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पत्रकारिता की अपनी आचार संहिता वर्तमान दौर की सख्त जरूरत: राजेश बादल
एक दिन वह भी आ सकता है ,जब हमारे खिलाफ़ समाज ही आक्रामक होकर खड़ा हो जाएगा। उस दिन शायद हम शर्म से अपना सिर नही उठा सकेंगे राजनेताओं के हाथों की कठपुतलियां बनने से हम भी काले हो गए हैं ।
समाचार4मीडिया ब्यूरो 9 months ago
राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तंभकार।
वे दिन मुश्किल भरे थे। देश गुलाम था। लोग हक़ से वंचित थे। ऐसे में सारे मुल्क के साथ साथ सतपुड़ा के घने जंगलों से आज़ादी और अधिकार की मांग उठी। इनमें आदिवासी भी शामिल थे और समाज के अन्य वर्ग भी। बाबई कस्बे में माखनलाल चतुर्वेदी का जन्म हुआ। उन्होंने 1927 में भरतपुर संपादक सम्मेलन में अपनी ओर से पत्रकारिता के आचार और व्यवहार पर ख़ास व्याख्यान दिया। इससे पहले उन्होंने साप्ताहिक कर्मवीर का प्रकाशन प्रारंभ किया और उसमें अपने पत्र की आचार संहिता प्रकाशित की।
हिंदुस्तान के लिए यह अनोखी बात थी। इससे पहले अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया जैसे कुछ उन्नत देशों की पत्रकारिता ही अपनी बनाई आचार संहिता पर अमल करते हुए काम कर रही थी। माखनलाल जी ने अपनी संहिता में साफ़ किया था कि सनसनी खेज ख़बरें नहीं छापेंगे, खबरें नही बेचेंगे, कोई विज्ञापन विभाग नही होगा, संपादक और प्रबंधन अपनी कठिनाइयां प्रकाशित नहीं करेगा और आज़ादी के लिए लड़ रहे क्रांतिकारियों के खिलाफ़ अगर गांधी जी भी बयान जारी करेंगे तो नहीं छापा जाएगा।
तब से सौ बरस हो गए। आज तक हम पत्रकारिता में अपनी आचार संहिता पर माथा पच्ची कर रहे हैं। पत्रकारों का कहना है कि आचार संहिता होनी चाहिए लेकिन वह सरकार न बनाए। क्योंकि इससे अभिव्यक्ति पर दबाव बढ़ेगा। हम ही इसे तैयार करेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। न पत्रकारों ने बनाई और न सरकार को बनाने दी। अलबत्ता कुछ संस्थानों ने अपने कुछ मार्गदर्शक सिद्धांत तय किए थे। उसकी पहल महान संपादक राजेंद्र माथुर ने की थी। शेष अख़बारों ने कोई ख़ास रुचि नहीं दिखाई। नतीजा आज पत्रकारिता का वीभत्स और सड़ांध भरा चेहरा हमारे सामने है।
इस आचार संहिता और संवैधानिक सरोकारों पर देश के जाने माने स्वयंसेवी संगठन विकास संवाद का सत्रहवां सालाना पत्रकारिता जलसा आज याने 28 जनवरी को समाप्त हो गया। यह वैचारिक समागम पहाड़ों की रानी पचमढ़ी की तलहटी में तवा बांध के समीप सुखतवा में घने सागौन के जंगलों के बीच हुआ। वहां एक और स्वयंसेवी संगठन प्रदान का प्रांगण है। गांधी जी की जीवन शैली के अनुरूप इसे बनाया गया है और यहां सब कुछ उगाया जाता है। याने शुद्ध पर्यावरण के अलावा भोजन की शुद्धता की गारंटी। तो इसी में तीन दिन तक संविधान, समाज और हम याने पत्रकार पर केंद्रित यह जमावड़ा था। इसमें झारखंड, महाराष्ट्र ,मध्यप्रदेश, दिल्ली, छत्तीसगढ़,उत्तराखंड, बिहार,उत्तरप्रदेश और बंगाल समेत अन्य प्रदेशों से आए क़रीब डेढ़ सौ पत्रकारों, संपादकों ने शिरकत की।
इनमें मेरे अलावा चिंतक विचारक चंद्रकांत नायडू, रजनी बख्शी, प्रोफेसर कश्मीर उप्पलअरविंद मोहन, जयशंकर गुप्त ,अरुण त्रिपाठी, चिन्मय मिश्र,अजय बोकिल, विजय तांबे, अमन नम्र, रीता भाटिया, प्रकाश पुरोहित, अजय सोडाणी, आनंद पंवार ,सचिन जैन, राकेश मालवीय, पुष्यमित्र, दयाशंकर मिश्र और पंकज शुक्ला,जैसे कुछ कुछ पुराने हो चले पेशेवर शामिल थे तो नई नस्ल के सारंग उपाध्याय, रुचि वर्मा, सीटू तिवारी, निदा रहमान, रवि रावत, शिवांगी सक्सेना, सुषमा जी, एडवोकेट उर्मिला जी, नारायण परमार, मनीष जैसल, सौरभ जैन, शुचिता झा और अनेक गंभीर पत्रकार शामिल हुए।
लेकिन सबसे पसंदीदा वक्तव्य महाराष्ट्र के सुदूर इलाक़े के आदिवासी गांवों में अपने हक़,हौसले और संघर्ष की बात करने वाले देवाजी टोफा का रहा। वे अपने ज़मीनी दृष्टांतों और प्रयोगों के आधार पर गांवों में संविधान की समझ जगाने का काम कर रहे हैं। उनको दिल से सौ बार सलाम किया। आज हमारे इन गुमनाम महानायकों की मुल्क को बहुत आवश्यकता है। अफ़सोस ! अपनी कुछ अन्य व्यस्तताओं के चलते इस कॉन्क्लेव के चरम पर पहुंचने से पहले ही मुझे इस शिखर संवाद से लौटना पड़ा।
लेकिन पहले दिन अपने ख्याल रखने का आयोजकों ने मुझे भी अवसर दिया। मेरा विचार है कि इन दिनों पत्रकारिता की अपनी आचार संहिता समय की सख़्त ज़रूरत है। हम आज अदालती मामलों पर अपना फ़ैसला सुनाने लगे हैं, सत्ता की दलाली करने लगे हैं, मीडिया को मंडी में ले आए हैं ,सत्ता के इशारे पर नक़ली धार्मिक परिभाषाएं गढ़ने लगे हैं, ख़बरों के नाम पर ज़हरीले उत्पाद समाज को परोसने लगे हैं और व्यक्तिगत विचारधारा को पाठकों तथा दर्शकों पर थोपने लगे हैं । इससे हमारी साख़ को धक्का लगा है।
एक दिन वह भी आ सकता है ,जब हमारे खिलाफ़ समाज ही आक्रामक होकर खड़ा हो जाएगा। उस दिन शायद हम शर्म से अपना सिर नही उठा सकेंगे राजनेताओं के हाथों की कठपुतलियां बनने से हम भी काले हो गए हैं ।
दूर थे जब तक सियासत से तो हम भी साफ थे।
खान में कोयले की पहुंचे तो हम भी काले हो गए।
( यह लेखक के निजी विचार हैं )
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