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डिजिटल मीडिया तूफान है, सबको उड़ा देगा, इसका अंत विनाशकारी होगा: परेश नाथ
‘दिल्ली प्रेस’ (Delhi Press) के पब्लिशर परेश नाथ ने डिजिटाइजेशन के दौर में सामने आ रहीं चुनौतियों के साथ-साथ प्रिंट और डिजिटल के भविष्य को लेकर भी विस्तार से चर्चा की...
समाचार4मीडिया ब्यूरो 7 years ago
इन दिनों डिजिटल मीडिया का प्रभाव जोरों पर है और यह लगातार बढ़ता ही जा रहा है। किसी भी तरह का कंटेंट यहां आसानी से उपलब्ध है। ऐसे में प्रिंट मीडिया के समक्ष चुनौती बनी हुई है। इस बारे में ‘दिल्ली प्रेस’ (Delhi Press) के पब्लिशर परेश नाथ ने डिजिटाइजेशन के दौर में सामने आ रहीं चुनौतियों के साथ-साथ प्रिंट और डिजिटल के भविष्य को लेकर भी विस्तार से चर्चा की। इसके अलावा उन्होंने दिल्ली प्रेस में अपने चार दशक से ज्यादा के अनुभवों को भी हमसे साझा किया। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश:
आपने बचपन से ही प्रेस की कार्यप्रणाली देखी है, तब से लेकर अब तक कितना बदलाव आया है?
मैंने दिल्ली प्रेस के साथ वर्ष 1970 से काम शुरू कर दिया था। इसके बाद धीरे-धीरे मैंने एडिटोरियल डिपार्टमेंट का जिम्मा संभाल लिया। 70 के दशक में हम बहुत तेजी से आगे बढ़ रहे थे। उस दौरान कुछ समय के लिए मार्केट की स्थिति ज्यादा अच्छी नहीं थी, जब कवर प्राइस बढ़ गया था। हालांकि उस दौरान ग्रोथ में थोड़ी गिरावट आई थी, अन्यथा सर्कुलेशन लगातार बढ़ रहा था। जब पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी घोषित की थी, तब सेंसर डिपार्टमेंट को भेजने से पहले मैं खुद अंतिम प्रिंट पढ़ता था। मैगजीन में ऐसा कुछ भी नहीं था जो उन दिनों प्रतिबंधित था। इमरजेंसी के दौरान हमने ‘इंदिरा गांधी’ शब्द का इस्तेमाल नहीं किया था। हम उस दौरान इंदिरा गांधी के पक्ष में अथवा विरोध में कुछ भी नहीं कहते थे। हम उनके बारे में कुछ भी नहीं कहते थे। इस तरह हमने अपना विरोध दर्ज कराया था। हालांकि यह काफी कम था लेकिन हम इतना ही कर सकते थे। इमरजेंसी के दौरान भी हमारा बिजनेस कम नहीं हुआ था और इससे सर्कुलेशन पर भी कोई प्रभाव नहीं पड़ा था। कॉमर्शियल ऐडवर्टाइजमेंट भी ठीक-ठाक थे और हम सरकारी ऐडवर्टाइजमेंट पर ज्यादा निर्भर नहीं थे।
सरिता काफी लोकप्रिय मैगजीन थी, दिल्ली प्रेस के लिए यह किस तरह फायदेमंद साबित हुई ?
सरित मैगजीन वर्ष 1945 में शुरू हुई थी। हमें सरिता में विज्ञापन मिलने शुरू हो गए थे और यह पूरी तरह सफल मैगजीन थी। वर्ष 1952-53 या शायद उससे पहले की बात है जब हमें हिन्दुस्तान यूनिलीवर से विज्ञापन मिले थे। 1962 के कुछ इश्यू में तो सरिता के हिन्दी एडिशन में करीब 100 पेज के विज्ञापन मिले थे। यह उस समय की महंगी मैगजीन में से एक थी। वर्ष 1945 में जब यह लॉन्च हुई थी तब इसकी कॉपी की कीमत एक रुपये थी और इसने इसी कवर प्राइस पर काफी समय तक बिक्री की।
यदि मैगजीन के फ्यूचर की बात करें तो यह काफी बहस वाला टॉपिक है। दिल्ली प्रेस के लिए यह कैसे चल रहा है ?
तीन-चार साल पहले तक हम लगातार आगे बढ़ रहे थे लेकिन इसके बाद से सर्कुलेशन में स्थिरता आने लगी। डिजिटाइजेशन ने दुनियाभर के पब्लिकेशंस के लिए और परेशानियां पैदा कर दीं और यह काफी चिंता का कारण है लेकिन मैंने प्रिंट पर अपना भरोसा बनाए रखा है। हम किसी रेत पर नहीं लिख रहे हैं, हम ऐसी चीज पर सामग्री छापते हैं जो सॉलिड है और इसे सौ साल बाद भी पढ़ा जा सकता है। यदि डिजिटल मीडिया की बात करें तो यह एक तूफान की तरह है, यह सब चीजों को उड़ा देगा और इसका अंत विनाशकारी होगा।
बदलते समय में दिल्ली प्रेस खुद को कैसे बदलेगी?
एक बार जब आपको महसूस हो जाता है कि आप इस तूफान का सामना नहीं कर सकते हैं तो कुछ उपाय अपनाने पड़ते हैं। यही चीजें दुनियाभर में प्रिंट मीडिया कर रहा है। आजकल ‘गूगल’, ‘फेसबुक’ और ‘ट्विटर’ ने सभी लोगों के बीच अपनी पहुंच बना ली है। इस प्लेटफॉर्म को बढ़ाने के लिए वे काफी खर्च भी कर रहे हैं। हालांकि कई लोग इस पर फर्जी नाम से भी लिखते हैं, कुछ अपना नाम छिपाकर लिखते हैं, यानी आप उनकी पहचान नहीं कर सकते हैं। लेकिन प्रिंट इस मामले में भरोसेमंद रहता है।
यदि प्रिंट मीडिया की बात करें तो इसमें 140 शब्दों की सीमा में कुछ भी नहीं हो सकता है। हमारी तो हेडलाइंस भी काफी ज्यादा लंबी होती हैं।
हालांकि, पारंपरिक मीडिया के लिए प्रिंट राजस्व का एक बड़ा स्रोत बना रहता है, आपको क्या लगता है, यह स्थिति कब तक चलेगी?
हमें इस बात को समझना होगा कि प्रिंट तभी तक बचा रह पाएगा, जब तक कोई इसमें पैसा लगाएगा। यदि लोग सभी चीजें डिजिटल में चाहने लगेंगे तो प्रिंट जल्दी खत्म हो जाएगा। तब आप 500 पेज की किताब नहीं पढ़ पाएंगे।
प्रिंट को जीवित रखने में क्या ग्रामीण क्षेत्र की आबादी से कुछ मदद मिल सकती है ?
नहीं, हमें शहरी क्षेत्र के लोगों के साथ जाना है। पूरी दुनिया में शहरी आबादी तक आसानी से पहुंच बनाई जा सकती है। आप ग्रामीण क्षेत्रों में प्रिंट को पहुंचा तो सकते हैं लेकिन वहां आप इसे बेच नहीं सकते क्योंकि सभी जगह ग्रामीण क्षेत्र के लोगों की खरीदने की क्षमता इतनी नहीं होती है। लेकिन इंटरनेट के साथ ऐसा नहीं है। इसे कहीं से भी एक्सेस किया जा सकता है, यह काम प्रिंट नहीं कर सकता है।
आजकल जब ऑनलाइन पर अधिकांश कंटेंट फ्री है, ऐसे में दिल्ली प्रेस के लिए भुगतान के क्या मायने हैं?
देखिए, शुरुआत में जब ऐडवर्टाइजिंग रेवेन्यू नहीं था, तब भी मैं ऑनलाइन के पक्ष में नहीं था। जब तक डिजिटल मैगजीन न्यूजस्टैंड हमारी मैगजीन को बेच रहे हैं, तब कोई समस्या नहीं है लेकिन हम ऑनलाइन जाकर फ्री कंटेंट उपलब्ध कराने के पक्ष में नहीं हैं।
विभिन्न ऑनलाइन न्यूज प्लेटफॉर्म्स सीरियस कंटेंट का निर्माण कर रहे हैं। क्या आपको लगता है कि यह प्रिंट मीडिया का विकल्प हो सकता है ?
समाज में कम्युनिकेशन के कई तरीके हैं। जैसे हम प्रिंट के द्वारा किसी से संवाद करते हैं। इसके अलावा हम बातचीत के द्वारा भी दूसरों से संवाद करते हैं। इसका मतलब ये नहीं है कि प्रिंट सिर्फ इसी वजह से डाउन हो जाएगा क्योंकि हम वक्ताओं को भुगतान कर रहे हैं।
डिजिटल प्लेटफॉर्म्स सिर्फ सनसनीखेज पत्रकारिता है, यह गंभीर पत्रकारिता नहीं है, लेकिन प्रिंट एक तरह से कछुए की तरह है। यह काफी धीमी तो है लेकिन ज्यादा लंबे समय तक चलने वाली है। यदि किसी वेबसाइट पर कोई गंभीर आर्टिकल है भी तो भी उसकी लाइफ ज्यादा नहीं है यानी वे ज्यादा लंबे समय तक चलने वाला नहीं है।
‘कारवां’ को चलाना कितना मुश्किल था ?
यह वाकई में बहुत मुश्किल था। लेकिन अब मेरा मानना है कि यह किसी न किसी रूप में मौजूद रहेगी ही। इसलिए इसको लेकर डर वाली कोई बात नहीं है। भारत में जब 1857 की क्रांति हुई थी तो लंदन के अखबारों में यह खबर आठ हफ्ते बाद आई थी। उन दिनों में भी अखबार की 50000 कॉपी बिकी थीं। इसका मतलब लोगों ने खबरें पढने के लिए भुगतान किया था और न्यूज आर्गनाइजेशन ने भारत में संवाददाता रखने पर पैसा खर्च किया था। क्या कोई डिजिटल साइट इतना खर्च वहन कर सकती है?
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