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इस तरह की आजादी ही असल जम्हूरियत की निशानी है, यह बात ध्यान में रखने की है मिस्टर मीडिया!
हिन्दुस्तान के पड़ोस से आ रहीं मीडिया से जुड़ी खबरें डराने वाली हैं। खास तौर पर पाकिस्तान और चीन में निष्पक्ष पत्रकारिता करना खतरे से खाली नहीं है।
राजेश बादल 3 years ago
राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार।।
हिन्दुस्तान के पड़ोस से आ रहीं मीडिया से जुड़ी खबरें डराने वाली हैं। खास तौर पर पाकिस्तान और चीन में निष्पक्ष पत्रकारिता करना खतरे से खाली नहीं है। इसलिए इस बार मिस्टर मीडिया में परदेसी पत्रकारिता के हाल और उससे देसी पत्रकारिता पर उमड़ते-घुमड़ते चिंता के बादलों के बारे में चर्चा। पहले संसार के सबसे ज्यादा आबादी वाले मुल्क चीन की चर्चा। वहां हॉन्गकॉन्ग के समाचारपत्र ‘एप्पल डेली’ पर चीनी सत्ता ने राजद्रोह का आरोप लगाया है। उसके प्रधान संपादक तथा चार अन्य आला अफसरों को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया।
अखबार की 17 करोड़ की संपत्ति भी जब्त कर ली गई। ‘एप्पल डेली‘ को निष्पक्ष और लोकतंत्र समर्थक माना जाता है। पिछले बरस हॉन्गकॉन्ग में लोकतंत्र के समर्थन में जो आंदोलन हुए थे, उसके बाद से यह पहली बड़ी कार्रवाई है। सरकारी चेतावनी है कि जो पत्रकार लोकतंत्र के समर्थन में लिखेगा, उसे राष्ट्रीय सुरक्षा कानून का उल्लंघन माना जाएगा। अच्छी बात यह है कि अखबार इसके आगे झुका नहीं। उसने विरोध में अगले दिन पांच लाख प्रतियां छापीं। दिन भर लोग कतार में लगकर इस अंक को खरीदते रहे। आमतौर पर यह समाचार पत्र 80 हजार प्रतियां प्रकाशित करता है।
अब पाकिस्तान की बात। ताजा आंकड़ों के मुताबिक, बीते साल में करीब डेढ़ सौ पत्रकारों के साथ मारपीट, हत्या, अपहरण या अन्य उत्पीड़न की वारदात हुईं। हाल ही में राजधानी इस्लामाबाद में पाकिस्तान इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के चेयरमैन अबसार आलम को गोली मार दी गई। इस्लामाबाद में ही एक और लोकप्रिय पत्रकार असद अली तूर के घर में हमलावर घुसे। उनके साथ हाथ-पैर बांधकर देर तक मारपीट की और फौज की तारीफ में नारे लगवाए। जाहिर है कि असद अली सेना के आलोचक थे। अबसार आलम ने भी फौज और आईएसआई की आलोचना की थी।
इससे पहले देश के बेहद सम्मानित एंकर हामिद मीर ने लोकतंत्र पर फौजी दख़ल की निंदा की तो टीवी पर उनका चर्चित शो ही बंद कर दिया गया। समाचार पत्रों में उनके लिखने पर पाबंदी लगा दी गई। हामिद ने पाकिस्तान में पत्रकारों पर सेना के अत्याचारों का विरोध किया था और चेतावनी दी थी कि भले ही पत्रकार फौज की तरह मारपीट और हत्या नहीं कर सकते, लेकिन उनके पास सैनिक तानाशाही के खिलाफ सुबूत हैं। वे कभी भी अवाम के सामने रखे जा सकते हैं। इसी के बाद उन्हें सताया जाने लगा। उत्पीड़न यहां तक बढ़ा कि हामिद मीर को माफी मांगनी पड़ी। एक उदाहरण अजय लालवानी का है। वे सिंध के जुझारू पत्रकार थे। अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा के लिए लिखते थे। उनकी दिनदहाड़े गोली मारकर हत्या कर दी गई। सिंध के सारे पत्रकार इस मामले में एकजुट हो गए, मगर नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनता है?
पास-पड़ोस में अभिव्यक्ति की आजादी पर आक्रमण हिन्दुस्तान के लिए शुभ संकेत नहीं हैं। जब-जब पत्रकारिता का निष्पक्ष सुर दबाने अथवा असहमति को कुचलने का प्रयास किया जाता है तो राष्ट्र के हित में नहीं होता। सरकार में बैठे नियंताओं के लिए यह सबक है कि स्वस्थ पत्रकारिता पर दबाव डालकर वे अपने देश का नुकसान तो करते ही हैं, निजी खामियाजा भी उन्हें भुगतना होता है। इंदिरा गांधी ने आपातकाल में प्रेस सेंसरशिप लगाईं थी। अब वे इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनके फैसले का ‘प्रेत’ अभी भी देश में जिंदा है। मूक मवेशियों और इंसानों के बीच यही फर्क है कि इंसान अपने सोच को स्वर दे सकता है- ताला लगा के आप हमारी जबान को/कैदी न रख सकेंगे जेहन की उड़ान को/
सोचने-विचार करने और उन्हें प्रकट करने की आजादी ही असल जम्हूरियत की निशानी है। यह बात ध्यान में रखने की है मिस्टर मीडिया!
(यह लेखक के निजी विचार हैं)
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