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अरुण जेटली की यही खूबी उन्हें खास बनाती थी

अपनी पीढ़ी के नेताओं को बहुत पीछे छोड़ दिया था अरुण जेटली ने, अब उनके निधन से पुरानी और नई भाजपा के बीच का पुल टूट गया

समाचार4मीडिया ब्यूरो 5 years ago

विनोद अग्निहोत्री, कंसल्टिंग एडिटर, अमर उजाला।।

पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली भले ही लोकसभा का सिर्फ एक ही चुनाव लड़े और वो भी हार गए, तब जबकि पूरे देश में मोदी लहर थी, लेकिन राजनीति की पिच पर जेटली ने अपनी पीढ़ी के सभी नेताओं को बहुत पीछे छोड़ दिया। जेटली भाजपा में एक ऐसे शीर्ष नेता थे, जिन्हें भले ही अटल बिहारी वाजपेयी या नरेंद्र मोदी की तरह करिश्माई जन नेता न माना जाता रहा हो, लेकिन अपनी पार्टी के हर स्तर के कार्यकर्ताओं से उनका संपर्क और संवाद इतना सशक्त और जीवंत था कि आज अरुण जेटली के असमय चले जाने से भाजपा का हर कार्यकर्ता ऐसा महसूस कर रहा है कि मानो कोई उसका अपना चला गया हो। पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण हर राज्य में पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच अरुण जेटली की लोकप्रियता अपने समकक्ष नेताओं में सबसे ज्यादा थी।

जेटली उस युवा पीढ़ी के नेता थे, जिसका राजनीतिक शिक्षण प्रशिक्षण विश्वविद्यालयों की छात्र राजनीति में हुआ। जिससे निकलकर सत्तर-अस्सी के दशक में अनेक युवा छात्र नेताओं ने देश की राजनीति में आजादी के बाद के सबसे बड़े आंदोलन की इबारत लिखी थी। जेटली के असमय चले जाने से उस तत्कालीन युवा पीढ़ी की एक बड़ी कड़ी और टूट गई, जिसने राजनीति से संन्यास ले चुके बूढ़े जय प्रकाश नारायण के आह्वान पर उन इंदिरा गांधी की सर्वशक्तिमान सत्ता को चुनौती दी थी, जिन्हें 1971 में भारत पाकिस्तान युद्ध में जीत के बाद विपक्ष के दिग्गज नेताओं ने भी अपराजेय और भारतीय राजनीति की दुर्गा मान लिया था।

अरुण जेटली जब 1974 में दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष चुने गए, तब वह विद्यार्थी परिषद में थे और दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति में कांग्रेस के छात्र संगठन की तूती बोलती थी, लेकिन अरुण के करिश्माई चेहरे ने यहां भाजपा के छात्र संगठन विद्यार्थी परिषद का झंडा गाड़ दिया,इसीलिए आज तक दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के पूर्व अध्यक्षों में सबसे ज्यादा अगर किसी को याद किया जाता है तो अरुण जेटली को ही। यह भी सियासी बिडंबना है कि न जाने कितने भाजपा नेताओं-कार्यकर्ताओं को विधायक और सांसद बनवाने वाले जेटली छात्र संघ चुनाव के बाद सिर्फ एक सीधा चुनाव लड़े। 2014 में अमृतसर लोकसभा टिकट से पार्टी ने उन्हें उतारा, लेकिन पूरे देश में चल रही मोदी लहर के बावजूद कांग्रेस के कैप्टन अमरिंदर सिंह के हाथों उन्हें हारना पड़ा।

अरुण जेटली ने जब छात्र राजनीति में प्रवेश किया तब और उसके पहले देश और विशेषकर उत्तर भारत की छात्र राजनीति में समाजवादी युवजन सभा और कहीं कहीं सीपीआई व सीपीएम के छात्र संगठन एआईएसएफ और एसएफआई का दबदबा था। जयपुर से लेकर मेरठ, अलीगढ़, आगरा, कानपुर, लखनऊ, फैजाबाद, इलाहाबाद, बनारस, गोरखपुर, पटना तक ज्यादातर विश्वविद्यालयों के छात्रसंघों पर समाजवादी विचारधारा के छात्र एवं युवा संगठन समाजवादी युवजन सभा का कब्जा था। मेरठ विश्वविद्यालय में छात्र राजनीति में सत्यपाल मलिक का दबदबा था, तो आगरा में उदयन शर्मा, कानपुर में रघुनाथ सिंह, प्रेम कुमार त्रिपाठी, इलाहाबाद में जगदीश दीक्षित, गोरखपुर में रवींद्र प्रताप सिंह, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में देवव्रत मजूमदार, पटना में शिवानंद तिवारी, लखनऊ में आलोक भारती और अलीगढ़ में मोहम्मद अदीब,जैसे छात्र नेता शिखर पर थे। उन दिनों आमतौर पर बीएचयू, एएमयू, इलाहाबाद, लखनऊ और पटना विश्वविद्यालयों को उत्तर भारत की छात्र राजनीति का गढ़ माना जाता था और बीएचयू छात्र संघ के अध्यक्ष का कद अन्य छात्र संघों के नेताओं की तुलना में ज्यादा बड़ा माना जाता था। हालांकि, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उसे चुनौती मिलती रहती थी।

1974 में जब छात्रों का बिहार आंदोलन शुरु हुआ, तब दिल्ली विश्वविद्यालय में अरुण जेटली छात्र संघ अध्यक्ष थे, जेएनयू में आनंद कुमार जो बीएचयू छात्र संघ के भी अध्यक्ष रह चुके थे, छात्र संघ की कमान संभाल रहे थे और बीएचयू में मोहन प्रकाश छात्र संघ अध्यक्ष थे, जबकि लालू प्रसाद यादव पटना विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष थे और कानपुर में प्रेम कुमार त्रिपाठी, रामकृष्ण अवस्थी, शिवकुमार बेरिया छात्र राजनीति की कमान संभाले हुए थे। इसी दौर की छात्र राजनीति से देश की मुख्य राजनीति में आए अन्य बड़े नामों में प्रकाश करात, सीताराम येचुरी, नीतीश कुमार, अतुल कुमार अंजान, आरिफ मोहम्मद खान, रामविलास पासवान आदि शामिल हैं। जबकि जबलपुर विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष रह चुके शरद यादव 1974 का उपचुनाव जीतकर लोकसभा में पहुंचे थे।

इनमें से ज्यादातर नेता जेपी आंदोलन में शामिल हुए और पूरे उत्तर भारत में इंदिरा सरकार के खिलाफ छात्रों और युवाओं को आंदोलित करने में उनकी अहम भूमिका थी। इन्हें आपातकाल में गिरफ्तार करके जेल भी भेजा गया। फिर 1977 से सबने अपनी अपनी राह पकड़ी। जहां जेटली जनसंघ से जनता पार्टी और भाजपा की राजनीति में शिखर तक पहुंचे, वहीं सत्यपाल मलिक, शरद यादव, लालू यादव, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान, मोहन प्रकाश गैर कांग्रेस, गैर भाजपा राजनीति के तमाम ठिकानों पर रहते हुए इन दिनों अलग-अलग ठिकानों पर हैं। सत्यपाल मलिक भाजपा में आए और जम्मू कश्मीर के राज्यपाल हैं। शरद यादव लंबी राजनीतिक पारी खेल चुके हैं। लालू प्रसाद यादव बिहार के मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री होते हुए जेल में हैं। मोहन प्रकाश कांग्रेस में हैं और आरिफ मोहम्मद खान सक्रिय राजनीति से दूर सामाजिक कार्यकर्ता की भूमिका में हैं। प्रकाश करात और सीताराम येचुरी माकपा के शीर्ष नेतृत्व में हैं। आनंद कुमार जेएनयू के प्रोफेसर रहे और कुछ दिनों तक आम आदमी पार्टी में भी सक्रिय रहे। रामविलास पासवान भाजपा के साथ केंद्रीय मंत्री हैं तो नीतीश कुमार बिहार में भाजपा के साथ साझा सरकार चला रहे हैं। शिवानंद तिवारी, मोहम्मद अदीब अब सिर्फ पूर्व सांसद हैं, वहीं दादा देवव्रत मजूमदार स्वर्गवासी हैं और चंचल कुमार सिंह अपने गांव में हैं।

कुल मिलाकर 1965 से 1975 के दशक के तमाम छात्र नेताओं में अरुण जेटली एक ऐसे नेता रहे, जिन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। जेटली ने अपनी विचारधारा और संगठन में अपना महत्व लगातार बढ़ाया और देश की राजनीति में शीर्ष पर पहुंचे। उनकी यही पृष्ठभूमि भाजपा में उन्हें खास बनाती थी। वह दिल्ली के सत्ता गलियारों और पेज थ्री वर्ग के बीच भी खप जाते थे तो दूसरी तरफ बिहार, उत्तर प्रदेश के खांटी भाजपा कार्यकर्ताओं की भी सुनते थे। जेपी आंदोलन की पृष्ठभूमि उन्हें गैर भाजपा दलों के नेताओं के साथ भी अच्छे निजी रिश्ते बनाने में काम आती थी, तो वकालत के पेशे ने उन्हें कानून की दुनिया में दिग्गज बनाया। अच्छी अंग्रेजी, हिंदी में समान अधिकार और अपनी बात को तार्किक तरीके से समझाने की उनकी शैली विपक्षियों को भी चित कर देती थी और इससे कई बार वह राजनीतिक विमर्श की दिशा बदल देते थे। 2004 और 2009 की लगातार पराजय से त्रस्त भाजपा के मनोबल को अगर जिन नेताओं ने गिरने नहीं दिया और तत्कालीन सत्ता पक्ष को लगातार घेरा, उनमें एक जेटली थे तो दूसरीं सुषमा स्वराज। यह दुर्योग है कि महज इसी अगस्त महीने में दोनों चिरनिद्रा में सो गए।

जेटली की राजनीतिक खुलेपन की पृष्ठभूमि भाजपा के तब बेहद काम आई, जब बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद देश की राजनीति में भाजपा लगभग अछूत हो गई थी। तब भाजपा के शीर्ष नेतृत्व अटल-आडवाणी-जोशी ने जेटली के युवा राजनीति के संपर्कों का पार्टी के लिए इस्तेमाल किया और वाजपेयी के एनडीए से लेकर मौजूदा मोदी के एनडीए के गठन और संचालन में अरुण जेटली की अति महत्वपूर्ण भूमिक रही। इसलिए उनके निधन से देश की राजनीति में साझा सरकारों के एक प्रमुख शिल्पकार की गैरमौजूदगी लंबे समय तक खलती रहेगी और भाजपा में भी आसानी से अरुण जेटली का विकल्प मिलता दिखता नहीं है।

(यह लेखक के निजी विचार हैं)


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