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जब नौकरी जाने पर अरुण जी ने किया था मुझे फोन, की ऐसे मदद
मैं अरुण जी को जानता तो था पर उस दौरान कई साल से उनसे भेंट नहीं हुई थी
समाचार4मीडिया ब्यूरो 5 years ago
मैंने सुनहरी बाग रोड की तरफ अपनी कार मोड़ी ही थी कि अचानक मेरे मोबाइल की घंटी बजी और दूसरी ओर से आवाज आई कि माननीय सूचना और प्रसारण मंत्री श्री अरुण जेटली बात करेंगे। कुछ हैरान-कुछ आल्हादित, मैं थोड़ा सकपकाया। इसके बाद सुनहरी मस्जिद रोड के बगल में ही अपनी कार लगाई। जब आप बेरोजगार पत्रकार हों और अचानक केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री का फोन आपके मोबाइल पर आ जाये तो आदमी यूं भी हड़बड़ा जाता ही है। कुछ देर में ही दूसरी ओर से अरुण जी की संयत सी आवाज, आई ‘कैसे हो उमेश?’
1999 के चुनाव के तुरंत बाद मेरी नौकरी चली गयी थी। चैनल के मालिक ने अनाप शनाप आरोप लगाकर मुझे नौकरी से हटाया था। घर में अगले महीने के राशन तक के पैसे नहीं थे। संयोग हुआ कि अरुण जेटली सूचना और प्रसारण मंत्री बन गए। मैं अरुण जी को जानता तो था पर कई साल से उनसे भेंट भी नहीं हुई थी। उन्होंने फोन पर हालचाल पूछा और कहा- चैनल के मालिक मुझे गुलदस्ता भेंट करने आये थे तो मैंने उनसे एक ही बात पूछी थी, ‘उमेश के काम से आपको कोई तकलीफ थी क्या?’
यहां ये याद रखने की बात है कि इस बारे में अरुण जी से मेरी कोई बात नहीं हुई थी। मैं तो उनसे मिला तक नहीं था। नेताओं से मिलने में हमेशा मेरा स्वभावगत संकोच रहा है। कॉलेज के दिनों से उनसे मेरी पहचान थी तो थी पर मेरी नौकरी जाने के बारे में उनसे कोई बात नहीं हुई थी। अरुण जी पत्रकारों की खोज खबर रखते थे और किसी और से उन्हें पता चला था कि मेरी नौकरी चली गयी है।
अरुण जी ने फोन पर ही मुझसे नौकरी कैसे गयी,इसकी जानकारी ली और फिर मिलने को कहकर फोन रख दिया। खैर, उसी शाम को चैनल मालिक का फोन आया, मुझे बुलाया और पहले से भी बड़े ओहदे और तनख्वाह पर नौकरी का प्रस्ताव दिया। मैंने इनकार कर दिया कि मैं उनके साथ काम करना ही नहीं चाहता। दरअसल मैं उनके व्यवहार से बेहद क्षुब्ध हो चुका था। कुछ महीने और बीत गए। घर की परेशानियां बढ़ चुकीं थीं। काम धंधा था नहीं। छोटे-मोटे ट्रांसलेशन के काम से पूरे घर का खर्च कैसे चलता?
अचानक एक दिन फिर अरुण जी का फोन आया। ‘अरे भाई कैसे हो तुम? क्या कर रहे हो?’ उस दिन अरुण जी ने मुझे कुछ प्यार भरा उलाहना भी दिया था-‘बड़े अजीब हो तुम? इधर आये भी नहीं?’
ऐसा लगा जैसे कोई कृष्ण सुदामा से कह रहा हो, ‘तुम आये इतै, न कितै दिन खोये।‘ मैंने कहा, ‘जी, मैं आपके पास आता हूं।’ अरुण जी ने फिर कहा, ‘ठीक है, आ जाना पर अभी तुम दूरदर्शन चले जाओ। वहां जाकर कार्यक्रम बनाने का प्रस्ताव दो और काम करो।’
मेरे संकोची स्वभाव को अच्छी तरह जानने वाले अरुण जी ने मुझसे जोर देकर कहा-‘और हां, मुझे बताना जरूर कि क्या हुआ?’ जेठ के तपते रेगिस्तान में प्यासे कंठ में जीवनदायी अमृत बूंदों की तरह था अरुण जी का ये फोन। मैं तुरंत दूरदर्शन गया और वहां मेरी एक करेंट अफेयर्स सीरीज-'दरससल' कुछ ही दिनों में मंजूर हुई। मैं अपने पैरों पर फिर खड़ा हो सका।
मेरे उस घोर निराशा, विपन्नता और अभाव के कालखंड में बस दो लोगों ने बिन कहे-बिन पूछे मदद का हाथ बढ़ाया। एक थे अरुण जेटली और दूसरे थे उनके परम मित्र रजत शर्मा। मेरे पूरे जीवन काल में किसी राजनेता द्वारा मदद का बस अरुण जी ही एकमात्र उदाहरण हैं। मदद भी कैसी? बिन कहे, बिन मांगे, बिन किसी अपेक्षा और बिन किसी अहसान के।
अरुण जी यों भी मेरे लिए राजनेता कम और बड़े भाई की तरह ज्यादा थे। उसके बाद उनसे मुलाकातें होती रहीं। गपशप ही हुई, जब भी मैंने उनसे उस अहसान का जिक्र करना चाहा तो उन्होंने उसे बातों में उड़ा भर दिया। उनसे कई मुलाकातें हैं, जो स्मृतिपटल पर हमेशा अंकित रहेंगी।
डूसू अध्यक्ष से लेकर देश के वित्तमंत्री का ओहदा उन्होंने बखूबी निभाया। उनके स्वभाव और व्यवहार को लेकर लोग कई बातें भी करते रहे हैं। पर जिस तरह से उन्होंने मेरी मदद की, वह बताता है कि अरुण जेटली किस मिट्टी के बने थे। छोटों का जरूरत के समय ध्यान रखने वाले, हमदर्द और खैरख्वाह।
ये उनके जाने का समय नहीं था। उन्हें अभी इस देश और समाज के लिए बहुत करना था। आप बहुत याद आएंगे अरुण जी !!
(वरिष्ठ पत्रकार उमेश उपाध्याय की फेसबुक वॉल से)
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