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समीक्षा: नई सदी की कहानियां—अगली सदी की आधारशिला
समीक्षा: नई सदी की कहानियां—अगली सदी की आधारशिला
समाचार4मीडिया ब्यूरो
नई सदी की कहानियां वास्तव में नई सदी के युवाओं, लेखकों के लिए एक आधारशिला का ही काम करती हैं। यूं तो इस कहानियों के संकलन को जिस मैगजीन के कई अंकों के संकलन में से चुन चुन कर करीने से कहानियां निकालकर बेहतरीन तरीके से सजाया, संजोया गया है, उसके संपादक कृष्ण कुमार चड्ढा का इस मैगजीन, उसके लेखकों और अपने पिता
समाचार4मीडिया ब्यूरो
9 years ago
समाचार4मीडिया ब्यूरो
नई सदी की कहानियां वास्तव में नई सदी के युवाओं, लेखकों के लिए एक आधारशिला का ही काम करती हैं। यूं तो इस कहानियों के संकलन को जिस मैगजीन के कई अंकों के संकलन में से चुन चुन कर करीने से कहानियां निकालकर बेहतरीन तरीके से सजाया, संजोया गया है, उसके संपादक कृष्ण कुमार चड्ढा का इस मैगजीन, उसके लेखकों और अपने पिता से तोहफे में मिली इस विरासत से काफी भावुक लगाव रहा है और उतना ही लगाव उनकी याद में इस संकलन को हार्पर कॉलिंस से पब्लिश करवाने वाली उनकी बेटी सुपर्णा चड्ढा का भी रहा है। लेकिन जिस तरह से इस मैगजीन ने आजादी से पहले और आजादी के बाद के तमाम लेखकों और साहित्यकारों को ब्रेक दिया, नाम और रोजी भी दी, उससे लगता नहीं कि उन लेखकों का भी लगाव इस मैगजीन, इसके संपादकों या उनकी बेटी से कम होगा, जिनमें कमलेश्वर, बलवंत सिंह और कृश्न चंदर जैसे चेहरे शामिल हैं।
इन कहानियों को गहराई से पढ़ा जाए तो पता चलता है कि इनको पढ़ने की सबसे ज्यादा जरूरत युवाओं को है, जो तब की नई सदी और अपने बाप-दादाओं के दौर की दुनियां के कई पहलुओं को तो आसानी से समझ तो सकेंगे ही बल्कि आज के दौर की भी तमाम दुश्वारियों के बीज उस दौर की नई सदी में ही पनपते पल्लवित होते पाएंगे। मसलन ट्रैफिक, ऑफिस और घर के बीच की टेंशन, बड़े शहरों में घरों की समस्या, बच्चों का नर्सरी में मुश्किल होता एडमिशन, बॉलिवुड में विदेशी हीरोइनों का जोर, कामयाबी के लिए पीआर बढ़ाना और पार्टियां देना और शादी के बाद भी पुरानी गर्लफ्रेंड्स के जिंदगी में वापस आने से पैदा होने वाली मुश्किलों जैसी आज की समस्याएं तो पिछली सदी की इन कहानियों में दिखेंगी ही। आप पाएंगे कि जिगोलो जैसे आज के दौर के कैरेक्टर्स पर उस दौर में भी लिखा गया है। आज की तारीख में होने वाले दंगों के पीछे जहां लाउडस्पीकर का रोल दिखता है, तो उसके बीज भी उस दौर की कहानियों में पीपल के पेड़ और बाजे में दिखाई देते हैं। इतना ही नहीं तरुण तेजपाल जैसा अमीरों का प्राइवेट क्लब खोलने के ख्वाहिशमंद थे, उस तरह के एक क्लब का जिक्र भी राजकमल चौधरी की कहानी ‘अजनबी शहर’ में मिलता है।
इस संकलन में अमृता प्रीतम, कृश्न चंदर, खुशवंत सिंह, कन्हैया लाल कपूर, हाजरा मशरूह, जफर पयामी, बलवंत सिंह, मन्मथ नाथ गुप्त, पी रामेश्वरम, कृष्ण कुमार चड्ढा, चिरंजीत फिक्र तौंसवी, डॉ. गोविंद जातक, राजकमल चौधरी, सरस्वती चौधरी, शरद जोशी और रजनी पनिकल की चुनिंदा कहानियों शामिल हैं। इनमें से कुछ लेखकों की दो-दो कहानियां भी हैं।
इन कहानियों को ‘नई सदी’ मैगजीन के कई अंकों से इस तरीके चुना गया है कि कोई बड़ा लेखक छूटे नहीं और जिंदगी का कोई रंग भी बाकी ना रहे। अगर रोमांस की बात करें तो रोमांस के कुछ अलहदा से ही रंग हैं, जिनमें अधूरी कहानियों की तरह कुछ प्रश्न अनुत्तरित से छोड़ दिए गए हैं तो कुछेक में बिछड़ने के बाद शादी और फिर मिलने की संभावनाएं बनाते बनाते क्लाइमेक्स में झटका दे दिया गया है। शादी के बाद पुरानी प्रेमिका से मिलन की संभावनाओं पर तीन कहानियां हैं, अमृता प्रीतम की ‘वास्तुकार’, जिसमें हीरो एक किताब को शादी के बाद भी सालों तक इसलिए संभाल कर रखता है क्योंकि उस पर दोनों के नाम एक पास लिखे हुए हैं, जैसी दिल को छू देने वाली लाइनें लिखकर अमृता क्लाइमेक्स में हीरो को हीरोइन से तब दोबारा मिलाती हैं, जब डॉक्टर हीरोइन हीरो की बीवी का प्रसव करवाकर उसका बच्चा लेकर उसके सामने आती है, काफी फनी एंडिंग है, कम से कम आज के हिसाब से, शॉक देने वाली भी। उसी तरह हाजरा मशरूह की कहानी ‘फासले’ में जोहरा दूसरी शादी के लिए अपने पहले प्रेमी से जिस बेताबी से इंतजार करती है, वो पढ़ने लायक है। उस इंतजार में उस तरह के तमाम फ्लैशबैक हैं, जो आज के दौर की कई फिल्मों में देखने को मिलते हैं तो वहीं सरस्वती चौधरी की कहानी ‘थका शरीर और लंबा रास्ता’ भी एक बड़े परिवार की उस बहू का कहानी है, जिसका पुराना प्रेमी शहर के एसपी के रूप में उसी के घर की पार्टी में शामिल होता है और उससे फिर से अपनी जिंदगी में आने की गुजारिश करता है। आज के दौर में ये सब आम हो गया है, इस संकलन में अमृता प्रीतम की एक और कहानी है ‘कोरी हांडी’ जो फर्स्ट पर्सन में एक हांडी की व्यथा दिखाती है, लेकिन आज के दौर की एक प्रेमिका की व्यथा भी आप उसमें देख सकते हैं, जो पैसों के लिए अपने बॉस के छलावे में आ जाती है।
केवल रोमांस ही नहीं व्यंग्य रस भी इन कहानियों में जमकर बरस रहा है। व्यंग्य के नाम से कुछ कहानियां तो अलग से हैं हीं, ऐसी शायद ही कोई कहानी हो जिसमें व्यंग्यात्मक कमेंट ना हों। चाहे लेखकों के निशाने पर महिलाएं हों, धर्म के ठेकेदार हों, शहर के लोग हों, समाज के अमीर हों, फिल्म का डायरेक्टर हो या कॉलेज का प्रोफेसर हो या सो कॉल्ड इंटलेक्चुएलिटी, सबका लेखकों ने जमकर बैंड बजाया है। शरद जोशी की कहानी ‘ला-बोरियत के इंटलेक्चुअल्स’ का अगर आप शीर्षक और लास्ट पैराग्राफ ना पढ़े तो आपको अंत तक समझ नहीं आएगा कि ये कोई व्यंग्य है, आपको लगेगा कि आप हाई क्वॉलिटी का कोई रोमांटिक नोवल पढ़ रहे हैं। उसी तरह राजकमल चौधरी की ‘अजनबी शहर’ के जिगोलो हीरो को आप आखिर तक विलेन ही पाएंगे, लेकिन एंड की लाइनों में आपको लगेगा कि अरे..ये तो हीरो निकला। यानी सारी कहानियों में क्लाइमेक्स पर खासा जोर है।
एक व्यंग्य बड़े परिवारों और रुतबे वाले अफसरों की बीवियों के लेखन और साहित्य के क्षेत्र में अपनी जगह बनाने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले हथकंडों पर लिखा गया है, इसे आप रजनी पनिकर की कहानी ‘श्रीमती गौरी गोपालस्वामी’ में पढ़ सकते हैं, आज के दौर में भी ऐसे तमाम कैरेक्टर हैं। अगर आज की तारीख में ‘ओ माई गॉड’ जैसी फिल्म के जरिए अंधविश्वास पर हल्ला बोला जाता है तो उसके बीज भी नई सदी की कहानियों में मिलते हैं, कृश्न चंदर की ‘देवता और किसान’, पी रामेश्वरम की ‘संजयोवाच 1962’ और फिक्र तौंसवी की ‘मृत्युलोक में’, ये तीन कहानियां अंधविश्वास पर जोरदार और व्यंग्यात्मक हमला हैं। तो वहीं चिरंजीत की ‘चार की मार’ शुभ अशुभ अकों के बीच फंसे चतुर्भुज दास की कहानी की व्यंग्यात्मक त्रासदी है। डा. गोविंद चातक की कहानी ‘क्या गोरी क्या सांवली’ तो महिलाओं पर घोषित व्यंग्य है तो वहीं खुशवंत सिंह अपनी कहानी ‘फसाद’ में एक कुत्ते-कुतिया की प्रेमकहानी के जरिए कैसे दंगा फैलता है, बखूबी दर्शाते हैं, इसके जरिए खुशवंत ने समाज के ठेकदारों पर जबरदस्त कटाक्ष किया है। तो वहीं कृश्न चंदर की कहानी ‘ढक्की के नीचे’ में एक बच्चे के नजरिए से सामाजिक ऊंचनीच पर फोकस किया गया है।
उस दौर की दहेज प्रथा पर इमोशनल ढंग से सामाजिक प्रहार मन्मथनाथ गुप्त की दो कहानियों ‘एक बुरा आदमी’ और ‘निराशा’ के जरिए किया गया है। ‘एक बुरा आदमी’ में जेल की जिस समस्या को छूते हुए निकलने की कोशिश की गई है, वो आज के दौर में व्यापक हो गई है। तो व्यवस्था पर कमेंट करने वाली व्यंग्यात्मक कहानियां हैं पी रामेश्वरम की ‘संजयोवाच 1962’ और जफर पयामी की ‘दिल्ली देख कबीरा रोया’, जिसमें कई लघु कहानियों को मिलाकर एक कहानी लिखी गई है, जिसमें दिल्ली में एडमिशन की परेशानी से लेकर दिल्ली किसकी जैसे आज के मौजूं सवाल को उस दौर में भी उठाया गया है। उसी तरह एक फिल्म डायरेक्टर की सनक और विदेशी हीरोइंस के जलवे को कन्हैया लाल कपूर के व्यंग्य ‘फिर लिखिए’ में दर्शाया गया है तो अंग्रेजी के एक प्रोफेसर की मजेदार परेशानियों पर उनकी कहानी है ‘उम्र यों गुजरती है’। बलवंत सिंह की कहानी ‘दिल का कांटा’ मियां-बीवी के बीच खामखां के झगड़े और मियां की तीसमारखां शाही पर वीबी की जीत की काफी दिलचस्प दास्तान है।
नई सदी की कहानियों की तुलना आज की सदी की कहानियों से अगर की जाए तो मोटा फर्क उस दौर का खर्च ही दिखता है, उनमें गरीब की शादी के लिए पांच हजार दहेज मांगा जाता है, तो शहर की पार्टी दो हजार जैसी बड़ी रकम में होती है, एकाउंटेंट की सेलरी चार सौ होती है तो ऑटो का किराया बारह आना होता है, दूसरा बड़ा फर्क इंटरेक्शन के साधनों यानी मोबाइल फोन, इंटरनेट और सोशल मीडिया का है। तीसरा फर्क कुछ पुराने मुहावरों का जो अब आसानी से प्रयोग में नही लाए जाते, डा. गोविंद चातक ने तो अपनी कहानी ‘क्या गोरी क्या सांवली’ में मानो महिलाओं को लेकर गढ़े गए ज्यादातर व्यंग्यात्मक मुहावरों का संकलन कर लिया है, मसलन ऊंटनी की चुम्मी तो कोई ऊंट ही ले सकता है। हां, उस दौर के हिंदी के कुछ कठिन शब्दों से जरुर पाला पड़ेगा लेकिन अंग्रेजी से भी तौबा नहीं है।
चेतन भगत स्टाइल की कंपरेटिव राइटिंग के बीज आपको नई सदी की कहानियों में साफ दिखेंगे, जैसे अमृता प्रीतम कोरी हांडी में लिखती हैं.. मुझे महसूस हुआ कि मेरा मन्का पृथ्वीराज चौहान है और मैं सयुक्ता, जैसे वो मुझे बाहों में जकड़कर रागों के घोड़े को ऐंड़ लगाने को है..। व्यंग्यात्मक लाइंस तो इतनी धीर गंभीर भाव से सारी कहानियों में लिखी गई हैं कि आपको उन्हें समझने के लिए अकसर दो-दो दफा पढ़ना पड़ता है।
कुल मिलाकर संक्षेप में कहा जा सकता है कि भले ही ये किसी की याद में निकाला गया संकलन हो, लेकिन ऐसा संकलन भी हो सभी कहानी प्रेमियों के संकलन में रखने की प्रबल दावेदारी पेश करता है, जो स्वतंत्र भारत की पहली सदी के समाज के कई रूपों की अलग अलग रंगों और भावों के साथ सबसे सुंदर और सटीक तस्वीर प्रस्तुत करता है। दिलचस्प बात ये है कि इन कहानियों के साथ आप उस दौर के कोलगेट या विल्स जैसे कई बड़े ब्रैंड्स के विज्ञापनों को उर्दू में देख सकते हैं, जो तब नई सदी की कहानियों के साथ छपे होंगे। ऐसे में ऐडवरटाइजिंग के स्टूडेंट्स के लिए भी ये काम का संकलन हो सकता है।
वैसे आप इस किताब को खरीदने के लिए इसके प्रकाशक हॉर्परकोलिन्स की वेबसाइट के निम्न पर क्लिक कर सकते हैं।
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