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मिस्टर मीडिया: बन्द लिफ़ाफ़ा है, लीजिए साथ में FIR भी
कई दिनों में मीडिया में छाया है चुनाव प्रचार के दौरान रिश्वत देने का मामला
राजेश बादल 5 years ago
जाते-जाते चुनाव में यह भी हो गया। हुआ तो अनेक जगह था, लेकिन वहाँ पोल खुल गई। लेह की ज़िला निर्वाचन अधिकारी और कलेक्टर अवनि लवासा ने जाँच के आदेश दिए। शिक़ायत सच पाई तो जाकर पुलिस स्टेशन में प्राथमिकी दर्ज़ कराई। अवनि भारत के निर्वाचन आयुक्त अशोक लवासा की बेटी हैं।
दरअसल, लेह में प्रचार अभियान के दौरान हवा में कई दिन से ख़बरें तैर रही थीं कि भारतीय जनता पार्टी पत्रकारों को प्रचार की दिशा अपने पक्ष में मोड़ने के लिए लिफ़ाफ़े में बंद नक़दी दे रही है। एक दिन राष्ट्रीय अख़बार ने भी यह समाचार छाप दिया। अवनि लवासा ने भी इसकी ख़ुफ़िया जाँच कराई तो ख़बर सच निकली। उनके लिए यह घटना एक सदमे से कम नहीं थी। मामला अब अदालत में है।
यह पहला मामला नहीं है। पच्चीस बरस पहले मैंने दूरदर्शन पर एक बड़े सांसद के बारे में रिपोर्ट दिखाई थी। इसमें कहा गया था कि जब लोकसभा चुनाव आते हैं तो उनके निर्वाचन क्षेत्र में संवाददाताओं के चेहरे खिल जाते हैं। वे इस चुनाव का पांच साल तक इंतज़ार करते हैं। इस पंचवर्षीय योजना में पत्रकार योजना बनाते हैं। कोई बेटी की शादी कर लेना चाहता है तो कोई नया वाहन खरीदना चाहता है। कोई अपने घर की एक मंज़िल का निर्माण कराने के लिए बेताब रहता है तो कोई पांच साल तक क़र्ज़ लेकर घी पीता रहता है।
पूरे चुनाव प्रचार अभियान में उन्हें इतने पैसे मिल जाते हैं कि इस तरह की मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। ये सांसद केंद्रीय मंत्री से लेकर अनेक बड़े पदों पर रहे। दूरदर्शन पर भी उन दिनों यह आज़ादी होती थी कि आप सत्ताधारी दल के सांसद की ऐसी करतूतों पर हेडलाइन रिपोर्ट्स दिखा सकते थे। आज तो कल्पना भी नहीं कर सकते।
फिर आया पेड न्यूज़ का दौर। मालिकों में भी बहती गंगा में हाथ धोने का लालच आया। उन्होंने सोचा कि अगर पत्रकार उनके संस्थान के नाम पर इतना कमा सकते हैं तो उन्हें किसने रोका है? इसके बाद मैनेजमेंट भी खुलकर खेलने लगे। एक समाचार पत्र समूह ने तो बाक़ायदा अपने रिपोर्टरों को रसीद बुक छापकर दे दीं। जो उम्मीदवार रसीद कटवा लेता था, उसके पक्ष में समाचार प्रकाशित होने लगते थे। जो रसीद नहीं कटवाते थे, उनकी जन्मपत्री खोल दी जाती थी। रिपोर्टरों को रसीद में लिखी राशि पर कमीशन भी मिलता था। अर्थात चोरी और सीनाजोरी। इस तरह की हरकतों के कारण यह नामी गिरामी पत्र समूह पाताल में चला गया ।
लेह प्रसंग का ज़िक्र इसलिए प्रासंगिक है कि नई नस्लें जान सकें कि बेईमानी का धंधा न मान देता है न सम्मान। हर प्रोफेशन में हर कालखंड में कुछ काली भेड़ें रहती हैं। उजागर होते ही उनकी हालत धोबी के कुत्ते जैसी हो जाती है। न वे घर के रहते हैं न घाट के। इसलिए भ्रष्ट आचरण से कमाए पैसे से बचना ही सरोकार वाली पत्रकारिता है मिस्टर मीडिया!
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