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आने वाले समय में पत्रकारिता का भविष्य स्थानीय भाषा में ही होगा : प्रो. केजी सुरेश

'माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय' (MCU) के कुलपति व वरिष्ठ पत्रकार केजी सुरेश ने समाचार4मीडिया के साथ खास बातचीत की है।

समाचार4मीडिया ब्यूरो 3 years ago

'माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय' (MCU) के कुलपति और देश के प्रतिष्ठित मीडिया शिक्षण संस्थान 'भारतीय जनसंचार संस्थान' (IIMC) के पूर्व महानिदेशक व वरिष्ठ पत्रकार केजी सुरेश ने समाचार4मीडिया के साथ खास बातचीत की है। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश:

आपने मीडिया जगत में पत्रकार से लेकर एक कुलपति तक के सफर को तय किया है। पत्रकार बनने का ख्याल कैसे आया?

मेरा जन्म एक साधारण परिवार में हुआ और मेरे पिताजी सरकारी नौकरी में थे। चूंकि वो खुद सरकारी नौकरी में थे तो उनकी इच्छा भी यही थी कि मैं भी सरकारी नौकरी में ही जाऊं। मेरे पिताजी ने मेरी एक बहुत अच्छी आदत डाल दी थी और वो थी समाचार पत्रों को पढ़ना। दरअसल, मेरे पापा खुद बहुत अच्छे से समाचार पत्रों का अध्ययन करते थे और कई महत्वपूर्ण घटनाओं की तो कटिंग तक वह संभालकर रखते थे। उन्हीं के साथ-साथ मेरी भी ये आदत हो गई और धीरे-धीरे मेरी रुचि लिखने में भी आ गई। मैं संपादक के नाम पत्र लिख देता था और धीरे-धीरे वो प्रकाशित होने लगे।

समाचार पत्र में अपना नाम देखकर मुझे बड़ी ख़ुशी होती थी। इसके बाद लेख लिखने का सिलसिला शुरू हो गया था। जब मेरे लेख छपते थे तो धीरे-धीरे सबको खबर होने लगी और मुझे लोगों से तारीफ भी मिलने लगी। इसके बाद स्कूल में भी कुछ निबंध प्रतियोगिताओं में मैंने पुरस्कार जीते और उसके बाद मुझे ऐसा लगने लगा कि मुझे पत्रकार बनना है।

हालांकि, मेरे पिताजी चाहते थे कि मैं सरकारी नौकरी करूं और उनके दबाब में आकर मैंने एक अनुवादक की सरकारी नौकरी को प्राप्त भी किया, लेकिन एक बौद्धिक वातावरण नहीं मिलने के कारण दो वर्ष तक भी मैं वो नौकरी नहीं कर पाया और मैंने वो नौकरी छोड़ दी।

उसी दौरान हमारे एक मित्र दीपक चौधरी जी ‘ऊर्जा‘ नाम की पत्रिका के संपादक हुआ करते थे, किन्ही कारणों से उनकी हत्या हुई, जिसका आज भी पता नहीं चल पाया है। जब उनके परिजन कोलकाता से आए तो उन्होंने इच्छा जताई कि इस पत्रिका का प्रकाशन बंद नहीं होना चाहिए। उनके कई दोस्त इस जिम्मेदारी को उठाने के लिए तैयार नहीं हुए। उस समय मैं एक मौके की तलाश में था तो जब मुझसे कहा गया तो मैंने हां कह दी।

हालांकि, उस समय मेरी उतनी उम्र नहीं थी और मैं संपादक बन गया था। उस वक्त कई पत्रकार और कर्मचारी मेरे नीचे काम करते थे। जैसा कि मैंने आपको बताया कि इतनी कम उम्र में मैं संपादक तो बन गया था और साहित्य के ज्ञान के कारण भाषा शैली भी ठीक थी, लेकिन मुझे अभी और अनुभव हासिल करना था।

इसके बाद मैंने ऐसी ही कई पत्रिकाओं में संपादक या सहायक संपादक के तौर पर काम किया। जब मैं किसी प्रेसवार्ता में जाता था तो देखता था कि मुख्यधारा के पत्रकारों को अधिक सम्मान मिलता था और मुझे ऐसा लगने लगा कि कहीं तो कोई कमी है।

उस समय पीटीआई में एक नियुक्ति होनी थी, लेकिन दिक्क्त ये थी कि उस दौर में सीनियर लेवल पर जगह सीधे नहीं मिलती थी, आपको ट्रेनी के तौर पर ही नियुक्ति मिलती थी। मुझे मुख्यधारा की मीडिया से जुड़ना था तो उस समय जो मेरी सैलरी थी, उससे एक चौथाई सैलरी पर मैंने पीटीआई जॉइन कर लिया।

‘एशियानेट‘ जो कि दक्षिण भारत का पहला न्यूज नेटवर्क था, उसका भी मैं संपादकीय सलाहकार बना। पीटीआई में नीचे से शुरू होकर मैं पॉलिटिकल करेसपॉन्डेंट तक के पद पर पहुंचा। उसके बाद मेरी एक यात्रा शुरू हुई, जिसमें दूरदर्शन में भी वरिष्ठ सलाहकार संपादक जैसे अहम पदों पर मैं रहा और आज ‘एमसीयू‘ के कुलपति के रूप में आप लोगों के सामने हूं।

आपको एक प्रयोगधर्मी व्यक्ति के रूप में जाना जाता है। आप 'एमसीयू' में कई भाषाओं के अलावा दक्षिण की भाषा में भी कोर्स शुरू करने वाले हैं। इसके बारे में कुछ बताएं।

अगर आप आकंड़ों की ओर देखें तो आने वाले समय में भाषा में ही पत्रकारिता का भविष्य है और इस बात को हम अच्छी तरह से समझते हैं। अगर आप इंग्लिश को देखें तो उसको पढ़ने वालों की संख्या कम होती जा रही है। लोग अपनी भाषा में पढ़ना पसंद करते हैं। जब मैं 'आईआईएमसी' में था तो अमरावती परिसर से मैंने मराठी भाषा में पाठ्यक्रम शुरू करवाया।

केरल में जो परिसर है, वहां से मैंने मलयालम में पत्रकारिता शुरू करवाई। इसके अलावा लाल बहादुर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ के साथ मिलकर संस्कृत का एक एडवांस कोर्स शुरू करवाया। अगर आप देखें तो पहले अखिल भारतीय परीक्षा पास करके कुछ छात्र केरल और बाकी राज्यों में भले ही चले जाते थे, लेकिन स्थानीय भाषा के बच्चों को वो मौका नहीं मिलता था।

हम सिर्फ ओडिशा के परिसर को छोड़ दें तो हर जगह सिर्फ इंग्लिश ही पढ़ाई जाती है। जब हमने मराठी में कोर्स शुरू किया तो गरीब से गरीब बच्चे को भी ये लगा कि अब वह भी 'आईआईएमसी' में पढ़ सकता है।

विदर्भ जैसे पिछड़े इलाके के बच्चों के अंदर भी हम वो उम्मीद जगाने में कामयाब रहे। मुझे एक छात्र ने बड़ी भावुक चिठ्ठी भी लिखी थी, जिसमें उसने कहा कि आज मैं मराठी मीडिया में सक्रिय रूप से काम कर रहा हूं और उसके पीछे आपका वो निर्णय था, जिसके कारण एक पिछड़ा और गरीब बच्चा भी 'आईआईएमसी' से पढ़ सका।

आज 'एमसीयू' भले ही प्रादेशिक भाषाओं में काम कर रहा है, लेकिन हमारा दृष्टिकोण राष्ट्रीय है। इसलिए हम 'भाषाई विभाग' और 'भाषाई पत्रकारिता' पर भी ध्यान दे रहे हैं, ताकि देश भर के बच्चों को एक विश्व स्तर का वातावरण मिल सके।

डिजिटल मीडिया के इस बढ़ते दौर में हिंदी पत्रकारिता के भविष्य को आप कैसे देख रहे हैं?

अगर आज हम 'वेबदुनिया' या 'जागरण' और इसके अलावा 'भास्कर' को देखें तो आप पाएंगे कि हिंदी पत्रकारिता ने डिजिटल को बहुत पहले ही भांप लिया था और अपनाना शुरू कर दिया था। आज जो लोग अखबार नहीं पढ़ पा रहे हैं, उनको अपने फोन में ही हिंदी भाषा में विश्वसनीय कंटेंट मिल रहा है।

एक अनुमान है कि प्रिंट सिर्फ तीन फीसदी की दर से आगे बढ़ रहा है, वहीं डिजिटल 36 फीसदी की ग्रोथ की ओर देख रहा है और विज्ञापन में भी डिजिटल आगे जा रहा है। इसके अलावा हम देखें तो आज जिला स्तर पर भी प्रिंट के संस्करण खुल रहे हैं और टीवी के बड़े-बड़े नेटवर्क आप देख लीजिए जो कभी सिर्फ इंग्लिश प्रोग्राम चलाया करते थे, वो आज हर भाषा में अपने चैनल खोल रहे हैं।

आप हाल ही में 'रिपब्लिक नेटवर्क' का उदाहरण देख लीजिए, इंग्लिश के बाद वह अपना हिंदी चैनल लाया और उसके बाद उन्होंने 'बांग्ला' भाषा में उसे लांच किया और यही मैं कह रहा हूं कि आने वाले समय में पत्रकारिता का भविष्य भाषा में ही होगा।

ओटीटी प्लेटफॉर्म्स की बढ़ती लोकप्रियता के बीच आपने फिल्म पत्रकारिता की ओर भी ध्यान देने की बात कही है! उसके पीछे आपको क्या कारण दिखाई दे रहे हैं?

हमने हाल ही में अपने खंडवा परिसर में फिल्म पत्रकारिता शुरू करने का निर्णय लिया है। खंडवा सिर्फ दादा माखनलाल की कर्मभूमि ही नहीं, बल्कि दादा किशोर कुमार की जन्मभूमि भी है। फिल्म स्टडी या सिनेमा के बारे में ज्ञान देना हो या फिल्म प्रोडक्शन हो, आज के समय में देश में बहुत कम जगह पर ये सिखाया जा रहा है, लेकिन पहली बार हम इसे शुरू करेंगे। हमारी इस मुहिम में देश के बड़े निर्देशक, निर्माता और कलाकार शामिल हैं जो बच्चों को मार्गदर्शन देंगे। हम सब जानते हैं कि फिल्में संवाद का एक सशक्त माध्यम हैं तो इसे क्यों नहीं पढ़ाया जाए?

आज ओटीटी के बढ़ते प्रयोग ने बाजार के लिए रास्ते खोल दिए हैं और हमें ऐसे पत्रकार तैयार करने होंगे, जिन्हें वाकई में इस पूरे प्रोसेस की समझ हो। आज इतने माध्यम हैं कि फिल्म की लागत अब उतनी नहीं रह गई है तो ऐसे समय में हमें इसे भी समानांतर तौर पर लेकर चलना होगा।

आज मैं देख रहा हूं कि भोपाल के कई कलाकार भी वेब सीरीज और फिल्मों में बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। आज आम आदमी के घर तक मनोरंजन पहुंच गया है। मेरा ये आह्वान है कि छोटे-छोटे परिसरों में भी इन चीजों को लेकर जागरूक होने की जरूरत है और लोगों की सृजनात्मकता को बढ़ाने की जरूरत है।

वर्तमान समय में पत्रकारों पर दोहरे मापदंड अपनाने के आरोप लगाए जा रहे हैं और उन्हें लेकर देश के एक वर्ग में नाराजगी भी है। इसे आप किस तरह से लेते हैं?

ये सवाल बहुत महत्वपूर्ण है और इसलिए भी क्योंकि अब ये चीजें आम जनता के जहन में आ गई हैं, जिनका जवाब उन्हें मिलना भी चाहिए। दरअसल, मीडिया के एक बड़े वर्ग का ध्रुवीकरण हो गया है और अब पत्रकार कम पक्षकार अधिक हो गए हैं। पत्रकार आज भी हैं और बहुत बढ़िया काम भी कर रहे हैं।

कोरोना काल में जिस तरह से हमने फील्ड रिपोर्टिंग देखी, वो बहुत सराहनीय थी और खोजी पत्रकारिता भी बहुत बढ़िया हुई है लेकिन कई जगह पत्रकार मजबूत कम बल्कि मजबूर अधिक दिखाई देते हैं। देखिए, आज पक्षपात का आरोप तो लग रहा है लेकिन आपको पत्रकार और प्रबंधन को अलग-अलग देखना होगा। आज तमाम पत्रकार या तो अनुबंध पर हैं या बड़े-बड़े औद्योगिक घरानों से जुड़े हुए हैं। कई मालिक तो खुलकर अपनी सोच को बताते हैं और अलग-अलग दलों से सांसद भी बने हैं।

आज अगर किसी पत्रकार को निलंबित कर दिया जाता है तो वो कुछ अधिक नहीं कर सकता है और दूसरे अखबार भी उसके बारे में नहीं लिखते हैं। इसके अलावा अब पत्रकारों का कोई मंच भी नहीं रह गया है। पत्रकारों के पास आज सामाजिक सुरक्षा तक नहीं है। आज जिला और गांव स्तर पर जो पत्रकार हैं, वो तो हाशिये पर हैं और न ही उनकी उतनी आय है। हम सबकी विचारधारा अलग-अलग हो सकती है, लेकिन दिक्क्त तब आती है जब हम राजनीतिक हो जाते हैं। जब आपकी चर्चा मुद्दों से भटक जाती है तो दिक्क्त आने लगती है।

हम आज-कल हर चीज को राजनीतिक चश्मे से देखने लग गए हैं तो ये पहले नहीं होता था। समस्या यह है कि आज हम किसी और के प्रवक्ता बन गए हैं। अगर कोई अच्छा काम कर रहा है तो उसकी तारीफ हो और कोई गलत काम कर रहा है तो पूरी ईमानदारी से उसकी आलोचना हो।

एक चीज यह भी जरूरी है कि आप किसको वोट देते हैं, उसकी झलक आपकी रिपोर्ट में नहीं आनी चाहिए और सही मायनों में यही पत्रकारिता है। रिपोर्ट निष्पक्ष, सत्यपरक और वस्तुनिष्ठ होनी चाहिए और इसमें समझौता नहीं होना चाहिए।

आजकल सोशल मीडिया के माध्यम से फेक न्यूज फैला दी जाती है और उससे सामाजिक सौहार्द भी बिगड़ जाता है। आप अपने छात्रों को अच्छे फैक्ट चेकर बनाने के लिए क्या कर रहे हैं?

फेक न्यूज और फेक कंटेंट इस समाज के लिए बेहद खतरनाक है और ये आज से नहीं, बल्कि कई सालों से हो रहा है। बस अब डिजिटल से इसकी ताकत बढ़ गई है। आज पेंडेमिक की तरह इंफोडेमिक आ गया है और आज इतनी सूचनाओं का भंडार है कि लोग यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि कौन सी सूचना सही है और कौनसी गलत?

मुझे ‘नागरिक पत्रकारिता‘ इस शब्द से परहेज है। हर नागरिक को अपनी बात कहने का हक है, लेकिन वो पत्रकार नहीं बन सकता है। उसके लिए कुछ मापदंड और योग्यता होती है। आप चार शब्द लिख लेते हैं और मोबाइल चला लेते हैं तो इसका मतलब ये नहीं है कि आप पत्रकार बन गए। अगर यही पत्रकार बनने की योग्यता है तो फिर इन विश्वविद्यालयों को बंद कर देते हैं, हमारी जरूरत ही क्या है?

‘झोलाझाप‘ शब्द क्यों इस्तेमाल किया जाता है? क्योंकि इसमें योग्यता नहीं है, लेकिन वो ऐसा होने का दिखावा कर रहा है और उनसे समाज को बचने की जरूरत है। फैक्ट चेक पत्रकार का मूल सिद्धांत है और आज से नहीं, ये सालों से चला आ रहा है। चेक और वेरीफाई शब्द तो पत्रकार की आत्मा होते हैं। एविडेंस आधारित रिपोर्टिंग करनी जरूरी है। 

हमने यूनिसेफ के साथ मिलकर भारत में पहला ‘पब्लिक हेल्थ कम्युनिकेशन‘ कोर्स जैसा प्रयोग किया है। ऑक्सफोर्ड के साथ मिलकर वर्ष 2016 में हमने ‘आईआईएमसी‘ में इसे लागू किया था। इसमें हमने पब्लिक हेल्थ को ध्यान में रखकर पत्रकारों को प्रशिक्षित किया था। आज के समय में भी हमारे सभी परिसर में लोकल स्वास्थ्य से जुड़े पत्रकारों के साथ मिलकर यह काम जारी है। आज समाज में जो गलत सूचना फैलाई जा रही है, उस पर कैसे एक करारा प्रहार हो, उसके लिए भी हम अपने छात्रों को तैयार कर रहे हैं।

कोरोना काल में परिसर में कक्षाएं कैसे हो रही हैं और आने वाले समय में कैसे तकनीक का प्रयोग आप करने वाले हैं, इसके बारे में हमे कुछ बताइये।

इस मामले में हम बड़े सक्रिय हैं। पूरे कोरोना काल में हमने तकनीक के जरिये सभी से संपर्क बनाए रखा है और सुचारु रुप से सभी चीजों को लागू किया गया है। मैं छात्रों के सहयोग से भी अभिभूत हूं और आप देखिए कि पूरा सिलेबस छात्रों को करवाया जा चुका है।

इस समय 1600 के करीब हमारे अध्ययन केंद्र हैं, जिनमें कई लाख छात्र पढ़ रहे हैं और फाइनल ईयर के जो छात्र हैं, जिनको प्रायोगिक शिक्षा मिलनी चाहिए थी, उनके साथ हम जुड़ने की कोशिश कर रहे हैं, ताकि वो अपने आस-पास के केंद्र में जाकर अपनी प्रैक्टिकल क्लास ले सकें।

जब कोरोना की पहली लहर के बाद कैंपस थोड़े दिन खुले, उसके बाद हमने छात्रों को बुलाना शुरू किया ताकि उन्हें एक्सपोजर मिले और हमारे जनसंचार विभाग के ही बच्चों ने 200 से ऊपर वीडियो घर बैठे तैयार किए थे और आज भी बच्चे घर बैठे वीडियो और पोस्टर बना रहे हैं लेकिन मैं इस बात को भी स्वीकार करता हूं कि जिस प्रभावी तरीके से उनको हम परिसर में ट्रेनिंग दे सकते थे, वो अभी नहीं दे पा रहे हैं। आज इस कठिन समय में मुझे चिंता उन विद्यार्थियों की होती है, जिनके पास स्मार्टफोन नहीं है, लैपटॉप नहीं है, वो कैसे पढ़ पाएंगे और उनके नुकसान की कैसे भरपाई होगी?

आज आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (Artificial intelligence) का जमाना है और हमे वर्तमान समय में ही भविष्य की योजनाओं को बनाकर चलना होगा, ताकि छात्रों को भी इसका फायदा मिले, इस दिशा में आप क्या कदम उठा रहे हैं?

आपने बिल्कुल सही कहा है। अगर हम पुराने कोर्स पर चलते रहे तो आने वाले समय में मुश्किल तो होगी। एक रिपोर्ट कहती है कि आने वाले समय में कॉमिक और एनिमेशन उद्योग में सालाना 16000 लोगों की जरूरत पड़ेगी, जिसकी तैयारी आज हमारे पास नहीं है। इसी पर सोचते हुए ‘आईआईएमसी‘ में मेरे कार्यकाल में मुंबई फिल्म सिटी में 20 एकड़ जमीन ली गई थी लेकिन मेरे प्रस्थान के बाद अब ये निर्णय लिया गया कि अब सूचना प्रसारण मंत्रालय उस काम को देखेगा। इसके अलावा ग्राफिक और एनिमेशन के एक प्रोग्राम को जो कि बंद पड़ा हुआ था, उसे हमने वापस शुरू करने में सफलता हासिल की है।

वर्तमान की शिक्षा नीति को देखते हुए अब हम चार साल का यूजी प्रोग्राम शुरू कर रहे है। हमारी योजना है कि आने वाले समय में जो छात्र हम तैयार करें, वो मल्टी टास्किंग हों, जो कि प्रिंट, टीवी और डिजिटल में समान रूप से काम कर सकें।

इसके अलावा हम मोबाइल और ड्रोन पत्रकारिता पर भी ध्यान दे रहे हैं। अगर एक फोटोग्राफर शादी में ड्रोन का इस्तेमाल कर सकता है तो हमारा पत्रकार क्यों नहीं कर सकता है? अगर आप बाहर निकलने में असमर्थ हैं तो आप ड्रोन के माध्यम से रिपोर्टिंग कर सकते हैं। आने वाले भविष्य को ध्यान में रखकर ये सब चीजें हम अपने सिलेबस में समाहित करने जा रहे हैं। आज के इस समय में हम अपने छात्रों को यही सिखाते हैं कि आने वाले समय में नौकरी की कमी नहीं होगी, लेकिन मल्टीटास्किंग लोगों की जरूरत होगी और हम अब इसी दिशा में आगे बढ़ रहे हैं।

समाचार4मीडिया के साथ केजी सुरेश की बातचीत का वीडियो आप यहां देख सकते हैं।


टैग्स केजी सुरेश माखनलाल यूनिवर्सिटी कुलपति साक्षात्कार एमसीयू वाइस चांसलर माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय वीसी
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