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'बिहार की राजनीति को समझने के लिए 'गांधी मैदान...' को पढ़ना जरूरी'
संयोग देखिए कि पहली पटना यात्रा के 25 वर्षों के बाद ‘गांधी मैदानः Bluff of Social Justice’ जैसी उत्कृष्ट किताब पढ़ने को मिल गई। इसे लिखा है वरिष्ठ पत्रकार व संपादक अनुरंजन झा ने।
समाचार4मीडिया ब्यूरो 3 years ago
विवेक शुक्ला, वरिष्ठ पत्रकार ।।
करीब 25 साल पहले पटना गया था। तब पटना में सदाकत आश्रम, पटना साइंस कॉलेज और गांधी मैदान को देखने की इच्छा थी। गांधी मैदान इसलिए देखना चाह रहा था, क्योंकि मेरी जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा दिल्ली के रामलीला मैदान के करीब ही गुजरा था। रामलीला मैदान में कई बड़ी रैलियों को देखा था और गांधी मैदान में हुईं रैलियों को लेकर लगातार पढ़ा-सुना करता था।
संयोग देखिए कि पहली पटना यात्रा के 25 वर्षों के बाद ‘गांधी मैदानः Bluff of Social Justice’ जैसी उत्कृष्ट किताब पढ़ने को मिल गई। इसे लिखा है वरिष्ठ पत्रकार व संपादक अनुरंजन झा ने। अनुरंजन बहुत बेखौफ और बेबाक पत्रकार हैं। पत्रकारों की ये प्रजाति तेजी से विलुप्त हो रही है। जैसा कि इस किताब के नाम से ही साफ है, ये सिर्फ गांधी मैदान के इर्द-गिर्द ही नहीं घूमती। ये संभव भी नहीं है।
अनरंजन झा ‘गांधी मैदानः Bluff of Social Justice’ को शुरू करते हैं 5 जून,1974 को गांधी मैदान में हुई जयप्रकाश नारायण की हुई विशाल रैली से। उसके बाद किताब सोशल जस्टिस के दो सबसे अहम किरदारों क्रमश: लालू यादव और नीतीश कुमार पर मुख्य रूप से फोकस करती है।
जेपी ने उस 5 जून,1974 की रैली में संपूर्ण क्रांति का आह्वान किया था। आजाद भारत ने जनता की भागीदारी के लिहाज से शायद ही इतनी बड़ी रैली कभी देखी हो। उस रैली में लालू यादव भी थे। वे नौजवान थे। आदर्शवादी थे। वे 1977 में महज 28 साल की उम्र में सांसद बन गए थे। वे दिल्ली में हिन्दुस्तान टाइम्स हाउस में अपने एक बाल सखा अरुण कुमार जी के पास बार-बार आते थे, ताकि उन्हें पालिका बाजार लेकर जा सकें। वे पालिका बाजार को ठंडी मार्केट कहते थे। वे पालिका बाजार से राबड़ी जी और बच्चो के लिए कपड़े खरीदते थे।
लालू आगे चलकर बिहार के मुख्यमंत्री बने। ‘गांधी मैदान के आंदोलन से निकले उस ब्लफ मास्टर की सारी राजनीति दिखाने की राजनीति थी। ये बिल्कुल नहीं था कि राज्य का पूरा पिछड़ा समाज लालू में गांधी देख रहा था, लेकिन लालू यादव में उसको अपना तारणहार जरूर नजर आ रहा था...’
‘लालू ने सत्ता पर काबिज होते ही मैथिली की आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता रद्द कर दी, क्योंकि उनका मानना था कि इस भाषा का इस्तेमाल अधिकतर सवर्ण ही करते हैं। उसके बाद पटना का गोल्फ कोर्स यह कहकर बंद करवा दिया कि यह अमीरों का खेल है...।’
बिहार लालू राज के दौरान जंगल राज में तब्दील होता गया। राज्य से प्रतिभा पलायन तेज हो गया। सरकारी नौकरियों में अपनों को तरजीह मिलने लगी। लालू का ब्यूरोक्रेसी पर पूरा कब्जा हो चुका था। उद्योग धंधे तबाह होने लगे। लेकिन अपहरण और फिरौती उद्योग तेजी से जमने लगे। अनुरंजन झा एक तरह से मानते हैं कि बिहार के एकछत्र नेता ने राज्य का कोई भला नहीं किया।
तो क्या जिस नीतीश कुमार में लालू के बाद बिहार ने उम्मीद की किरण देखी थी वह उम्मीदों पर खरे उतरे? ‘नीतीश कुमार बिहार और बिहारी समाज के लिए कुछ अच्छा करने का जज्बा रखते थे... वे कमिटेड और ईमानदार थे।’ वे लालू जितने बड़े जननेता तो कभी नहीं थे। पर वे भी राज्य को बदहाली से निकालने में सफल नहीं हुए। उनके मुख्यमंत्रित्व काल में देश या विदेश का निवेश राज्य में नहीं आया। मीडिया फ्रैंडली नीतीश कुमार को मीडिया ने सुशासन बाबू का दर्जा दिलवा दिया।
बिहार से जुड़े कई लोगों का मत है कि बिहार के साथ बेईमानी हुई। केंद्र ने संतुलित तरीके से बिहार के लिए फंड का आवंटन नहीं किया। ठीक है, इस कारण बिहार का औद्योगिक विकास नहीं हो सका। बिहार उन्नत राज्यों में शामिल नहीं हो सका, लेकिन क्या बिहार में फाइव स्टार होटल बनाने के लिए भी केंद्र के फंड की आवश्यकता है। क्या ये काम लालू या नीतीश नहीं कर सकते थे... बिहार के अधिकतर घर सीवर से नहीं जुड़े हैं, क्या इसके लिए भी केंद्र जिम्मेदार रहा। गांव छोड़िए, शहरों के घरों में टैप वाटर नहीं आता है, क्या इसके लिए केंद्र जिम्मेदार है।
सच ये है कि बिहार पिछले 30 सालों में बार-बार फेल होता रहा। बिहार की जनता को छला गया। अर्थशास्त्री राजीव कुमार कहते हैं कि जीडीपी ग्रोथ रेट में बिहार सरकार खूब पीठ थपथपाती है, जरा यह भी टटोल लेना चाहिए कि बिहार में प्रति व्यक्ति आय क्या है, भारत के सभी राज्यों से कम। जिनको भरोसा नहीं है, वह चेक कर सकते हैं। ठीक है, औद्योगिक विकास नहीं हो सका। लेकिन सर्विस सेक्टर में तो विकास हो ही सकता था। वहां कौन सी जमीन और कौन से पोर्ट की आवश्यकता है। देश के जीडीपी में सर्विस सेक्टर का योगदान 50 फीसदी से अधिक है और देश के ग्रॉस वैल्यू एडेड में 55 फीसदी। बिहार इस 50 और 55 फीसद में अपनी हिस्सेदारी देख सकता है। पटना के अलावा एक भी एयरपोर्ट नहीं है, अब दरभंगा बना है, वह भी छोटे विमानों के लिए। एक भी अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट नहीं है।
भारत के ज्ञान की राजधानी बिहार के पिछले 30 सालों की राजनीति, निराशा, हताशा को समझने के लिए गांधी मैदानः Bluff of Social Justice को पढ़ लेने में कोई बुराई नहीं है।
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