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'परिवार, समाज या देश में कोई भी निर्णय लेने के लिए इन तीन बातों का ध्यान रखना चाहिए'
कर्म मनुष्य के अधिकार में है परंतु कर्म फल नहीं। अंतिम क्षण में मनुष्य काल के प्रभाव के समक्ष पराधीन है। अतः अपना विवेक खोना नहीं चाहिए।
समाचार4मीडिया ब्यूरो 4 years ago
सृष्टि के सभी शुभ अशुभ पदार्थों का रचयिता काल ही है। वह सब जीवों का विनाशकर्ता है। वही उनकी पुनरुत्पत्ति का कारण है। जब जीव सो रहा होता है तब भी काल जगा रहता है। काल के प्रभाव का अतिक्रमण संभव नहीं है। सृष्टि में जो भी पदार्थ पूर्व में थे, भविष्य में भी होंगे और वर्तमान में हैं, वे सब काल द्वारा निर्मित हैं। कर्म मनुष्य के अधिकार में है परंतु कर्म फल नहीं। अंतिम क्षण में मनुष्य काल के प्रभाव के समक्ष पराधीन है। अतः अपना विवेक खोना नहीं चाहिए।
कालः सृजति भूतानि कालः संहरति प्रजाः।
कालः सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रमः।। (महाभारत आदि पर्व)
अर्थात् काल (समय) ही संसार को सृजन करता है और काल ही संसार के प्रजा का संहार करता है। काल के बलवान होने पर ही व्यक्ति को इंद्र पद (राजा) बनाता है और काल ही राजा के पद से उतार भी देता है।
काले तपः काले ज्येष्ठं काले ब्रह्मसमाहितः।
कालो हसर्वस्येश्वरोयः पिता{{सीत् प्रजापते:।। अथर्ववेद 19।53।8
अंतिम सत्य ईश्वर प्राप्ति सब का लक्ष्य होता है और होना भी चाहिए। पर परमात्मा का अंश जीवात्मा अपने महत्वाकांक्षा के कारण किस प्रकार इस मायाजाल में फंस जाता है। इसकी सामान्य प्रक्रिया यह है कि हम सब परमात्मा के अंश हैं। परमात्मा के अंश इस जीवात्मा के नवगुण हैं यथा- 1। बुद्धि, 2। इच्छा, 3। सुख, 4। दुःख, 5। प्रयत्न, 6। संस्कार, 7।पुण्य, 8। पाप, 9। द्वेष।
इसी के सहारे सम्पूर्ण संसार चलता है। जैसे ही नीचे के क्रम में विकृति (दोष) उत्पन्न होती है, वैसे ही उत्तरोत्तर के क्रम में विकृति उत्पन्न होने लगाती है। द्वेष से पाप, पाप से पुण्य का क्षय, पुण्य क्षय से संस्कार नष्ट हो जाते हैं, संस्कार नष्ट हो जाने पर प्रयत्न को प्रभावित करता है। प्रयत्न प्रभावित होने पर दुःख उत्पन्न करता है।
दुःख से सुख प्रभावित होता है। सुख न होने पर इच्छाशक्ति कमजोर पड़ जाती है। इच्छाशक्ति कमजोर होने पर बुद्धि को प्रभावित करती है। इस संदर्भ में भर्तृहरि नीतिशतककार ने सज्जन, महान् आत्मा तथा सफल व्यक्ति का उदाहरण बहुत अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया है-
विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः।
यशसि चाभिरुचिव्र्यसनं श्रुतौ प्रकृतिसिमिदं हि महात्मनाम।।
अर्थात् विपत्ति पड़ जाने पर धीरज, अधिक उन्नति होने पर क्षमा, सभा में उचित बोलने की चतुराई, संग्राम में पराक्रम, यश में अभिलाषा, वेदशास्त्र के पढ़ने में तत्परता, अर्थात् महात्माओं के ये स्वाभाविक लक्षण होते हैं। ये सारे गुण राजाओं में होने चाहिए। क्योंकि राजा भी ईश्वर का अंश है और सामान्य जनता से ईश्वरीयगुण उनमें अधिक होता है। प्राचीन काल में राजाओं का मापदंड हुआ करता था, जो आज न के बराबर है। अतः जिस देश के राजा महान आत्मा वाले होंगे, उस देश का निश्चित रूप से भला होगा।
दूसरी बात परिवार, समाज या देश में किसी भी प्रकार का निर्णय लेने के लिए तीन बातों का ध्यान रखना चाहिए- 1। देखो, 2। समझो, 3। फिर करो।
यहां प्रश्न यह उठता है कि सब कुछ जानते हुए भी काल के विकराल प्रभाव के समक्ष हम सब छोटे पड़ जाते हैं। ऐसी परिस्थिति में राजा को चाहिए एक उत्तम दैवज्ञ की सलाह से चलें तो उत्तम फल की प्राप्ति होगी। क्योंकि दैवज्ञ (ज्योतिषी) काल वेत्ता होता है। पृथ्वी की भौगोलिक स्थिति यथा अक्षांश रेखांश आदि का ज्ञाता होता है।
देश, काल, परिस्थिति से पूर्णतः अवगत होता है इसलिए यात्रा में शुभ फल प्राप्ति के लिए, युद्ध में विजय के लिए, किसी धर्म संकट के समय में निर्णय के लिए, महामारी आदि प्राकृतिक प्रकोप से बचने के लिए। ज्योतिष के तीनों स्कन्धों- सिद्धांत, होरा एवं संहिता के मर्मज्ञ विद्वानों (दैवज्ञों) से सलाह अवश्य लेनी चाहिए।
(1) इस विषय में वराहमिहिर लिखते हैं कि-
दीप विहीन रात्रि और सूर्य हीन आकाश की तरह ज्योतिषी से हीन राजा शोभित नहीं होता हुआ, अन्धों की तरह मार्ग में घूमता है।
अप्रदीपा यथा रात्रिरनादित्यं यथा नभः।
तथासांवत्सरो राजा भ्रमत्यन्ध् इवाध्वनिः।। (वराहमिहिर)
(2) जय, यश, श्री (धन) भोग और मंगल की इच्छा रखने वाले राजा को चाहिए कि विद्वान्, श्रेष्ठ ज्योतिषी के पास जाकर अपने समयानुसार करने योग्य कर्तव्यों की सलाह अवश्य ले।
तस्माद्राज्ञाधिगन्तव्यो विद्वान् सांवत्सरोग्रणीः।
जयं यशः श्रियं भोगान श्रेयश्च समभीप्सता।। (वराहमिहिर)
वराहमिहि इस विषय में इतना तक कह दिये कि सब प्रकार से अपने कुशल की इच्छा रखने वाले मनुष्य को दैवज्ञहीन देश में निवास नहीं करना चाहिए क्योंकि जहां पर नेत्र स्वरूप दैवज्ञ निवास करते हैं, वहां पाप का निवास नहीं होता है।
नासांवत्सरिके देशे वस्तव्यं भूतिमिच्छता।
चक्षुर्भूतो हि यत्रैषा पापं तत्रा न विद्यते।। (वराहमिहिर)
प्रस्तुत विषय में वराहमिहिर का विरोध स्वर भी इस प्रकार है कि- जो दैवज्ञ सम्पत्ति पाने के लोभ से जो फल आदेश करता है और ज्योतिषशास्त्र से भिन्न कथा में जिनका स्नेह है, अर्थात ज्योतिषशास्त्र को ठीक तरह से न जानने के कारण अन्य कथा, तर्क, कुतर्क से अपनी बातों को स्पष्ट करता है। ऐसे शास्त्र के एकदेश को जानने से मत्त ज्यौतिषी (दैवज्ञ) का राजा द्वारा त्याग कर देना चाहिए। जो आज कल बहुतायत में देश विदेश में फैले हुए हैं।
सम्पत्या योजितादेशस्तद्विच्छिन्नकथाप्रियः।
मत्तः शास्त्रैकदेशेन त्याज्यस्तादृड्महीक्षिता।। (वराहमिहिरद्ध)
बहुत रोचक बात वराहमिहिर ने अपनी संहिता में कहा है कि देश, काल परिस्थिति को जानने वाला एक दैवज्ञ जो काम करता है, वह हजार हाथी और चार हजार घोड़े भी नहीं कर सकते हैं। यहाँ आधुनिक सन्दर्भ में हाथी, घोड़ा को सैनिक तथा वाहन आदि के बल से जोड़कर विचार करना चाहिए।
न तत्सहस्रं करिणां वाजिनां च चतुर्गुणम्।
करोति देशकालज्ञो यथैको दैवचिन्तकः।।
एक उत्तम ज्योतिषी राष्ट्र एवं राजा के लिए उन्नति की कामना करता है। सारांश में यह कह सकते हैं कि सबकुछ कालाधीन है। काल को परम ब्रह्म कहा गया है। जिस प्रकार समुद्र का जल रीसाइकल होकर आकाश में बादल का रूप धारण कर बूँद-बूँद करके पृथ्वी पर बरसता है ठीक उसी प्रकार ब्रह्मकाल को दैवज्ञ छोटे-छोटे टुकड़ों में तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण, ऋतु, अयन, वर्ष आदि में विभक्त कर उसके प्रभावों को जानकर, राजाओं को, समाज को, किसानों को, समष्टि गत तथा व्यक्तिगत रूप से पूर्व में भी लाभान्वित करवाया है सम्प्रति भी लाभान्वित करवाता है तथा आगे भी लाभान्वित होने में सहयोग कर सकता है।
इसके उदाहरण इतिहास में कई जगह प्राप्त होते हैं। सम्पूर्ण सत्य ईश्वर है, एवं सम्पूर्ण फल भी ईश्वर है। अतः सत्य का आधर लेकर प्रयत्न करने पर ईश्वरीय सृष्टि को सत्य की ओर उन्मुख किया जा सकता है। सात्विक सृष्टि में विकार नहीं होता है। एक त्रिस्कन्ध मर्मज्ञ दैवज्ञ का कर्तव्य है कि समस्त प्रयत्नों द्वारा तथा अपने ज्ञान-विज्ञान की कुशलताओं द्वारा सर्वदा राजा को कल्याणमार्ग का उपदेश करे। यही शास्त्रोक्त धर्म भी है। इस पर विचार करना अच्छे राजाओं का उत्तरदायित्व भी है। प्राचीन काल में राजसभाओं में दैवज्ञों के मध्य परस्पर शास्त्रार्थ हुआ करता था राजा उसे देखता था जो आज नहीं है।
डॉ. फणीन्द्र कुमार चौधरी
सह-आचार्य, ज्योतिष विभाग
श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली
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