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वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल ने बताया, क्यों फिसलती जा रही है अमेरिका के हाथ से बाजी

वही हुआ, जिसकी आशंका थी। अमेरिका के लिए अफगानिस्तान गले की हड्डी बनता दिखाई दे रहा है। उसने तालिबान से समझौता तो किया

समाचार4मीडिया ब्यूरो 3 years ago

वही हुआ, जिसकी आशंका थी। अमेरिका के लिए अफगानिस्तान गले की हड्डी बनता दिखाई दे रहा है। उसने तालिबान से समझौता तो किया, लेकिन सेना की वापसी के बाद उस मुल्क के लिए कोई साफ तस्वीर या योजना उसके पास नहीं थी। इसका सीधा सपाट कारण यही नजर आता है कि जो बाइडन के लिए फौजियों की घर वापसी से बड़ा कोई मसला नहीं था। बीस वर्ष वहां कठपुतली सरकार चलाने के बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान सरकार को ही कोसना शुरू कर दिया कि जब वे अपने लिए नहीं लड़ सकते तो फिर अमेरिका कब तक उनके लिए लड़ेगा। 

विश्व मंच पर चौधरी की भूमिका निभा रहे ताकतवर देश का यह रवैया न केवल गैर-जिम्मेदाराना है बल्कि मानवता के मसले पर भी अत्यंत चोट पहुंचाता है। इस प्रश्न का अमेरिकी सरकार के पास कोई उत्तर नहीं है कि उसने दो दशक में अफगानी निर्वाचित सरकार को सशक्त क्यों नहीं होने दिया। इसके पीछे उसके कौन से हित छिपे थे? अफगानिस्तान के करोड़ों बेकसूर नागरिकों के इन सवालों का प्रेत अमेरिका पर हमेशा मंडराता रहेगा।

असल में कठोर आलोचक रूस, चीन और ईरान जैसे राष्ट्रों के लिए भी अमेरिका का यह रुख पहेली ही है। जानकार हैरान हैं कि अमेरिका ने अपने तरकश के कूटनीतिक तीरों का इस्तेमाल क्यों नहीं किया। उसने तालिबानियों से यह समझौता तो नहीं ही किया था कि वे बाद में अपनी धरती पर गिल्ली-डंडा खेलेंगे और अशरफगनी की सरकार शांति से राज करती रहेगी। 

वे चाहते तो अपनी सेना के रहते तालिबान और वहां की सरकार के संग मिलीजुली सरकार बनवाते और साल भर पैनी नजर रखते। दूसरा विकल्प यह था कि वे अपनी कमान में संयुक्त प्रशासन परिषद बनाते। परिषद लगातार काम करती तो बीस साल के भूखे तालिबानी सत्ता के स्वाद से परिचित होते और फिर शायद चुनाव आयोग जैसी किसी संस्था में उनका भरोसा जगता (हालांकि यह बहुत मुश्किल था) पर यह सच है कि उस सूरत में अमेरिकी सेना अफगानिस्तान से करीब साल भर और पिंड नहीं छुड़ा सकती थी। 
राजनीतिक ईमानदारी तो यही कहती है कि बीस वर्ष राज करने के बाद अमेरिका को अफगानिस्तान में समझदारी भरा एक साल और काटना चाहिए था। एक लोकतांत्रिक देश की अनुशासित सेना वहां एक वर्ष और बिता सकती थी।

अमेरिका के ऐसा नहीं करने के दो कारण समझ में आते हैं। कुछ वर्षो से अमेरिकी अर्थव्यवस्था गंभीर चुनौतियों का सामना कर रही है। अपने हथियार उद्योग के जरिये वह वित्तीय हालत में प्राणवायु फूंक सकता है। इस मकसद में अफगानिस्तान सहायक है। 

यदि वहां गृहयुद्ध छिड़ता है तो एक तरफ तालिबान लड़ाकों को हथियार बेच सकता है तो दूसरी ओर अफगानी फौज को तालिबान से लड़ने के लिए हथियार गोला बारूद दे सकता है। इस तरह अफगानिस्तान में अशांति अमेरिका को रास आती है। 

दूर की कौड़ी यह है कि बोतल में बंद तालिबानी जिन्न बाहर निकालने से रूस, पाकिस्तान, ईरान, चीन और भारत की पेशानी पर बल पड़ते हैं। रूस तालिबान से आशंकित है तो चीन अपने यहां शिनजियांग में अशांति का खतरा देख रहा है। 

पाकिस्तान के पेशावर पर तो तालिबानी अपना हक जताते ही रहे हैं। मजहब के नाम पर वह पाकिस्तान को नचा सकता है। भारत कश्मीर में तालिबान के दखल की आशंका देख रहा है। याद दिलाना जरूरी है कि जो बाइडेन और कमला हैरिस अपने पदों पर चुने जाने से पहले ही भारत की कश्मीर नीति के कट्टर आलोचक रहे हैं। 

यानी अर्थ यह भी है कि अमेरिका ने एक तालिबानी तीर से कई निशाने साध लिए हैं। पर क्या उसकी यह मंशा पूरी होगी? शायद नहीं, क्योंकि एशिया में अगर समीकरण उलट गए तो अमेरिका के लिए संकट बढ़ जाएगा।

हकीकत यह है कि अमेरिका की स्थिति सांप-छछूंदर जैसी है। जिन देशों को वह सैनिक सहायता दे रहा है, वे भयभीत हैं और सोचते हैं कि अमेरिका कभी भी मंझधार में छोड़कर भाग सकता है। इसलिए वे अमेरिका से छिटक सकते हैं। 

अमेरिका के प्रति आशंकित तो जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे देश भी हैं। वे नजरअंदाज नहीं कर रहे हैं कि आने वाले दिनों में यदि अमेरिका ने चीन से हाथ मिला लिया तो वे अपनी विदेश नीति का क्या करेंगे। अमेरिका अब अफगानिस्तान में दोबारा नहीं जा सकता और उससे दूरी बनाने में चौधराहट पर आंच आती है। 

जानकार कह रहे हैं कि अमेरिकी नागरिक ट्रम्प के बाद एक और राष्ट्रपति को नाकाम होते देखेंगे। अजीब बात है कि जॉर्ज बुश, बराक ओबामा, ट्रम्प और जो बाइडेन चारों राष्ट्रपतियों ने अफगानिस्तान के मामले में सारे विश्व को अंधेरे में रखा है। वे बार-बार दोहराते रहे हैं कि तालिबान निर्मूल हो चुका है। 

अफगानिस्तान सरकार और लोकतंत्र को वहां कोई खतरा नहीं है। हकीकत यह है कि तालिबान ने तो 2009 में ही देश के दक्षिणी भाग पर कब्जा कर लिया था। उसने अमेरिकी सेनाओं का ग्रामीण इलाकों में जाना वर्षों से रोक रखा था। अमेरिका ने 1000 अरब डॉलर वहां बहाए, 5000 से अधिक सैनिक गंवाए और लौट के बुद्धू घर को आए। 

लौटते-लौटते तालिबानियों को 8 लाख हथियार, 60 से अधिक मालवाहक विमान, 108 लड़ाकू हेलिकॉप्टर, 23 लड़ाकू विमान और 18 खुफिया टोही विमान, 168 यात्नी विमान, 76000 फौजी गाड़ियां और 200000 संचार उपकरण उपहार में देकर आए। अफगानी सेनाओं का आसान समर्पण और तालिबानियों को विराट मदद क्या दोहरे अमेरिकी चरित्र का सबूत नहीं है?


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