इस मीटिंग को गलत तरीके से पेश किया गया?

देखिए, भारत सरकार की एक रिपोर्ट सामने आई है, जो अखबारों में है और वेबसाइट्स पर भी उपलब्ध है। अब यह सरकार ने डाला है यह नहीं कहा जा सकता, लेकिन इसे पहले कारवां मैगजीन ने छापा। कारवां में जब यह रिपोर्ट जारी हुई, तभी मेरे संज्ञान में आया तो मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि उसमें मेरा नाम पहले है। कई पत्रकारों और मित्रों ने भी मुझसे पूछा तो मैंने कहा कि ‘एक्सचेंज4मीडिया’ (exchange4media) एक सही फोरम है, जहां मैं अपनी बात रख सकता हूं। देखिए, जिस समय यह हुआ उसकी तारीख 26 जून 2020 है और उस समय चीन और पैंगोंग झील वाला मुद्दा बहुत गरमाया हुआ था। युद्ध जैसी  स्थिति भी थी। वैसे यहां बता दूं कि यह परंपरा रही है कि विदेश मंत्री, विदेश सचिव या सरकार के मंत्री यहां तक कि ज्यादा आवश्यक हो तो प्रधानमंत्री की ओर से भी ऐसे संवाद के लिए संपादकों या वरिष्ठ पत्रकारों को बुलाया जाता था। इनमें से कई मीटिंग्स प्रधानमंत्रियों और विदेश मंत्रियों की ओर से होती थी, जो एक जानकारी के लिए होती थीं कि भारत के हित में क्या हो सकता है?

मुझे मुख्तार अब्बास नकवी जी का फोन आया। पहले उन्होंने मुझसे मेरा हालचाल पूछा, क्योंकि कोरोना पीरियड भी था। फिर उन्होंने मुझे मिलने के लिए बुलाते हुए कहा कि आइए, आप भी होंगे... विदेश मंत्री एस जयशंकर जी रहेंगे, किरण रिजिजू जी रहेंगे, शायद प्रकाश जावड़ेकर जी भी होंगे... या तीन चार लोग रहेंगे... तो आप आइए... लेकिन मेरे यहां नहीं, इस बार किरण रिजिजू जी के यहां आपको आना है। मैंने कहा, ठीक है इसके बाद में मैंने उनका पता देखा और मैं चला गया। फिर वहां बातचीत शुरू हुई, जहां पर एक-दो संपादक थे और कुछ ऐसे लोग थे, जिन्हें हम वरिष्ठ मानते हैं और उनकी अखबारों में महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ, तो उन्होंने कहा कि एस जयशंकर जी कहीं फंस गए हैं। उनको प्रधानमंत्री जी ने कुछ जरूरी मीटिंग के लिए बुलाया है, तो वे वहां चले गए हैं। इसके बाद मुझे लगा कि कोई और मंत्री भी आएगा, लेकिन कोई नहीं आया, सिर्फ दो ही मंत्री वहां थे, किरण रिजिजू जी और मुख्तार अब्बास नकवी जी।

हमारा यह अनुभव था कि विदेश मंत्री नटवर सिंह रहे या प्रणव मुखर्जी अथवा जसवंत सिंह या विदेश सचिव श्याम शरण, शशांक, शिवशंकर जो एडिटर्स  और वरिष्ठ डिप्लोमेटिक सीनियर जर्नलिस्ट्स को साउथ ब्लॉक ऑफिस में बुलाया करते थे या फिर कहीं और मिलने के लिए बुला लिया करते थे। इसलिए हम यह मानकर चल रहे थे कि ऐसी कोई ब्रीफिंग है, जिसे हमें रिकॉर्ड नहीं करना है।

किरण रिजिजू जी अरुणाचल के हैं और अरुणाचल को मैं  दुनिया का एक सुन्दर और महत्वपूर्ण  क्षेत्र मानता हूं। हिमालय की दृष्टि से भी और वहां के लोगों के बारे में भी, क्योंकि मैं वहां जा चुका हूं। किरण रिजिजू जी को भी मैं एक अच्छा नेता मानता हूं, लेकिन उनसे मेरा परिचय तो है, पर व्यक्तिगत संबंध इतने नहीं हैं। मुख्तार अब्बास जी से मेरा थोड़ा पुराना परिचय है। मुझे यही प्रलोभन था, वरना मैं कोरोना पीरियड में थोड़ा डर से कहीं भी जाने से बचता रहा हूं। लेकिन गया तो पहले तो अनौपचारिक बात होती रही कि कैसा है, क्या है? मेरा भी था कि इस बीच कम्युनिकेशन भी बहुत कम हो गया है और कोई जानकारी भी नहीं मिल पाती... बशर्ते इसलिए गया। अच्छा वहां ऐसे भी लोग थे, जिन्हें रेगुलर रिपोर्टिंग करनी है, इनमें टीवी के लोग भी थे और कुछ और थे। जयंत  घोषाल जी थे, जिन्हें मैं काफी पहले से जानता हूं। वे आनंद बाजार में रहे हैं। वे हाल में ममता बनर्जी के विशेष  सलाहकार भी रह चुके हैं। वहां प्रफुल्ल केतकर जी भी थे, जो संघ पत्रिका ऑर्गेनाइजर के संपादक हैं। इसके अलावा कुछ ऐसे पत्रकार अलग-अलग भाषा व एजेंसी से थे। हालांकि वहां यह बात की गई, जिसे शिकायतें भी कह सकते हैं कि कवरेज में किस तरह की कठिनाइयां आती हैं। सरकार की ओर से जो कम्युनिकेशन गैप है, उस बात को भी रखा गया। इसके बाद किरण रिजिजू जी ने अरुणाचल प्रदेश को लेकर बातें भी की। लेकिन इन सबके बीच मेरी रुचि चीन के विषय पर सबसे ज्यादा थी, पर इस पर ज्यादा बात नहीं हुई। हालांकि वहां जो संवाददाता थे, उन्हें भी लगा कि ये ऑफ द रिकॉर्ड है और यहां कोई बाइट देने वाले नहीं है, लेकिन बाहर निकलने के बाद शायद रिजिजू जी ने किसी टीवी चैनल को कोई एक-आध बाइट दी थी, लेकिन मुझे नहीं मालूम कि वह किस चैनल से थे।

पिछले साल जून की थी ये बैठक और अब मार्च चल रहा है। अब एक रिपोर्ट आती है जिसमें कहा जाता है कि जिस मीटिंग में आप थे, उसको आधार बनाया गया है। इस रिपोर्ट में पहला नाम मेरा लिखा गया है कि जो मेरे लिए बहुत ही ज्यादा शॉकिंग है। मतलब वो रिपोर्ट, जिसमें मुझे ये तक बताया नहीं गया कि ऐसा कोई कम्युनिकेशन, जो सरकार की पॉलिसी पर बात करने के लिए है, या किस उद्देश्य के लिए बुलाया गया है। मुझे तो बस यही बताया गया था कि आपसे मिलना है। यदि सरकार की ओर से इसे रिकॉर्ड भी किया गया है, तो उसमें देखा जा सकता है कि मैंने तो वहां सलाह देने के बजाय बस शिकायत ही की है वह भी सरकार के कम्युनिकेशन गैप की। और यदि ऐसा कहा तो यह बात तो वैसे ही सरकार के हित में ही होगी, क्योंकि कम्युनिकेशन गैप से नुकसान तो सरकार को ही हो रहा है, मेरा नहीं।

हालांकि इस तरह की बातों को रिपोर्ट किया गया है कि ये मीटिंग सलाह के लिए की गई थी। यह रिपोर्ट 97 पेजों की है, जिसे पूरा तो मैंने भी अभी तक नहीं पढ़ा है, लेकिन जितना पढ़ा है कि उसमें कई और लोगों के नाम भी दिए गए है, जो दूसरे नेता-मंत्री मिले हैं उन्होंने क्या बोला वो सब दिया गया है, लेकिन सिवाय मेरी बात के... क्योंकि शायद उन्हें लगा होगा कि मेरे विचार कमजोर हैं और उसका कोई मतलब नहीं है। इसमें कुछ ऐसे नाम दिए गए हैं, जो मुझसे करीब बीस साल बाद आए होंगे, जो एडिटर्स भी नहीं है, शायद वे किसी और क्षेत्र के हो सकते हैं। उन्होंने क्या बोला, इस रिपोर्ट में उनकी राय दी गई है। लेकिन मैंने क्या अच्छा या बुरा बोला, वो नहीं है।

रिपोर्ट में किरण रिजिजू जी के यहां जो 26 जून 2020 को पहली मीटिंग का जिक्र किया गया है, जिसमें कहा गया है कि लगभग 75 प्रतिशत मीडियाकर्मी नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व से प्रभावित हैं और बीजेपी के साथ वैचारिक रूप से जुड़े हुए हैं। अब इस रिपोर्ट में वे 75 प्रतिशत वे किसे मानते हैं, ये मैं नहीं जानता। मैं अच्छा-खराब जैसा भी हूं, लेकिन  अब तक किसी पार्टी से जुड़ा हुआ नहीं हूँ |  इसलिए रिपोर्ट में वे ये तो मानते ही हैं कि वहां 25 प्रतिशत लोग उनकी राय से अलग थे। मंत्रिमंडल समूह की रिपोर्ट में  कुछ अन्य बैठकों में शामिल सम्पादकों या पत्रकारों के नाम के साथ उनके विचार या सुझाव लिखे गए हैं | जबकि रिज्जूजी के निवास पर हुई चर्चा में किसने क्या कहा , लिखा ही नहीं गया | मतलब साफ़ है कि वह बातचीत मीडिया नीति के लिए नहीं थी |

हां, इस बात को मैं कहता हूं कि मेरे सत्ताधारी या विपक्ष के कई नेताओं  मंत्रियों से पहले भी अच्छे संबंध थे और आज भी हैं। संबंध अच्छे हो सकते हैं। मानवीय ढंग से संबंध तो मेरे बीजेपी में भी हैं, कांग्रेस में भी हैं, और जनता दल , समाजवादी पार्टी जैसे अन्य दलों से रहे हैं  है। वह अलग बात है, लेकिन यह प्रचार पूरी तरह गलत है कि मंत्रिमंडल समूह ने मुझसे नीति निर्धारण के लिए किसी औपचारिक सरकारी बैठक में कोई सलाह ली |  मैंने अपनी आपत्ति ‘कारवां’ मैगजीन, जिसने सबसे पहले ये रिपोर्ट प्रकाशित की, उनके एडिटर अनंत नाथ जी को भी दर्ज कराई कि मेरा नाम प्रकाशित करने  से पहले मुझसे पूछा जाना चाहिए था |  तो उन्होंने कहा कि शायद मेरे रिपोर्टर ने आपसे बात की होगी। तब मैंने उनसे कहा कि  नहीं मुझसे किसी ने बात नहीं की , आप मुझसे सीधे पूछते कि क्या आप इस सलाह वाली मीटिंग में गए थे, तो मैं साफ-साफ आपको बता देता कि मुझसे कोई सलाह नहीं ली गई, लेकिन मैं मीटिंग में गया था।  आप सबकी सलाह से कोई कम्युनिकेशन पॉलिसी बनने वाली है, इसलिए राय ली जा रही है ऐसा कुछ नहीं बताया गया था। हां, और लोगों को बताई गई तो मुझे पता नहीं | इंडियन एक्सप्रेस के वरिष्ठ पत्रकार रवीश तिवारी जी ने भी अपनी रिपोर्ट में यह बात स्पष्ट लिखी छापी है |

आखिर सरकार की चिंता क्या हो सकती  है और इन बैठकों और रिपोर्ट का क्या उद्देश्य हो सकता है ?

इस बात पर सरकार में चिंता होना स्वाभाविक है। हर सरकार में ये होता है कि मीडिया हमारा विरोध करता है, मीडिया हमारी आलोचना करता है। यहां, इमरजेंसी की ही बात नहीं कह रहा हूं, इमरजेंसी से पहले भी सरकार चिंतित रहती थी। इंदिरा गांधी के समय में भी यह था कि मीडिया क्यों नाराज है, क्यों खिलाफ आ रहा है, क्या कारण हैं? पहले भी कुछ ऐसे संपादक होते थे, जो सरकार के अनुकूल रहते थे। कभी कोई पत्रकार रहा, कभी कोई सलाहकार रहा, तो कुछ ऐसे भी रहे, जो राजनीति में चले गए। उनसे भी पूछा जाता था कि क्यों नाराज हैं मीडिया के लोग।

आज तो हर कोई अपना डिजिटल प्लेटफॉर्म खोल लेता है, सोशल मीडिया पर चैनल खोल लेता है, अखबार निकाल लेता है। हालांकि मुझे तो किसी ने नहीं बताया, लेकिन अब जो मैं समझ पा रहा हूं, उससे तो ये लगता है कि कुछ ऐसे लोगों ने राय दी होगी कि कोई ऐसी पॉलिसी बनाइए, जिससे जो गड़बड़ हो रहा है, अनियंत्रित हो रहा है उस पर कुछ विचार करना चाहिए। शायद इसलिए मंत्रियों को जिम्मेदारी दी गई होगी। हां, सरकार का आशय मैं मानता हूं कि ठीक होना चाहिए। सरकार उसको किस ढंग से रखती है, वो उसका अपना एक तरीका है। इसलिए शायद इस रिपोर्ट को लाया गया हो। रिपोर्ट में यही है कि ऐसा हो सकता है, ऐसा किया जाना चाहिए। यही बताया गया है।

कुछ मीडिया संस्थानों का कहना है कि यह मीटिंग सरकार की छवि को चमकाने के लिए की गई थी, इस बारे में आपका क्या कहना है?

देखिए, जो अलग-अलग मंत्रियों ने बात की, उस मीटिंग में भी उसका डायरेक्ट हवाला नहीं था। वो तो लोग पूछते हैं न कि सरकार की किन चीजों में आपको कमी दिखती है। कई और बातें भी आती है। कई बार नाराजगी वाली बातें भी आती हैं, जैसा कि अनौपचारिक बातचीत में होता है। मैंने चीन का उदाहरण दिया। हो सकता है कि इस सरकार में भी कुछ लोगों को बुलाते होंगे, लेकिन जैसा होना, चाहिए वैसा नहीं हो रहा है। लेकिन ये चमकाने वाली बात तो निगेटिव से ही आती है। जब निगेटिव बातें बताई जाएंगी, तभी तो सरकार जागेगी। मेरा आज भी ये कहना है कि मीडिया में 80-90 प्रतिशत लोग बहुत अच्छे ढंग से काम करते हैं। लेकिन जब 10-20 प्रतिशत गड़बड़ होता है, तो लोग उसे ही ज्यादा देखना पसंद करते हैं। लेकिन जो अच्छा काम कर रहे हैं, लोग उसे भी देखना चाहते हैं। पहले अखबारों में पार्लियामेंट के सवालों पर पूरा पेज छपता था, लेकिन अब ऐसा नहीं है। इसलिए सरकार की चिंता स्वाभाविक  है। उनके जो मंत्री होते हैं, उनकी ये जिम्मेदारी है कि वे जो अच्छा काम करें, वो बताएं। इसके लिए पारदर्शिता होना चाहिए |

इस पूरे मामले पर रिपोर्ट के आलोचकों को लेकर आप क्या कहना चाहते हैं? 

मैं नहीं जानता सरकार ने इस रिपोर्ट को जारी करके पब्लिक किया या नहीं किया। यदि किया तो ये भी अपने आप में एक गलती है कि सरकार ने सही ढंग से उसको पेश कर दिया होता, तो ये सवाल नहीं उठ रहा होता। इसलिए आलोचकों का आलोचना करना लाजिमी है। मेरा मानना हर सरकार छवि चमकाने क लिए या फिर बिगड़ी हुई छवि को सुधारने के लिए प्रयास करती है। सोचती है कि क्या करना चाहिए। मनमोहन सिंह जी भी करते थे। मेरे संबंध उनसे भी अच्छे थे और इससे पहले जो भी प्रधानमंत्री रहे हैं, उनसे भी अच्छे थे। मेरा ज्यादातर प्रधानंत्रियों से संपर्क रहा है, इसलिए मैं मानता हूं कि बुराई करने वाले लोग भी होते थे। सरकार को पहले भी ये चिंता होती थी कि उनकी आलोचना क्यों हो रही है? इसलिए इस सरकार ने यदि इसे जारी किया, तो इस पर आलोचना इसलिए हो रही है क्योंकि उसमें ऐसी सिफारिशों का उल्लेख है, जिसके कुछ नियम कानून ऐसे बता दिए गए, जिसे मैं भी उचित नहीं मानता और इसकी आलोचना भी करता हूं। सिफारिश  में  कहा गया कि पत्रकारों की तीन श्रेणी बांट दी जाएं। साथ ही यह भी कहा गया कि यह प्रक्रिया कलर कोडिंग के जरिए शुरू की जानी चाहिए। हरा: फेंस सिटर (जो किसी का पक्ष नहीं लेते), काला: जो हमारे खिलाफ हैं और सफेद: जो हमारा समर्थन करते हैं और यह भी कहा गया कि हमें अपने पक्षधर पत्रकारों का समर्थन करना और उन्हें प्रोत्साहन देना चाहिए।

मैं आलोचकों की बात से सहमत हूं। लेकिन कहना चाहूंगा कि सरकार को आचार संहिता बनानी चाहिए और उसे सही ढंग से लागू करना चाहिए। ये नहीं कि उसे जबरन लागू करे और सजा दे। आलोचकों को भी ये सोचना चाहिए कि आचार संहिता को पारदर्शी ढंग से किस तरीके से लागू किया जा सके। जो गलत है, वो गलत है, लेकिन पूरी रिपोर्ट को गलत कह देना भी गलत है। अब यह कह दो कि सरकार ताला लगाना चाहती है, सरकार गला घोटना चाहती है, सरकार बंद करना चाहती है, ये कह देने से हमारी खुद की भी कमजोरी साबित होती है कि हम कुछ गलत कर रहे हैं। हम यदि कुछ गलत नहीं कर रहे हैं तो कानून लागू करने दीजिए। ऐसे भी डरने से क्या होगा, जो सच है उसकी रिपोर्ट तो लिखना बंद नहीं कर देंगे हम।

क्या संपादक या पत्रकार सरकारों को सलाह देते रहे हैं और अब भी देते हैं?

अभी का तो मुझे कोई मालूम नहीं कि कौन सलाह देते हैं। लेकिन हां, कई ऐसे पत्रकार रहे हैं, जो प्रधानमंत्री के साथ कभी संपर्क में रहे हों या पार्टी से प्रभावित रहे हों। उदाहरण के तौर पर श्रीकांत वर्मा, जो पहले इंदिरा गांधी के भाषण लिखते थे, बाद में राजीव गांधी के लिखते थे और वे पत्रकार भी रहे। उस समय भी पत्रकारिता करते थे। ऐसे ही एक और उदाहरण चंद्रूलाल चंद्राकर का है, जो पहले संपादक थे, बाद में कांग्रेस नेता हुए। बीजेपी में अरुण शौरी जैसे नाम हैं। कुलदीप नायर जी लाल बहादुर शास्त्री के साथ रहे, लेकिन बाद में वे पूरी तरह से पत्रकारिता में आ गए। बीजी वर्गीज जी इंदिरा गांधी के साथ रहे। एचके दुआ जी भी एक उदाहरण हैं, जो अटल बिहारी वाजपेयी जी के भी प्रेस सलाहकार थे और देवेगौड़ा जी के प्रेस सलाहाकार थे। मैं उनका सम्मान करता हूं वे जब इनके साथ थे, तो उन्होंने पत्रकारिता से इस्तीफा दे दिया था। एमजे अकबर भी जब चुनाव लड़ने गए थे तो उन्होंने भी इस्तीफा दे दिया था। कई लोग ऐसे भी थे जो संपादक रहते हुए सलाह भी देते थे। राजेंद्र माथुर जी, जिनके घर कई बड़े मंत्री भी आते थे, लेकिन फिर वे ये नहीं कहते थे कि इनके खिलाफ नहीं लिखना या उनके खिलाफ नहीं लिखना। मनोहर श्याम जोशी जी के अटल बिहारी वाजपेयी के साथ काफी अच्छे संबंध थे, वो फिर पूछा करते थे कि क्या चल रहा है, तो वे यही कहते थे कि आप रिपोर्ट पढ़ लीजिए, आपकी पार्टी सही नहीं कर रही है या ये गड़बड़ हो रहा है। हर बात को सलाह तो नहीं कहा जा सकता, कुछ व्यक्तिगत राय भी होती है।अटलजी से मेरा परिचय 1972 से था | 1977 में विदेश मंत्री और बाद में प्रधान मंत्री बनने तक कई बार इंटरव्यू किये , ऑफ़ द रिकार्ड बात की | लेकिन उनके मुखौटा होने वाली गोविंदाचार्य की डायरी के अंश या सरकार की कमियों पर मैंने बराबर लिखा |

आपने तो कई सरकारों के समय काम किया है? क्या आज की तरह उनके भी नजदीक नहीं माने जाते थे?

बिल्कुल, मैं तो कह ही रहा हूं। जब मैं संपादक था, तो मेरा कई मंत्रियों, सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस से व्यक्तिगत परिचय रहा है। मैं उनको कार्यक्रमों में बुलाता भी था। मेरा परिचय नरसिंह राव से लेकर के अटल बिहारी वाजपेयी तक से रहा है। राजीव गांधी  के प्रधान मंत्री बनने से पहले भी परिचय था , उनके साथ बातचीत यात्रा के अवसर भी मिले | उनको मुझ पर भरोसा था, छापने को लेकर भी और न छापने को लेकर भी। मनमोहन सिंह के समय भी कई ऐसी मीटिंग्स हुई, जिसके वीडियो बार-बार चलाए जाते रहे हैं कि पांच संपादकों को बुलाया गया, जिनमें से  आलोक मेहता भी एक थे। बाहर जो जानकारी सार्वजनिक हो सकती थीं, वे बातें बताने वालों में मैं भी एक था। मैं सलाहकार तब भी मनमोहन जी का नहीं था। उन्हीं की सरकार के समय जब मैं नईदुनिया अखबार का प्रधान संपादक था, तब मैंने 2जी पर सीरीज चलाई थी और बताया कि कैसे हर रोज बुधवार को 11 बजे अनिल अंबानी प्रधानमंत्री कार्यालय में आते हैं और 2जी की लंबी-2 रिपोर्ट विनोद अग्निहोत्री जी लिखते थे। जिम्मेदारी एक संपादक की होती है, लिहाजा मेरे खिलाफ नोटिस भी आए थे।

जब 1990 में सबसे पहले हमने चारा कांड को लेकर खबरें छापीं, तब बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू यादव के समर्थकों ने टाइम्स ऑफ इंडिया प्रेस तक में आग लगा दी थी, लेकिन जब वह मेरे दफ्तर में आए तो मैंने उनका स्वागत किया और चाय-नाश्ते की व्यवस्था कराई। एडिटर्स गिल्ड की ओर से भी उस समय कोई स्टेटमेंट जारी नहीं हुआ था। कहने का मतलब है कि संबंध अपनी जगह हैं और काम अपनी जगह। लालू यादव जी के परिवार में शादी समारोह में मैं गया हूं, या आलोचना लिखने के बावजूद आडवाणी जी मेरे यहां शादी समारोहों में आए हैं। मुलायम सिंह और सोनिया गांधी के बारे में भी मैंने काफी कुछ लिखा है, लेकिन मेरे व्यक्तिगत संबंध भी उनसे अच्छे रहे हैं। आज की सरकार की बात करें तो मुझे लगता है कि स्थायित्व की सरकार है और उनकी कई नीतियों को मैं उचित मानता हूं। हालांकि, कई मामलों में मै उनकी आलोचना भी करता हूं। जब लोग मुझसे पूछते हैं कि आपको मनमोहन सरकार में पदमश्री मिला, फिर आप उस सरकार की आलोचना क्यों करते हैं तो मेरा कहना होता है कि मैं तो अपना काम करता हूं, उसका पुरस्कार से कोई लेना-देना नहीं है।

तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव के निवास पर एक समारोह में निखिल चक्रवर्ती , कमलेश्वर जैसे वरिष्ठ सम्पादकों के साथ मुझे पुरस्कार के साथ सम्मान दिया गया था | लेकिन बाद  मैंने पूरी किताब लिख दी कि ‘राव के बाद कौन?’ इसमें मैंने बताया कि राव के बाद कौन प्रधानमंत्री हो सकते हैं। मनमोहन सिंह के खिलाफ भी मैंने कई आलोचनात्मक टिप्पणी लिखीं, इसके अलावा उस समय कई मंत्री भी मेरे दफ्तर आते थे, इसका मतलब यह कतई नहीं था कि मैं उनके खिलाफ नहीं लिखूंगा। जब मैंने दिल्ली में नई दुनिया की लॉन्चिंग का कार्यक्रम किया था, उस समय मैंने किसी भी मंत्री, गृहमंत्री को मंच पर जगह नहीं दी, गुलजार, शुभा मुद्गल और जावेद अख्तर आदि ने अखबार को जारी कराया। उस समय मैंने कहा भी कि कल को इस अखबार में अतिथियों की गड़बड़ी को लेकर भी खबर छपी दिख सकती है। मेरा मानना है कि व्यक्तिगत संबंध अलग हैं और जरूरी होने पर आलोचना भी होगी, यह एक संपादक का दायित्व है। आजादी के पहले गांधी जी, तिलक जी समेत अनेक  लोगों ने काफी काम किया, उस समय उनका लक्ष्य देश को आजाद कराना था, उस समय की पत्रकारिता दूसरी तरह की थी। आज आजादी को अक्षुण्य रखना, उसे बनाए रखना और लोकतंत्र को बचाए रखना, यही लक्ष्य होना चाहिए। एक समय तहलका कांड के बाद तत्कालीन रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडिस को इस्तीफा देना पड़ा था, हालांकि बाद में वह फिर सत्ता में आ गए थे। ऐस में यह गलतफहमी रखना कि आलोक मेहता या किसी और की वजह से सरकार गिर जाएगी अथवा कोई बड़ा चैनल अथवा अखबार सरकार को बदल देगा, निरर्थक है।

अब वह जमाना नहीं है। डिजिटल में भी जिसके बहुत ज्यादा सबस्काइबर्स हों, वह भी ऐसा नहीं कर पाएगा। एक उदाहरण बताता हूं। आपातकाल के दौरान बीबीसी ऐसा प्रसारणकर्ता था, जिसके बारे में लोग मानते थे कि यह ज्यादा सही जानकारी देगा, क्योंकि यहां मीडिया नियंत्रित है, उसके हिंदी के एडिटर थे रत्नाकर  भारती, जो मूल रूप से मध्य प्रदेश के निवासी थे। उस समय बीजेपी व संघ के काफी नेता उनके संपर्क में थे। इसके बाद देश में जनता पार्टी की सरकार आ गई। 1977 में रत्नाकर  भारती से कहा गया कि आप भारत आकर राजनीति में शामिल हो जाइए। इसके बाद उन्होंने मध्य प्रदेश के बड़नगर से विधान सभा का  चुनाव लड़ा, हालांकि जनता पार्टी की लहर में भी उनती जमानत जब्त हो गई थी। कहने का मतलब यह है कि ये सोचना कि सोशल मीडिया पर इतने फॉलोअर्स होने के कारण आप किसी चुनाव में जीत ही जाएंगे, गलत है। किसी पत्रकार को राजनीति में जाना है तो बेशक जाए और चुनाव लड़े लेकिन एक पत्रकार के रूप में यह गलतफहमी पालना कि सरकार गिरा देंगे अथवा बना देंगे, यह हम लोगों का लक्ष्य नहीं होना चाहिए। 

अब सरकार ने डिजिटल मीडिया के लिए नई गाइडलाइंस जारी की हैं? साथ में प्रेस काउंसिल का उल्लेख भी किया है। आप प्रेस काउंसिल के सदस्य और एडिटर्स गिल्ड के अध्यक्ष रहे हैं। उनके कोड यानी नियमों का कितना पालन हो रहा है? 

मैं एडिटर्स गिल्ड का अध्यक्ष और महासचिव भी रहा हूं, इसलिए सबसे पहले मैं इसका जिक्र करूंगा। एडिटर्स गिल्ड में रहने के दौरान एक बार मुझे ब्रिटेन जाने का मौका मिला। वहां ब्रिटेन की सोसाइटी ऑफ एडिटर्स के प्रेजिडेंट के साथ मेरी मीटिंग हुई। वहां मेरी उनसे ब्रिटेन के कोड ऑफ कंडक्ट को लेकर चर्चा हुई और उसकी एक प्रति लेकर आया |आने के बाद मैंने अपने यहां एडिटर्स गिल्ड में प्रस्ताव रखा कि हमें भी इस दिशा में काम करना चाहिए और बीजी वर्गीज जी को इसका प्रमुख बनाना चाहिए, जो काफी अनुभवी और वरिष्ठ थे। स्टेट्समेन  केसंपादक  एस सहाय और नव भारत टाइम्स के संपादक राजेंद्र माथुर पहले भी इस मुद्दे पर मुझसे चर्चा करते थे | हमने मामन मैथ्यू , एस निहाल सिंह , कुलदीप नायर जैसे प्रमुख  सदस्य  संपादकों के सुझाव मांगे और एडिटर्स गिल्ड की ओर से इस बारे में पूरी रिपोर्ट तैयार की गई और कोड ऑफ कंडक्ट तैयार किया गया। एडिटर्स गिल्ड के आग्रह पर उस समय तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने खुद इस कोड ऑफ कंडक्ट को जारी किया। उस समय इस कोड ऑफ कंडक्ट को अपने संपादक मित्रों और तमाम अखबारों को भिजवाया गया, बाद में इसे वेबसाइट पर भी डलवाया गया। हालांकि, सभी अखबार एडिटर्स गिल्ड के मेंबर भी नहीं थे। मेरा मानना है कि इस कोड ऑफ कंडक्ट का पालन नहीं हो रहा है। पहले प्रेस काउंसिल के फैसले कुछ अखबारों में छपते भी थे, लेकिन अब प्रेस काउंसिल की कोई परवाह नहीं करता है और उसकी गाइडलाइंस का पालन नहीं होता है। मुझे तो आश्चर्य है कि वर्तमान सूचना प्रसारण मंत्री जावड़ेकर जी कहते हैं कि प्रेस परिषद् के नियमों का सब पालन कर रहे हैं | मेरा मानना है कि सरकार की तरफ से ये जो गाइडलाइंस जारी की गई हैं, उन्हें कुछ हद तक माना जा सकता है और कुछ चीजों पर असहमति भी हो सकती है, तो उसके लिए अदालत हैं। मैंने अभी इस रिपोर्ट को नहीं पढ़ा है। डिजिटल मीडिया में तमाम अच्छे लोग भी हैं, लेकिन जो लोग इसे उच्छृंखल बना रहे हैं, उन पर लगाम लगनी चाहिए।

अभी आपने पत्रकारिता की लक्ष्मण रेखा का जिक्र किया है। आपकी राय में किस तरह स्वतंत्र मीडिया की लक्ष्मण रेखा लागू होनी चाहिए?

मेरा मानना है कि इसके लिए एक मिला-जुला प्रयास होना चाहिए। फिर चाहे उसमें जुर्माने का प्रावधान ही क्यों न हो। जिस तरह से ब्रिटेन और अमेरिका में कोड ऑफ कंडक्ट है। जैसे- यदि यह सामने आता है कि पुलित्जर अवॉर्ड गलत मिल गया है तो उसे लौटाने के साथ जुर्माना भी देना होता है। मेरा मानना है कि आचार संहिता होनी चाहिए, उसे लागू किया जाए, लेकिन सरकार उसमें इमरजेंसी की तरह सेंसरशिप न लगाए। मेरा मानना है कि जब हम अधिकार मानते हैं तो हमें उत्तरदायित्व भी मानना चाहिए। जहां तक स्वतंत्र मीडिया की लक्ष्मण रेखा की बात है तो इसके लिए पहले की तरह मीडिया आयोग और  मीडिया काउंसिल (जिसमें पूरी मीडिया को शामिल किया जाए) बनाई जाए,  जिसे  वैधानिक मान्यता हो और राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त हो। इसमें न्यायाधीश, मीडिया के अनुभवी वरिष्ठ व्यक्ति हों। उनके आदेश का पालन अनिवार्य हो | इससे आचार संहिता लागू करना आसान होगा।

यहां मैं आपको बता दूं कि अगले महीने मेरी एक नई पुस्तक ‘पावर प्रेस एंड पॉलिटिक्स’ आ रही है। जैसा कि मैंने बताया कि उस पुस्तक में मैंने उन सभी उथल-पुथल का जिक्र किया है, जो मैंने अब तक के अपने  50 वर्षों के पत्रकारिता करियर में देखी व महसूस की हैं। यानी इंदिरागांधी के समय से नरेंद्र मोदी के समय तक किस तरह पत्रकारिता हुई है। उस पुस्तक में मैंने एडिटर्स गिल्ड और प्रेस काउंसिल की भूमिका के बारे में भी प्रमाणों और उदाहरणों के साथ बताया है। यहां स्पष्ट कर दूं कि इस पुस्तक में मैंने अपने बारे में कम और अन्य संपादकों के बारे में ज्यादा लिखा है कि कैसे उन्हें तमाम तरह के दबावों का सामना करना पड़ा। एडिटर्स गिल्ड की एक-दो महत्वपूर्ण व चर्चित रिपोर्ट्स को भी इस पुस्तक में शामिल किया गया है।


टैग्स आलोक मेहता साक्षात्कार मीडिया पॉलिसी सरकारी गाइडलाइंस
सम्बंधित खबरें

पत्रकारिता के इन्हीं अटूट सिद्धांतों पर रहेगा 'Collective Newsroom' का फोकस: रूपा झा

समाचार4मीडिया से बातचीत में 'कलेक्टिव न्यूजरूम' की सीईओ और को-फाउंडर रूपा झा ने इसकी शुरुआत, आज के मीडिया परिदृश्य में विश्वसनीयता बनाए रखने की चुनौतियों और भविष्य के विजन पर चर्चा की।

1 day ago

मीडिया को अपने अधिकारों के लिए खुद लड़ना होगा: अनंत नाथ

इस विशेष इंटरव्यू में अनंत नाथ ने इस पर चर्चा की कि कैसे मीडिया संगठनों को मिलकर अपने अधिकारों के लिए लड़ना चाहिए और सरकारी नियमों व सेंसरशिप के दबाव का सामना कैसे करना चाहिए।

1 week ago

'28 वर्षों की मेहनत और बदलाव की दिल छू लेने वाली दास्तान है The Midwife’s Confession’

वरिष्ठ पत्रकार अमिताभ पाराशर और ‘बीबीसी वर्ल्ड सर्विस’ (BBC World Service) की इन्वेस्टिगेटिव यूनिट ‘बीबीसी आई’ (BBC Eye) ने मिलकर ‘The Midwife’s Confession’ नाम से एक डॉक्यूमेंट्री बनाई है।

20-September-2024

इन्हीं वजहों से पसंदीदा व भरोसेमंद न्यूज एजेंसी बनी हुई है PTI: विजय जोशी

‘पीटीआई’ के 77 साल के शानदार सफर और भविष्य़ की योजनाओं समेत तमाम अहम मुद्दों पर समाचार4मीडिया ने इस न्यूज एजेंसी के चीफ एग्जिक्यूटिव ऑफिसर और एडिटर-इन-चीफ विजय जोशी से खास बातचीत की।

11-September-2024

'एबीपी न्यूज' को दिए इंटरव्यू में पीएम मोदी ने बताया विपक्ष में अपना पसंदीदा नेता

लोकसभा चुनाव 2024 के सातवें और आखिरी चरण से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 'एबीपी न्यूज' को इंटरव्यू दिया और तमाम मुद्दों पर बात की।

29-May-2024


बड़ी खबरें

वरिष्ठ TV पत्रकार अभिषेक उपाध्याय का क्या है ‘TOP सीक्रेट’, पढ़ें ये खबर

अभिषेक उपाध्याय ने अपने ‘एक्स’ (X) हैंडल पर इस बारे में जानकारी भी शेयर की है। इसके साथ ही इसका प्रोमो भी जारी किया है।

4 hours from now

‘दैनिक भास्कर’ की डिजिटल टीम में इस पद पर है वैकेंसी, जल्द करें अप्लाई

यदि एंटरटेनमेंट की खबरों में आपकी रुचि है और आप मीडिया में नई नौकरी की तलाश कर रहे हैं तो यह खबर आपके लिए काफी काम की हो सकती है।

14 hours ago

इस बड़े पद पर फिर ‘एबीपी न्यूज’ की कश्ती में सवार हुईं चित्रा त्रिपाठी

वह यहां रात नौ बजे का प्राइम टाइम शो होस्ट करेंगी। चित्रा त्रिपाठी ने हाल ही में 'आजतक' में अपनी पारी को विराम दे दिया था। वह यहां एडिटर (स्पेशल प्रोजेक्ट्स) के पद पर अपनी जिम्मेदारी निभा रही थीं।

1 day ago

’पंजाब केसरी’ को दिल्ली में चाहिए एंकर/कंटेंट क्रिएटर, यहां देखें विज्ञापन

‘पंजाब केसरी’ (Punjab Kesari) दिल्ली समूह को अपनी टीम में पॉलिटिकल बीट पर काम करने के लिए एंकर/कंटेंट क्रिएटर की तलाश है। ये पद दिल्ली स्थित ऑफिस के लिए है।

1 day ago

हमें धोखा देने वाले दलों का अंजाम बहुत अच्छा नहीं रहा: डॉ. सुधांशु त्रिवेदी

जिसकी सीटें ज़्यादा उसका सीएम बनेगा, इतने में हमारे यहाँ मान गये होते तो आज ये हाल नहीं होता, जिस चीज के लिए गये थे उसी के लाले पड़ रहे हैं।

1 day ago