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घूंघट की हट
हठ करती थी बचपन में मैं, लेने को चुनरी रंग बिरंगी। कहती थी मुझको भी है, घूंघट वाला खेल खेलना बस आज अभी।
समाचार4मीडिया ब्यूरो 2 years ago
श्वेता त्रिपाठी, कवियत्री ।।
हठ करती थी बचपन में मैं, लेने को चुनरी रंग बिरंगी।
कहती थी मुझको भी है, घूंघट वाला खेल खेलना बस आज अभी।
हंस करके मां जब, ये कह मना करती,
अभी तो तेरा बचपन है, तू क्यों इन सब में है पड़ती!
फिर भी मेरी हठ ना रुकती, कभी रोती, मैं कभी रूठती, कभी बिलखती।
थक हार के मेरी हठ से, मां कह देती, ये ले चुनरी रंग बिरंगी।
मिलते ही, ले चुनरी मैं, कर लेती अपने घूंघट के हठ को पूरी।
करके अपना शौक पूरा, जब मैं अपनी खुशी जाहिर करती।
तब मां भी मुस्कुराकर कहती, कर ले अपने मन की,
अभी नहीं है, किसी और की कोई जोर जबरदस्ती।
अब मैं बड़ी होकर, जब हर रोज घूंघट करती, तब घूंघट हटाने की इजाजत हठ करने से भी ना मिलती।
फिर वही चुनरी रंग बिरंगी, मानो जैसे लगती हो चेहरे की रंगीन हथकड़ी!
बचपन वाले घूंघट के हठ का शौक, पल में बन गया एक आडंबर भरी जोर जबरदस्ती!
अब जब जब हूं घूंघट करती, तब तब मां की वो बात याद करती।
जब वो व्यथित हसीं के साथ, ये कह उस वक्त मना करती।
अभी तो तेरा बचपन है, तू क्यों इन सब में है पड़ती!घूंघट की हट
हठ करती थी बचपन में मैं, लेने को चुनरी रंग बिरंगी।
कहती थी मुझको भी है, घूंघट वाला खेल खेलना बस आज अभी।
हंस करके मां जब, ये कह मना करती,
अभी तो तेरा बचपन है, तू क्यों इन सब में है पड़ती!
फिर भी मेरी हठ ना रुकती, कभी रोती, मैं कभी रूठती, कभी बिलखती।
थक हार के मेरी हठ से, मां कह देती, ये ले चुनरी रंग बिरंगी।
मिलते ही, ले चुनरी मैं, कर लेती अपने घूंघट के हठ को पूरी।
करके अपना शौक पूरा, जब मैं अपनी खुशी जाहिर करती।
तब मां भी मुस्कुराकर कहती, कर ले अपने मन की,
अभी नहीं है, किसी और की कोई जोर जबरदस्ती।
अब मैं बड़ी होकर, जब हर रोज घूंघट करती, तब घूंघट हटाने की इजाजत हठ करने से भी ना मिलती।
फिर वही चुनरी रंग बिरंगी, मानो जैसे लगती हो चेहरे की रंगीन हथकड़ी!
बचपन वाले घूंघट के हठ का शौक, पल में बन गया एक आडंबर भरी जोर जबरदस्ती!
अब जब जब हूं घूंघट करती, तब तब मां की वो बात याद करती।
जब वो व्यथित हसीं के साथ, ये कह उस वक्त मना करती।
अभी तो तेरा बचपन है, तू क्यों इन सब में है पड़ती!
(कवियत्री यूपी के अलीगढ़ में केनरा बैंक की मैनेजर भी हैं)
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