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दो नावों पर सवारी करने में माहिर थे अरुण जेटली

वह अक्सर मुझसे कहते थे कि जो लोग हर छोटी-छोटी बात पर मानवाधिकारों की दुहाई देते हुए सुप्रीम कोर्ट जाते हैं, वे अंततः देश को कमजोर कर रहे हैं

समाचार4मीडिया ब्यूरो 5 years ago

भूपेंद्र चौबे, वरिष्ठ टीवी पत्रकार

‘दिल्ली का एक ऐसा सूत्र’ जिसे लगभग हर व्यक्ति के बारे में कुछ न कुछ पता होता था। कॉरपोरेट टाइकून से लेकर पत्रकार, क्रिकेटर, कलाकार और कानूनविद तक जेटली का मिलना जुलना सभी से था। उनका दायरा इतना विस्तृत था कि आपके लिए यह पता लगाना मुश्किल हो जाता था कि आप उसमें कहाँ शामिल होते हैं।

लेकिन जैसा कि आज मैं स्टूडियो में बैठा हूं, उनकी पार्टी के साथियों और ऐसे लोगों से बात कर रहा हूं, जिनकी जिंदगी में जेटली की एक अलग ही भूमिका थी, मैं यह कह सकता हूं कि जेटली एक ऐसे राजनेता थे, जिसके पास दूसरों को विशेष महसूस कराने की अद्वितीय क्षमता थी।

आप संपादकों से लेकर जूनियर पत्रकारों तक के ट्विटर या फ़ेसबुक पोस्ट को देखकर यह अंदाज़ा लगा सकते हैं कि हर किसी के पास जेटली के बारे में कुछ न कुछ है। मेरे पास मेरा भी है, लेकिन उस पर बाद में बात करेंगे। क्या हमें जेटली को एक ऐसे उदार चेहरे के रूप में देखना चाहिए जिन्होंने रणनीति को "कठिन राष्ट्रवाद" के रूप में बदल दिया, और 2014 स के बाद राजनीतिक ज़रूरत बन गया? 

एक ऐसा व्यक्ति जो बेबाक था, फिर चाहे सत्तापक्ष में हो या विपक्ष में। भाजपा के संक्रमण काल में यह सच स्वीकारने का साहस केवल उन्हीं में था कि पार्टी अलगाव की स्थिति में इसलिए पहुंची है, क्योंकि वह दूसरे दलों को अपने साथ जोड़ने में उतनी सफल नहीं हुई, जितनी कि होना चाहिए था। जेटली हमेशा दो नावों पर सवारी करते थे, और हमेशा उसमें कामयाब भी रहे। किसी भी मुद्दे पर वह हर दृष्टिकोण से विचार करते और फिर उसके अनुरूप आगे बढ़ते। सबरीमाला विवाद पर भी उन्होंने ऐसा ही किया था। वह मानते थे कि संविधानविदों की नज़र में सुप्रीम कोर्ट पहले आता है और भगवान बाद में, लेकिन आस्था में विश्वास रखने वालों की सोच इसके विपरीत होगी। आमतौर पर कहा जाता है कि दो नावों की सवारी नहीं करनी चाहिए, लेकिन जेटली ने कभी इन ‘आम’ बातों पर गौर नहीं किया। बल्कि उन्होंने यह सिद्ध किया कि दो नावों की सवारी, निरंतर विकसित होने और अपने आप को पुन: उत्पन्न करने के लिए एक अद्वितीय राजनीतिक गुण है।  

वह अक्सर मुझसे कहते थे कि जो लोग हर छोटी-छोटी बात पर मानवाधिकारों की दुहाई देते हुए सुप्रीम कोर्ट जाते हैं, वे अंततः देश को कमजोर कर रहे हैं। लेकिन यह तब था जब वह सत्ता में थे। जबकि विपक्ष में रहने के दौरान उन्होंने 2012 -13 में जंतर-मंतर जाने से पहले एक बार भी नहीं सोचा, ये वो दौर था जब अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी धर्मयुद्ध अपने चरम पर था। अरविंद केजरीवाल बाद में उनके प्रतिद्वंद्वी बन गए, लेकिन जेटली को उस वक़्त सत्ताविरोधी आवाजों से सुर मिलाने में कुछ गलत नहीं लगा।

मुझे लगता है कि राजनीतिक बातों से इतर, भोजन के प्रति जेटली के प्रेम को रेखांकित किए बिना उन्हें दी जाने वाली हर श्रद्धांजलि अधूरी होगी। जैसा कि अभिषेक मनु सिंघवी ने मुझसे ‘सीएनएन न्यूज 18’ पर बात करते हुए कहा, ‘अरुण जेटली के जीवन में खाने-पीने से जुड़े कई रोचक किस्से थे।’ ‘एम्बेसी रेस्टोरेंट’ उनका पसंदीदा रेस्टोरेंट था। जहां वह अक्सर मटन रारा या दाल का लुत्फ़ उठाते। छोले भटूरे उन्हें बेहद पसंद थे, इतना ही नहीं वह आपको ये भी बता सकते थे कि दिल्ली में सबसे अच्छा कीमा कहां मिलता है।

जेटली के साथ बात करने का अपना अलग ही रोमांच होता था, फिर चाहे विषय कोई भी हो। मैं अक्सर मजाकिया अंदाज़ में उनसे कहा करता था कि यदि वह राजनीतिज्ञ नहीं होते तो एक उत्कृष्ट संपादक बनते। मीडिया के साथ उनके समीकरणों को लेकर आलोचक उन्हें निशाना भी बनाते रहते थे। उन्हें ‘मीडिया ब्यूरो चीफ’ कहा जाता था, लेकिन जेटली इससे बिल्कुल भी विचलित नहीं होते, बल्कि उन्हें अपने इस नए नाम पर गर्व होता था।

एक ही समय में विविध क्षेत्रों से जुड़ने की अपनी क्षमता के चलते अरुण जेटली ने एक ऐसा स्थान हासिल कर लिया था, जिस तक पहुंचना किसी भी समकालीन राजनीतिज्ञ के लिए मुश्किल है। उन्होंने अपने जीवन में भले ही कोई लोकसभा चुनाव नहीं जीता, लेकिन यह सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई कि उनके पार्टी के उम्मीदवार बार-बार चुनकर आते रहें। उनके निधन से भाजपा ने अपने सबसे अच्छे रणनीतिकार और भारतीय राजनीति के चाणक्य को खो दिया है।
 


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