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मिस्टर मीडिया! ऐसी भी हकीकत रही है एग्जिट पोल की
हर चुनाव में एग्जिट पोल किए जाते हैं। कभी सच निकलते हैं तो कभी उनके आकलन सटीक नहीं बैठते
राजेश बादल 5 years ago
राजेश बादल
वरिष्ठ पत्रकार
हर चुनाव में एग्जिट पोल किए जाते हैं। कभी सच निकलते हैं तो कभी उनके आकलन सटीक नहीं बैठते। देखा जाए तो इन एग्जिट पोल की सफलता का प्रतिशत क़रीब-क़रीब साठ फ़ीसदी है। जब इनके निष्कर्ष सही निकलते हैं तो तारीफ़ के पुल बाँध दिए जाते हैं। मगर जब ये अनुमान सच साबित नहीं होते तो एग्जिट पोल करने वालों के ख़िलाफ़ आसमान सर पर उठा लिया जाता है। यहां तक कहा जाता है कि एग्जिट पोल पहले ही अमुक राजनीतिक दल ने खरीद लिए थे। अचानक ही सर्वेक्षण करने वाले खलनायक की तरह देखे जाने लगते हैं।
यह सच है कि सर्वेक्षण करने वाले सारे पत्रकार नहीं होते। जहां पेशेवर एजेंसियों को अनुबंधित किया जाता है, उनके अपने प्रोफेशनल होते हैं। एजेंसियां उन्हें प्रशिक्षित करती हैं। इसके बाद ही वे सर्वेक्षण करते हैं। इनमें मीडिया संस्थानों से निकले छात्र भी होते हैं और अन्य नौजवान भी। जब ये पेशेवर लोगों के बीच जाते हैं तो कुछ बिंदुओं पर वे एक रोबोट की तरह फॉर्म भराते हैं और अपने संस्थान को दे देते हैं। एक कम्प्यूटर में इन सारे नमूनों को संयोजित किया जाता है। फिर उनका निष्कर्ष निकाल कर संबंधित चैनल ,समाचारपत्र या अन्य माध्यमों को भेजा जाता है। यह त्रुटिपूर्ण है।
पेशेवर सर्वेक्षणकर्ता का उद्देश्य दरअसल उन बिंदुओं पर एक प्रामाणिक फॉर्म अपने दफ़्तर में जमा कराना होता है। एक पत्रकार की तरह ख़बर निकालने की स्वाभाविक कला का इसमें कोई इस्तेमाल नहीं किया जाता। इन दिनों मतदाता अपेक्षाकृत अधिक जागरूक है और सतर्क रहता है। आप सोच सकते हैं कि एक नौजवान किसी मतदाता से जब पूछेगा कि वह किसको वोट देगा तो क्या वह सौ फीसदी ईमानदारी भरा सच उत्तर देगा। अगर आप ऐसा सोचते हैं तो माफ़ कीजिए आप भ्रम में हैं। इसलिए असत्य उत्तरों के आधार पर किया गया सर्वेक्षण सत्य कैसे हो सकता है?
क़रीब पंद्रह-सोलह साल पहले की बात है। मैं एक चैनल में संपादक था। ऐसे ही एक एग्जिट पोल का अनुबंध चैनल की ओर से एक बड़ी एजेंसी को दिया गया। जब उस एजेंसी ने एग्जिट पोल के कुछ बिंदुओं पर सांसद का रिपोर्ट कार्ड दिखाना शुरू किया तो हम लोग हैरान रह गए। उस सर्वेक्षण में ऐसे ऐसे उत्तर पाए गए, जो किसी भी रूप में सच नहीं हो सकते थे। तब एजेंसी से हम लोगों ने भरे हुए नमूना फॉर्म मँगाए। इसके बाद नागपुर के कुछ लोगों को चुना, जिनके नाम से वे सर्वेक्षण फॉर्म भराए गए थे। हमारे संवाददाता उन लोगों से मिले तो हैरान रह गए। एग्जिट पोल करने वाली एजेंसी के प्रोफेशनल उनके पास गए ही नहीं थे। कहीं से नाम -पते लेकर उन सर्वेक्षकों ने ये फॉर्म भर दिए थे। इसके बाद तो हड़कंप मचा। एजेंसी के बिलों से लाखों रूपए हमें काटने पड़े।
इसी तरह एक अन्य एजेंसी में पत्रकारिता के छात्रों को इंटर्नशिप और उसके बाद नौकरी का अवसर मिला। उनमें से कुछ मेरे छात्र रह चुके थे। एक दिन परेशान छात्र मेरे पास आए। उन्होंने जो जानकारी दी ,वह चौंकाने वाली थी। एजेंसी ने शहरों में भेजकर अपने सेम्पल सर्वे तो कराए, लेकिन जब चैनल ने उस एजेंसी के निष्कर्ष दिखाए तो छात्र हैरान रह गए। वे निष्कर्ष उलट थे। जिस दल की सरकार बनती दिखाई गई ,वह हार गया और जो दल हार रहा था, उसकी सरकार बन गई। मैंने उन छात्रों से सहानुभूति दिखाई और कहा कि अगर वे कुछ समय बेरोज़गारी बर्दाश्त कर सकते हैं तो फ़ौरन एजेंसी छोड़ दें। छात्रों ने ऐसा ही किया।
जब मैंने पत्रकारिता शुरू की तो अगले साल ही 1977 के आम चुनाव थे। उन दिनों एग्जिट पोल की कोई परंपरा नहीं थी। न टेलीविज़न था और न निजी रेडियो। जिस अखबार का मैं संवाददाता था, उसके समाचार संपादक ने एक दिन बुलाया और चुनाव कवर करने के अनेक नए नए तरीक़े बताए। उनमें से एक मतदाताओं के दिल की थाह लेने की विधि भी थी। इससे आप जान सकते थे कि वह मतदाता किसको वोट दे सकता है। हम नए पत्रकारों ने वह गांठ बाँध ली। तब से वही काम आ रही है। हालांकि बाद में नई दुनिया और नवभारत टाइम्स में प्रधान संपादक राजेंद्र माथुर ने कुछ मार्गदर्शक सिद्धांत तथा चुनाव कवरेज के कुछ गुर सिखाए। वे भी आज तक काम आ रहे हैं। लेकिन आजकल शायद इस तरह का प्रशिक्षण देने वाले संपादक कम ही नज़र आते हैं। मैं तो जहां भी अवसर मिलता है, छात्रों को बताने से नहीं चूकता।
अनेक चैनलों में इस बार इन आकलन अनुमानों पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। वैसे कुछ समाचार चैनलों ने अतीत के अनुभवों से सीखते हुए अपने संवाददाता नेटवर्क की मदद से अपने स्तर पर ही ये एग्जिट पोल कराए हैं। मुझे लगता है कि यह एक बेहतर तरीक़ा हो सकता है। बशर्ते संवाददाताओं को पूरी तरह प्रशिक्षण दिया जाए। लोकतंत्र के इस बेहद गंभीर अनुष्ठान को हल्के फुल्के ढंग से नहीं ले सकते मिस्टर मीडिया!
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