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'जिस लोकतंत्र ने एक साधारण घर के युवक को CM-PM बनाया, उसके मूल को कुचलना फासीवाद है'
पत्रकारों के खिलाफ यूपी पुलिस की ओर से की गई कार्रवाई निहायत ही निंदनीय है
समाचार4मीडिया ब्यूरो 5 years ago
अजय शुक्ल, वरिष्ठ पत्रकार।।
बीते कुछ दिनों के दौरान स्वतंत्र और निष्पक्ष काम करने की कोशिश करने वाले पत्रकारों पर हमले हो रहे हैं। सत्ता प्रतिष्ठान लोकतंत्र और लोक संस्थाओं को मजबूत बनाने के बजाय फासीवादी तरीका अपना रहे हैं। प्रशांत कनौजिया सहित जिन चार पत्रकारों को यूपी के मुख्यमंत्री अजय सिंह बिष्ट उर्फ योगी आदित्यनाथ से कथित संबंधों का आरोप लगाने वाली महिला के बयान को चैनल में चलाने और सोशल मीडिया पर प्रसारित करने पर डकैतों की तरह गिरफ्तार किया गया, वह निहायत निंदनीय है।
हम प्रशांत सहित इन चारों पत्रकारों को निजी तौर पर नहीं जानते, मगर उनके खिलाफ हुई पुलिसिया कार्रवाई को पूर्णतः असंवैधानिक एवं लोकतंत्र की हत्या की तरह मानते हैं। एक दिन पहले शामली जिले में एक थानेदार ने समाचार संकलन कर रहे संवाददाता को जिस तरह से मारा-पीटा और अमानवीय यातनायें दीं, वह किसी भी स्थिति में स्वीकार्य नहीं हैं। मर्यादायें सभी के लिए समान होती हैं। निश्चित रूप से उच्च पदों पर बैठे लोगों को मर्यादाओं का कड़ाई से पालन करना चाहिए। मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने प्रजा के लिए मर्यादा का हृदय से निर्वहन किया। प्रजा को अपने खिलाफ बोलने पर दंडित करने के बजाय पत्नी सीता का त्याग किया था। योगी आदित्यनाथ जैसे लोग खुद को राम का अनुयायी बताते हैं, मगर आचरण उनके विपरीत करते हैं।
असल में तो कार्यवाही उस महिला के खिलाफ होनी चाहिए थी, न कि उसकी बात प्रसारित करने वाले पत्रकारों के खिलाफ। आदित्यनाथ खुद को योगी और संत होने का दंभ भरते हैं तो उन्हें समझना चाहिए कि संत कौन है? तुलसीदास ने रामचरित मानस में स्पष्ट लिखा है, ‘संत हृदय नवनीत समाना। कहा कबिन्ह परि कहै न जाना॥ निज परिताप द्रवइ नवनीता। पर सुख द्रवहिं संत सुपुनीता॥’ इसका भावार्थ है, कवियों ने कहा है कि संतों का हृदय मक्खन के समान होता है, परंतु वो सही बात नहीं कह पाये, क्योंकि मक्खन तो खुद पर ताप लगने से पिघलता है, किंतु परम पावन संत दूसरों के दुःख से पिघलते हैं न कि अपने कष्ट से।
हमारे कहने का अभिप्राय यह है कि योगी आदित्यनाथ को अपने राज्य के लोगों के कष्टों को महसूस करके कष्ट होना चाहिए, न कि खुद के हल्के से कष्ट से। बतौर यूपी के राजसत्ता प्रमुख भी उन्हें जनता से सरोकार होना चाहिए और आलोचनाओं को आत्मसात करके सीख लेनी चाहिए। इस वर्ष विश्व प्रेस स्वतंत्रता इंडेक्स में भारत का शर्मनाक स्थान हो गया है। 180 देशों में भारत 140वें स्थान पर पहुंच गया है। हम विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दम भरते हैं, मगर हमारे सत्ता प्रतिष्ठान ने हालात लोकतंत्र का गला घोंटने जैसे कर दिये हैं। सरकार और उसके तंत्र ने संविधान प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को खत्म करने का मन बना लिया लगता है।
जिस तरह से पत्रकारों को मौजूदा सरकार में सामान्य सटायर और किसी के आरोप की खबर चलाने पर जेल में डाला जा रहा है। विद्यार्थियों की समस्याओं को लेकर प्रदर्शन करने वाली लड़की पर गैंगेस्टर लगाया जा रहा है। अन्य मनगढ़ंत मुकदमे दर्ज किये जा रहे हैं, वह पत्रकारों को डराने, भय पैदा करने वाला है। इस माहौल के जरिए शायद यह संदेश दिया जा रहा है कि अभी कुछ नहीं किया। आगे अगर हम पर कोई टीका टिप्पणी की तो गला घोंट देंगे या पत्थरों से पीट-पीटकर मार डालेंगे।
योगी आदित्यनाथ शायद लोकतंत्र का अर्थ ही नहीं समझते। निश्चित रूप से उनकी ईमानदारी और चरित्र संदेह के दायरे से बाहर है। यह भी सच है कि एक महिला ने आरोप लगाया, भले ही उसमें सच्चाई कुछ न हो। पत्रकार जज नहीं हो सकते, उनका दायित्व है कि दोनों पक्षों की बात रखें। अपनी और दूसरे की मर्यादा का भी पूरी सावधानी से ध्यान रखें। किसी की मर्यादा भंग नहीं होनी चाहिए। योगीजी सत्ता प्रतिष्ठान की यह महती जिम्मेदारी है कि वह आलोचकों, समीक्षकों, कार्टूनिस्टों और सटायरों का आनंद लें, उनसे सीखने का काम करें।
हमें दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि अब तक यूपी पुलिस और कुछ कथित कट्टरवादियों ने लोकतंत्र को खत्म करने का बीड़ा उठा रखा है। यह लोग गुंडों- बदमाशों की तरह साधारण लोगों अथवा पत्रकारों के साथ व्यवहार कर रहे हैं। जिस लोकतंत्र ने एक साधारण घर के युवक को मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री बनाया है, उसके मूल को कुचलना फासीवाद है।
दुखद स्थिति पत्रकारों को भी देखकर होती है, क्योंकि वह भी खांचों में बंट गए हैं। कोई भाजपाई, कोई कांग्रेसी और कोई लाल सलामी बन गया है। पत्रकार को सिर्फ पत्रकार रहते हुए ईमानदारी से समीक्षा करनी चाहिए, न कि किसी के निजी जीवन पर हमला करना चाहिए। योगी जी, हृदय बड़ा कीजिए, संतों की तरह। संकुचित मानसिकता मत रखिए और सत्ता के घमंड में मदमस्त मत होइये। जयहिंद।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
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