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'दिल को कचोटने वाला है पत्रकार चंदा बारगल का यूं दुनिया से चले जाना'

बेहद आत्मीय, विनम्र और हमेशा मुस्कुराने वाले थे चंदा बारगल

राजेश बादल 5 years ago

यकीन नहीं आता। चंदा बारगल ने इस जहां से विदाई ले ली। मध्य प्रदेश में साल भर के भीतर यह दूसरी ‘विदाई’ कचोटने वाली है। दिल में दर्द का समंदर लिए पहले बेहद विनम्र पुष्पेंद्र सोलंकी का जाना और अब वैसे ही नरमदिल,पत्रकारिता के प्रपंचों से दूर चंदा बारगल का करियर की तड़प और कसक को पीते हुए, जीते हुए चले जाना ।

मुझे याद है। नई दुनिया इंदौर में उप संपादक के तौर पर जॉइन किया था। अस्सी का साल था। नई दुनिया की परंपरा के मुताबिक़ प्रत्येक पत्रकार की शुरुआत प्रूफ रीडिंग डेस्क से ही होती थी। चंदा उन दिनों प्रूफ रीडिंग विभाग में थे। उमर में लगभग साल भर छोटे थे, इसलिए परिचय दोस्ती में बदल गया। इसी डेस्क पर नवीन जैन, पवन गंगवाल, मीना राणा, मीना त्रिवेदी, जयंत कोपरगांवकर भी होते थे। हम लोगों का समूह दफ्तर में चर्चाओं का केंद्र रहता था।

चंदा बेहद आत्मीय, विनम्र, हमेशा मुस्कुराने वाला, अच्छी पढ़ाई-लिखाई वाला था। इसलिए घंटों बहस भी होतीं। अक्सर रात दो बजे अखबार निकालने के बाद साइकिलों से राजबाड़ा जाते,पोहे खाते,चाय पीते और सुबह होते-होते घर लौटते। चंदा ने हमेशा मुझे भाई साब ही संबोधित किया। कभी-कभी मैं या नवीन जैन भड़क जाते कि हम लोग बराबरी के ही हैं, सीधे नाम लो, मगर चंदा पर कोई असर नहीं पड़ा।

एक तो उन दिनों नई दुनिया की भाषा का प्रशिक्षण जबरदस्त होता था। कॉमा, फुलस्टॉप से लेकर नुक्ता और चंद्र बिंदु लगाने के मामले में शुद्धता की पूरी गारंटी याना चंदा बारगल। अखबार की स्टाइलशीट से कोई भी विचलित हुआ तो चंदा भाई सीधे भिड़ने के लिए भी तैयार रहते थे। चाहे राहुल बारपुते याने बाबा का लिखा हुआ हो या राजेन्द्र माथुर जी का, अपने चंदा भाई को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था।

चंदा के गोलाई लिए शब्द और हैंडराइटिंग आज भी चित्र की तरह चल रही है। जब राजेन्द्र माथुर जी ने मुझे परिवेश स्तंभ का प्रभारी बनाया तो चंदा के अनेक आलेख मैंने प्रकाशित किए। उसके लिखे पर कलम चलाने का कम ही अवसर आता था। हां, शीर्षक वो कभी नहीं देता था। हमेशा कहता था, 'शीर्षक तो आप ही दें'। उसके लेखन से प्रूफरीडिंग विभाग के प्रभारी किशोर शर्मा नाराज़ रहते थे। उन्हें लगता था कि आलेख लिखने से चंदा काम पर ध्यान नहीं दे पाता। पर यह सच नहीं था।

चंदा के करीब 30-40 आलेख मैंने छापे। उससे पहले वह संपादक के नाम पत्र भी लिखता था। उन दिनों एक-एक पत्र पर भी पाठकों में बहस होती थी। यह बहस कभी-कभी बड़ा मुद्दा बनकर उभरती थी। आजकल अखबार इस तरह का मानसिक व्यायाम अपने पाठकों का नहीं कराते। ऐसे कई पाठक चंदा के नाम से उसे लड़की समझते थे और सीधे पत्र लिखते थे। हम लोग ऐसे पाठकों का बड़ा मजा लेते। कुछ पाठकों को तो चंदा ने उत्तर भी दिए। बाद में भेद खुला तो पाठक शर्मिंदा हो गए।

शाहिद मिर्ज़ा पहले यह स्तंभ देखते थे, फिर प्रकाश हिंदुस्तानी जी ने जिम्मेदारी संभाली। प्रकाश हिंदुस्तानी धर्मयुग चले गए तो मुझ पर इस स्तंभ का भार आन पड़ा। चंदा खुश रहता था कि मैं उसके लिखे पत्रों में अधिक काट-छांट नहीं करता। पर मैं उसे यह कोई अतिरिक्त सुविधा नहीं दे रहा था। वह लिखता ही ऐसा था। अक्सर हम लोग चोरल चले जाते। चोरल नदी में नहाते और घने जंगलों में ऐश करते। ऐसे न जाने कितने किस्से आज वेदना के साथ याद आ रहे हैं। कल ही तो करियर शुरू किया था और आज इस लोक से विदाई का सिलसिला भी शुरू हो गया।

इधर चंदा भोपालवासी हुए और कुछ समय बाद मैं दिल्ली जा बसा। बीच-बीच में कभी फोन पर तो कभी मिलने पर हम लोग उन दिनों की याद करते। फिर उसका वह लंबा खिंचने वाला ठहाका । उफ्फ....। इस कमबख्त ज़िंदगी ने काल के पहिए में ऐसा फंसाया है कि दोस्तों और अपनों से मिलना भी दुर्लभ होता जा रहा है। जब वे अचानक इस तरह विदा हो जाते हैं तो कलेजे में एक फांस की तरह कुछ अटका रह जाता है।

सच...बहुत याद आओगे चंदा।

(वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल की फेसबुक वॉल से)

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