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लोकसभा चुनाव में रचा गया वैश्विक षडयंत्र, वैश्विक शक्तियों ने लगाई ताकत: अनंत विजय

अमेरिकी नेतृत्व चाहता है कि दुनिया में किसी भी देश में कमजोर सरकार बने ताकि वो देश अमेरिका की मदद पाने के लिए जतन करता रहे। कूटनीतिक कदमों से लेकर रणनीतिक निर्णय लेने के पहले अमेरिका से चर्चा करे।

समाचार4मीडिया ब्यूरो 4 months ago

अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तंभकार।

लोकसभा चुनाव संपन्न होने के बाद अब पूरे देश की निगाहें संसद के आगामी सत्र पर है। अपनी आंशिक सफलता के उत्साहित विपक्ष सरकार को घेरने के लिए कमर कस चुका है। उधर मोदी के नेतृत्व में बनी सरकार अपने निर्णयों से ये आभास देने की भरपूर कोशिश कर रही है कि भले ही सरकार गठबंधन की हो लेकिन सबकुछ मोदी स्टाइल में ही हो रहा है। चुनाव संपन्न के होने के बाद से विपक्ष निरंतर नए नए मुद्दे उठाकर सरकार को घेरने का प्रयत्न कर रही है। 4 जून को चुनाव के नतीजे आए थे तब विपक्ष के किसी नेता ने ईवीएम को लेकर प्रश्न नहीं उठाए थे।

नरेन्द्र मोदी ने ही सांसदों की बैठक में व्यंग्य किया था कि बेचारी ईवीएम बच गई। मोदी के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को 240 सीटें मिली हैं। इस बात को याद रखा जाना चाहिए कि पिछले दस वर्षों में से देश में मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार चल रही थी। चुनाव संपन्न होने के बाद कुछ ऐसे बिंदु हैं जिसपर विचार किया जाना आवश्यक है।

चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने संकेत किया था कि विदेशी ताकतें चुनाव को प्रभावित करने के लिए सक्रिय हैं। तब मोदी के उस वक्तव्य पर पर्याप्त चर्चा नहीं हुई थी। अब जबकि देश में सरकार बन चुकी है, मंत्रिमंडल का गठन हो चुका है तो चुनाव के दौरान की कुछ घटनाओं और उसके पहले की पृष्ठभूमि की चर्चा करना उचित प्रतीत होता है।

देश में चुनाव के पहले अमेरिकी खरबपति जार्ज सोरोस के बयान को याद किया जाना चाहिए। 2020 में उसने मोदी को तनाशाही व्यवस्था का प्रतीक बताया था। फिर अदाणी को लेकर उसने मोदी पर हमला किया था और कहा था कि ये मुद्दा भारत में लोकतांत्रिक परुवर्तन का कारण बनेगा। इसके बाद भी कई तरह की खबरें इंटरनेट मीडिया पर प्रसारित हुईं जिसमें कहा कि जार्ज सोरोस भारत में होनेवाले लोकसभा चुनाव को प्रभावित करने का प्रयास कर रहा है। निवेश भी। अमेरिका जिस तरह की राजनीति करता है उसमें वो वैश्विक स्तर पर अपने प्रभाव और दबदबे को कायम रखने के लिए हर देश में परोक्ष रूप से दखल देता रहता है।

अमेरिकी नेतृत्व चाहता है कि दुनिया में किसी भी देश में कमजोर सरकार बने ताकि वो देश अमेरिका की मदद पाने के लिए जतन करता रहे। कूटनीतिक कदमों से लेकर रणनीतिक निर्णय लेने के पहले अमेरिका से चर्चा करे। ऐसी स्थिति में अमेरिका को अपने देश और व्यापारिक हितों की रक्षा करने में सहूलियत होती है। 2014 में मोदी सरकार के बनने और 2019 में अधिक मजबूती से वापस आने के बाद नरेन्द्र मोदी ने वैश्विक मंच पर भारत के हितों को प्राथमिकता पर रखना आरंभ कर दिया। मोदी ने भारतीय प्रवासियों की शक्ति को भी देशहित में उपयोग करना आरंभ कर दिया।

ये बातें अमेरिका को नागवार गुजरने लगीं। 2019 के सितंबर में प्रधानमंत्री मोदी ने अमेरिका के ह्यूस्टन में हाउडी मोदी नाम के एक कार्यक्रम में भाग लिया था। अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी उस कार्यक्रम में आए थे। वहां अबकी बार ट्रंप सरकार का नारा लगा था। उस नारे के बाद अमेरिकियों के कान खड़े हो गए थे। उनको लगने लगा था कि जो काम आजतक परोक्ष रूप से अमेरिका करता था वही काम भारत उनके देश में सरेआम कर रहा है। अमेरिका में प्रवासी भारतीयों की संख्या काफी अधिक है और उनमें से अधिकतर प्रधानमंत्री मोदी के समर्थक माने जाते हैं। प्रवासी भारतीय अमेरिकी चुनाव में कई सीटों पर परिणाम को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं।

वैश्विक राजनीति पर नजर रखनेवाले विशेषज्ञों का मानना है कि अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में ट्रंप की हार के बाद जब जो बिडेन राष्ट्रपति बने तो भारत की राजनीति एजेंसियों की प्राथमिकता पर आ गया। वहां की एजेंसियां कारोबारियों और स्वयंसेवी संस्थाओं के माध्यम से दूसरे देशों की गतिविधियों में निवेश करती है और अपने मनमुताबिक नैरेटिव चलाती है, काम करवाती है।

ऐसे कई अमेरिकी फाउंडेशन हैं जो शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में भारत में स्वयंसेवी संस्थाओं के माध्यम से निवेश करती रही हैं जो परोक्ष रूप से आंदोलन और नैरेटिव बनाती हैं। मोदी सरकार ने पिछले दस वर्षों के अपने कार्यकाल में ऐसे सरोगेट निवेश पर अंकुश लगाया। इस कारण कई वैश्विक संस्थाएं मोदी विरोध में आ गईं। जिस तरह के किसान आंदोलन के समय विदेशी सेलिब्रेटी इसके समर्थन में उतरीं, जिस तरह से शाहीन बाग धरने को सेलेब्रिटी के जरिए चर्चित बनाने का कार्य किया गया, उसको रेखांकित किया जाना चाहिए। अगर इस क्रोनोलाजी को देखते हैं तो एक और चीज नजर आती है कि 2019 के बाद से अमेरिकी इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म्स ने ऐसा एलगोरिथम बनाया जिसमें मोदी विरोधी नैरेटिव व्यापक स्तर पर फैल सके। ये अब भी चल रहा है।  

अब एक ऐसी दिलचस्प घटना की चर्चा कर लेते हैं जो राहुल गांधी से जुड़ी हुई है। राहुल गांधी रायबरेली से चुनाव लड़ेंगे या अमेठी से इसको लेकर कयास का दौर चल रहा था। इस बीच कांग्रेस पार्टी ने 30 अप्रैल को एक्स पर एक वीडियो लांच किया जिसमें बताया गया कि शतरंज और राजनीति में विरोधियों की चाल में भी संभावना होती है। तीन मई को दोपहर राहुल गांधी रायबरेली से नामांकन करते हैं।

तीन मई को ही एक्स पर एक व्यक्ति ने तंज करते हुए गैरी कास्परोव को टैग किया। इसपर गैरी कास्परोव ने उत्तर दिया कि पारंपरिक तरीका तो यही कहता है कि पहले आप रायबरेली से चुनाव जीतें फिर शीर्ष को चुनौती दें। उसके एक दिन बाद फिर से गैरी कास्परोव ने कोट करते हुए एक्स पर लिखा कि उनके पोस्ट को किसी की वकालत न समझा जाए लेकिन मेरे जैसे 1000 आंखों वाला शैतान, जैसा मेरे बारे में कहा जाता है, बगैर गंभीर हुए मेरे खेल में हाथ न आजमाने की सलाह देता है।

चार जून को रायबरेली का चुनाव परिणाम आया। राहुल गांधी वहां से जीते। थोड़े दिनों बाद रायबरेली से ही सांसद बने रहने की घोषणा कर दी। तीन मई की टिप्पणी के बाद से गैरी कास्परोव ने आजतक भारतीय राजनीति पर कोई टिप्पणी नहीं की। तीन मई को कैस्परोव के ट्वीट के बाद एक नैरेटिव बना कि पहले रायबरेली जीतो फिर शीर्ष को चुनौती देना। रायबरेली जीत कर शीर्ष याने मोदी को चुनौती देने का प्रयास कर रहे हैं।

चुनाव समाप्त होने के बाद राहुल गांधी ने अयोध्या में भारतीय जनता पार्टी की हार और वाराणसी में मोदी की जीत का अंतर कम होने पर एक उत्सवी बयान दिया। अयोध्या-फैजाबाद लोकसभा सीट पर भारतीय जनता पार्टी की पराजय को हिंदुत्व की पराजय के तौर पर दिखाने का प्रयास किया जा रहा है। अयोध्या की हार हिदुत्व की नहीं बल्कि स्थानीय कारकों के कारण हुई।

तमाम वैश्विक कारस्तानियों के बावजूद मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी इस चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी होकर उभरी। मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री बने। आज जब हमारे देश का लोकतंत्र मजबूत हो रहा है। संविधान बदलने का नैरेटिव चलाकर फिर से समाज को समूह में बांटने का काम किया जा रहा है। तो एक प्रश्न स्वाभाविक रूप से खड़ा होता है कि समाज को बांटकर देश को कमजोर करने में किसका हित सधेगा।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।


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