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मिस्टर मीडिया: अब तो हमारे मीडिया महारथियों को भी लाज नहीं आती
पाकिस्तान को तो हम 1992 से हराते आए हैं, आगे भी हराते रहेंगे
राजेश बादल 5 years ago
राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार।।
हम इन दिनों मीडिया का एक क्रूर, असंवेदनशील और खौफनाक चेहरा पेश कर रहे हैं। यह हिंदुस्तान की पाकिस्तान पर क्रिकेट विजय का जश्न मनाता है और आम अवाम बिहार के नौनिहालों की अकाल मौतों के मातम में डूबी है। बिहार का अमानवीय स्वास्थ्य मंत्री जीत पर मुबारकबाद देता है तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार उसकी बलैयां लेते हैं। एक-एक बच्चे की हत्या बिहार की हुकूमत के लिए सार्वजनिक शोक का भी सबब नहीं बनती। बिहार के इस प्रादेशिक शोक का असर दूसरे राज्यों तथा मीडिया में कितना दिखाई देता है? हम यह कैसे पथरीले समाज की रचना कर रहे हैं? अजीत अंजुम की अन्वेषणात्मक ख़बरें छोड़ दें तो किस चैनल ने बेहद संजीदगी और गहराई से इस मसले की पड़ताल की?
सत्ता प्रतिष्ठान भले ही रागरंग में डूबे रहें, मगर मीडिया पर आनंद की इन नशीली हवाओं का असर क्यों होना चाहिए? अपनी मौत की भविष्यवाणी करने वाले पंडित कुंजीलाल का ड्रामा दिखाने के लिए मीलों दूर अपनी ओबी वैन और कैमरा टीमें दौड़ाने वाले कितने चैनलों ने बिहार की इस भयावह त्रासदी पर गंभीरता से कवरेज़ की? उसके कारणों की तीखी और पैनी पड़ताल की। अखबारों के पन्नों पर कितनी जगह मिली? सरकारी रेडियो एक-एक सांसद की शपथ का आंखों देखा हाल सुनाता रहा, पर घरों के चिराग बुझने से हुए अँधेरे पर किस प्रसारण में पर्याप्त जगह मिली? मीडिया का यह कौन सा जिम्मेदारी भरा रूप है? पाकिस्तान को तो हम 1992 से हराते आए हैं। आगे भी हराते रहेंगे। उसे सातवीं बार भी शिकस्त दे दी तो ऐसा उन्माद कितना जायज है? अब तो हमारे मीडिया महारथियों को भी लाज नहीं आती। घंटों तक परदे पर गाल बजाने वाले स्वनाम धन्य एंकर सरोकारों के साथ पत्रकारिता कब सीखेंगे?
क्या पत्रकार याद करेंगे कि इस देश ने एक दौर ऐसा भी देखा था, जब भागलपुर के आँख फोड़ कांड पर कवरेज से सत्ता हिल गई थी। क्या पत्रकार याद करेंगे कि कभी सिलिकोसिस से तिल तिलकर मरने वाले भी पत्रकारिता के जरिए सरकार का सिरदर्द बन जाते थे। क्या पत्रकार याद करेंगे कि छत्तीसगढ़ के रिवई पंडों की भूख से मौत की खबरों ने प्रशासन को कठघरे में खड़ा किया था। क्या पत्रकार याद करेंगे कि कभी कालाहांडी की बदहाली भी कवरस्टोरी बनती थी। क्या पत्रकार याद करेंगे कि कभी बुंदेलखंड के अपहरण भी आमुख कथा का विषय होते थे। क्या पत्रकार याद करेंगे कि देश की इकलौती ध्रुपद गायिका असगरीबाई के बीड़ी बनाकर गुजारा करने की खबरों के छपने पर उन्हें पद्मश्री से विभूषित किया गया था।
क्या पत्रकार याद करेंगे कि कभी राजस्थान में बाल विवाह को मानने के लिए बेटी को मजबूर करने पर मंत्री को पद छोड़ना पड़ा था, क्योंकि मीडिया ने उसे प्रमुखता दी थी। क्या पत्रकार याद करेंगे कि दिवराला के सती कांड के बाद मीडिया के ग़ुस्से ने ही सती निरोधक नए कानून के लिए सरकार को मजबूर कर दिया था। आखिर कितनी घटनाएँ याद दिलाऊँ? क्या अचानक हिंदुस्तान में राम राज्य आ गया है? क्या अचानक हमारे सारे दुःख हवा हो गए हैं? क्या अब भारतीय समाज से सारी विसंगतियाँ, विद्रूपताएँ, असमानता, अत्याचार और व्यवस्था को निशाने पर लेने वाले मुद्दे दूर कहीं यूरोप या अमेरिका में जाकर बैठ गए हैं?
सरोकारों से मुँह मोड़ना मीडिया को बहुत महंगा पड़ेगा। एक ऐसे रोबोटिक पत्रकार की रचना करना कितना जायज होगा, जो सिर्फ़ अप मार्केट खबरों से रिश्ता रखता हो। आज की तथाकथित 'डाउन मार्केट' हिंदुस्तानी खबरें यानी आंचलिक खबरें उसे उद्वेलित न करती हों। व्यवस्था की आलोचना करने वाला भाव कहीं दम तोड़ चुका हो तो यकीन मानिए देश से लोकतंत्र को बिखरते देर नहीं लगेगी। इसे गहराई से समझिए मिस्टर मीडिया!
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