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भारतीय विदेश नीति के लिए परीक्षा की घड़ी: राजेश बादल

अलबत्ता भारत डोनाल्ड ट्रम्प के कार्यकाल में अमेरिका से मधुर रिश्तों के भ्रम में रहा। पर, अब सही वक्त पर रूस के साथ आकर अपने भविष्य के संबंधों की नई बुनियाद रखी है। 

समाचार4मीडिया ब्यूरो 2 years ago

राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार ।।

विदेश नीति का निर्धारण करते समय अक्सर धर्मसंकट की स्थिति बन जाती है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-अलग कालखंड में देशों की प्राथमिकताएं भी बदलती रही हैं। किसी जमाने में उनमें नैतिक और मानवीय मूल्यों की प्रधानता हुआ करती थी, तो किसी समय कूटनीतिक और रणनीतिक हितों का जोर रहा। एक वक्त ऐसा भी आया, जब दो देश आपसी फायदे के लिए भी विदेश नीति में तब्दीली करने लगे। 

मौजूदा दौर कारोबारी और आर्थिक उद्देश्यों को ध्यान में रखकर विदेश नीति की रचना करने का है। ऐसे में तमाम अन्य सियासी सिद्धांतों की उपेक्षा हो जाती है। इस नजरिये से लंबे समय तक गुटनिरपेक्षता की भारतीय नीति सबसे अधिक उपयोगी मानी जाती रही। जब-जब भी हिन्दुस्तान इस नीति से विचलित हुआ, उसे अंतरराष्ट्रीय संबंधों में गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। 

पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को इस दृष्टिकोण से भारत के लिए सर्वाधिक कामयाब विदेश नीति देने का श्रेय दिया जा सकता है। पर यह भी हकीकत है कि तटस्थ रहने पर दूसरे देश आपके साथ खड़े नहीं होते। यह आज के विदेश नीति निर्धारकों की दुविधा का एक कारण है।

इन दिनों सारे संसार की निगाहें रूस और यूक्रेन के बीच जंग पर लगी हैं। सैनिक क्षमता में रूस यूक्रेन से कई गुना ताकतवर है और जब भी यह जंग समाप्त होगी, अनेक दशकों तक यूक्रेन को गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। नुकसान तो रूस को भी कम नहीं हो रहा है, मगर विशाल देश और अर्थव्यवस्था होने के कारण यूक्रेन की तुलना में वह जल्द सामान्य हालत में पहुंच सकता है। 

यूक्रेन को पुनर्निर्माण में लंबा वक्त लगेगा। तो सवाल यह है कि करीब तिहत्तर साल तक एक ही देश के दो राज्य रहे यह दो मुल्क दुश्मन क्यों बने? एक समय तो ऐसा भी था, जब उन्हें जुड़वां देश ही समझा जाता था और रूस भी छोटे भाई की तरह यूक्रेन की सहायता करता रहा।

दरअसल, कई बार छोटे देश अपने प्रति इस सदाशयता के पीछे छिपी भावना नहीं समझ पाते। वे उसे बड़े देश का कर्तव्य समझने की भूल कर बैठते हैं। कोई बड़ा देश आखिर कब तक छोटे राष्ट्र की भूलों को माफ करेगा। सात-आठ साल से यूक्रेन में अमेरिका और उसके सहयोगी यूक्रेन को रूस के खिलाफ भड़का रहे थे। वे चाहते थे कि रूस का यह पड़ोसी नाटो खेमे में शामिल हो जाए। 

इसके पीछे अमेरिकी मंशा थी कि वह रूसी सरहद के समीप सेनाओं की तैनाती करने में सफल हो जाए। इसके अलावा वह यूक्रेन में अपना सैनिक अड्डा भी स्थापित करना चाहता था। कोई भी संप्रभु देश इसे कैसे स्वीकार कर सकता था। हद तो तब हो गई, जब अमेरिका और उनके सहयोगी राजनीति में नौसिखिये एक कॉमेडियन यानी विदूषक को देश का राष्ट्रपति बनाने में सफल हो गए। जैसे ही कॉमेडियन वोलोदिमीर जेलेंस्की राष्ट्रपति बने, तो इन देशों ने यूक्रेन के संविधान में बदलाव कराकर नाटो देशों से जुड़ने का रास्ता साफ कर दिया।

इससे रूस की नाराजगी स्वाभाविक थी। इसके बाद भी उसने यूक्रेन को समझाने के प्रयास जारी रखे, पर कॉमेडियन राष्ट्रपति उसे उत्तेजित करने वाली भाषा बोलते रहे। वे लगातार रूस के साथ रिश्तों में आग लगाते रहे और अमेरिका तथा उसके सहयोगी इस आग में घी डालते रहे। मान लीजिए नेपाल, चीन के साथ सैनिक समझौता कर ले और भारत के हितों के खिलाफ काम करता रहे, तो भारत क्या करेगा? कब तक वह कहता रहेगा कि भारत और नेपाल की संस्कृति और आस्थाएं एक हैं, इसलिए नेपाल ऐसा न करे।

पाकिस्तान लगातार चीन के साथ पींगें बढ़ा रहा है। चीन ने वहां ग्वादर बंदरगाह बनाकर और श्रीलंका में हंबनटोटा बंदरगाह अपने हाथ में लेकर भारत की मुश्किलें बढ़ाई हैं। ऐसे में यदि भारत अपनी सख्ती और ताकत का प्रदर्शन न करे तो क्या करे। रूस ने वही किया, जो एक संप्रभु देश को आत्मरक्षा में करना चाहिए था। भारत कभी ऐसा नहीं कर सका। इस कारण कई पड़ोसी मोर्चो पर हमारे लिए परेशानियां खड़ी हो चुकी हैं।

इस जंग में भारत की तटस्थता और दुविधा को भी कहीं भारतीय विदेश नीति की कमजोरी न समझ लिया जाए, इसलिए यूक्रेन के उस पक्ष को भी उजागर करना आवश्यक था, जो भारत जैसे किसी भी लोकतांत्रिक देश को पसंद नहीं आता।

बेशक रूस के राष्ट्रपति पुतिन एक अधिनायकवादी प्रवृत्ति के राजनेता हैं, पर यह भी सच है कि रूस ही एक ऐसा देश है जिसने भारत के साथ मित्रता और सहयोग बनाए रखा है। संकट के समय वह हिन्दुस्तान के साथ मजबूत चट्टान की तरह खड़ा रहा है। अलबत्ता भारत डोनाल्ड ट्रम्प के कार्यकाल में अमेरिका से मधुर रिश्तों के भ्रम में रहा। पर, अब सही वक्त पर रूस के साथ आकर अपने भविष्य के संबंधों की नई बुनियाद रखी है। 

भारत के साथ अमेरिका का जो अतीत रहा है, वह इस बात की गारंटी नहीं देता कि दुनिया का यह स्वयंभू चौधरी घनघोर संकट के समय भी भारत के साथ खड़ा रहेगा। उसके हितों की खातिर भारत को ईरान जैसे एक और भरोसेमंद साथी से दूरी बनानी पड़ी है। यही नहीं, अमेरिका ने तालिबान के साथ समझौता करने में पाकिस्तान को साझीदार बनाया, लेकिन भारत की उपेक्षा की। अब भारत पर उसका दबाव है कि वह रूस से मिसाइल रक्षा प्रणाली एस-400 का सौदा नहीं करे। 

इस तरह हमने पाया कि भारत को विदेश नीति में विचलन का खामियाजा उठाना पड़ा है। फिर भी भारत की यह दुविधा हो सकती है कि वह जिन मूल सिद्धांतों को सियासत के अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाता रहा है, उनसे अब बचने की कोशिश करता दिखाई देता है। फिर भी सच्चाई यही है कि राष्ट्रीय हित सर्वोपरि होते हैं और वह चीन, पाकिस्तान तथा रूस-सभी से बैर नहीं ले सकता।

(साभार: लोकमत)


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