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'BHU के ये तीन पड़ाव मेरे लिए खुद के अंदर झांकने का जरिया हैं'
बीएचयू मेरे लिए जो थी, वही है-कालातीत और भावातीत। हालांकि, आपकी भावनाएं दुनिया नहीं चलातीं
समाचार4मीडिया ब्यूरो 4 years ago
बीएचयू के ‘सिंह द्वार’ से घुसते ही एक पुरानी कविता की पंक्तियां दिमाग पर हथौड़े की तरह बजने लगीं-‘कौन होगा इस शहर में अब हमें पहचानने वाला।’ संस्थान हों या संसार, यहां कोई हमेशा नहीं रह पाता। लोग आते और चले जाते हैं। आने वाले अगर बहती नाव तो गुजरे हुए लोग किनारे औंधी पड़ी किश्ती।
गहरी सांस खींचकर आगे बढ़ता हूं। जी-18, अरविंदो कालोनी हमेशा की तरह पहला मुकाम है। यह आवास पिता को आवंटित हुआ था। हमारे परिवार के लिए सर्वाधिक ‘Happening House’ यही था। यहीं से मेरी बहन अपर्णा की डोली उठी। विजया जी यहीं ब्याहकर आईं। यहीं से मैंने एम.ए. पास किया। यहीं से पहली बार यूं ही ‘आज’ अखबार के दफ्तर गया था। तब से लगभग चालीस वर्ष बीत गए| एक यात्रा है, जो निरंतर जारी है।
खैर, आगे बढ़ता हुआ प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग के सामने जा खड़ा होता हूं। कुछ छात्र-छात्राएं लॉन में बैठे हैं। कुछ अंदर बाहर आ-जा रहे हैं। इनमें से कोई मुझे नहीं जानता और न इन्हें मैं। अधिकांश तो कृति और समर्थ से भी छोटे हैं। अनायास चेहरे पर व्यंग्य भरी मुस्कान तिर जाती है। वजह? वह कविता दोबारा जेहन पर दस्तक दे चली है। अरविंदो कॉलोनी अगर घर था तो यह कॉलेज। आदमी को इंसान बनने के लिए दोनों की जरूरत पड़ती है।
अब अंतिम पड़ाव यानी काशी विश्वनाथ मंदिर। अंदर जाने के लिए जूते उतारता हूं। जूते जमा करने वाला जोर से चेताता है, ‘जल्दी जाइए, मंदिर बंद हो रहा है।’ मैं मुस्कुराता हूं। मेरे लिए इस मंदिर के दरवाजे खुले हों या बंद, फर्क नहीं पड़ता। बीएचयू के ये तीन पड़ाव मेरे लिए खुद के अंदर झांकने का जरिया हैं। मालूम नहीं G-18 अरविंदो कॉलोनी में अब कौन रहता है? एक बार कॉलेज के अंदर गया था तो वहां पुस्तकालय कर्मी ने पूछा था कि किससे मिलना है? मेरा जवाब था, ‘खुद से।’ वह हकबका गया था। उसकी व्यग्रता दूर करने के लिए मैंने कहा था कि मैं 1980 से 82 तक यहां पढ़ा हूं। उसके तेवर नरम पड़े थे पर उसका अगला वाक्य मुझे दग्ध कर गया था-‘भैया उस वक्त के तो सभी लोग मर गए।’ तब से कॉलेज के अंदर भी नहीं जाता। इसलिए मंदिर के कपाट खुले हों या बंद, क्या फर्क पड़ता है?
बीएचयू मेरे लिए जो थी, वही है-कालातीत और भावातीत। हालांकि, आपकी भावनाएं दुनिया नहीं चलातीं। मंदिर के प्रथम तल पर पहुंचा ही था कि एक सज्जन कड़क आवाज में कहते हैं- ‘नीचे चलिए मंदिर बंद हो चुका है।’ घड़ी देखी, 12 बजने में पंद्रह मिनट थे। उनसे कहता हूं कि अभी तो 15 मिनट बाकी हैं! वो डपट देते हैं, ‘ऊपर का बंद हो गया, नीचे अबहिन खुला है।‘ मन हुआ कि उन्हें नियम समझा दूं पर सामने की गायकवाड़ लायब्रेरी में पढ़ी कालिदास की युक्ति याद आ गई-‘मूढ़ के मुंह लगना उचित नहीं’।
यह सीख कुछ देर बाद जवाब दे गई। नीचे आकर जब जूते ले रहा था तो देखा एक गोरा परदेसी पूछ रहा है-‘हाउ मच’। टूटी-फूटी अंग्रेजी में जवाब मिलता है-‘एज यू विश’। यह तो सरासर डकैती है! मोटे अक्षरों में लिखा है कि एक जोड़ी जूते का एक रुपया। इस बीच उस परदेसी के सामने एक ट्रे रख दी जाती है, जिसमें अलग-अलग खानों में करीने से पचास, सौ और पांच सौ के नोट रखे हैं। मैं उनसे कहता हूं कि इनको बोलिए-टू रुपीज। जवाब मिलता है, ‘हम कउनौ मांग थोड़ेई रहे हैं? जौन उनकी इच्छा।’इस दौरान वह गोरा पांच सौ का नोट लिए असमंजस में खड़ा है। उसकी समझ कह रही थी यह ज्यादा है। सामने की ट्रे का इशारा साफ था कि पचास रुपए से कम का नोट स्वीकार्य नहीं है। मैं उसे रुकने का इशारा करता हूं।
खुद जेब से दस का नोट निकालता हूं और सफाईकर्मी के हाथ में देता हूं। वह शेष आठ रुपए लौटाने का उपक्रम किये बिना उसे जीम जाता है। उनकी बदनीयती साफ हो जाए, इसलिए दो मिनट खड़ा रहता हूं। गोरा असमंजस से मेरी ओर देख रहा है और जूता रखने वाले उसके हाथ में फंसे पांच सौ के नोट पर गिद्ध दृष्टि लगाए हुए खड़े हैं। मैं उनसे कहता हूं कि हमारे दो जोड़ी जूते के दो रुपए और इन गोरों के भी दो रुपए काटकर छह रुपए वापस कर दो। इस बीच मैं गोरे को हाथ जोड़कर विदा कर चुका हूं।
पहली बार बीएचयू से कड़वाहट लेकर लौट रहा हूं। महामना ने क्या कभी सोचा होगा कि उनका मंदिर इस तरह की धंधेबाजी का केन्द्र बन जाएगा? क्या बीएचयू वीसी इस पर गौर फरमाएंगे?
('हिन्दुस्तान' अखबार के एडिटर-इन-चीफ शशि शेखर की फेसबुक वॉल से साभार)
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