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मिस्टर मीडिया: यह भारतीय कानून का पुलिस-प्रशासन और सियासत के लिए फरमाइशी चेहरा है
रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स की रिपोर्ट में हिन्दुस्तान को प्रेस के नजरिए से लाल खतरे का निशान दिखाया गया है
राजेश बादल 5 years ago
सुप्रीम कोर्ट में कुतर्क। राज्य सरकार का कुतर्क-प्रशांत कनौजिया का ट्वीट अपमानजनक था। उस ट्वीट पर ग्यारह दिन जेल में। ट्वीट क्या था? एक महिला खुद को मुख्यमंत्री की मित्र बताती है। कैमरे पर संवाददाताओं से कहती है कि उसने मुख्यमंत्री को विवाह प्रस्ताव भेजा है। सार्वजनिक जीवन में राजनेताओं को कभी-कभी इस तरह की अप्रिय स्थितियों का सामना करना पड़ता है। पर इसमें इतना अपमानजनक क्या है,समझ नहीं आया।
उत्तर प्रदेश सरकार बीते चुनाव के दौरान सोशल मीडिया के सभी प्लेटफॉर्म पर की गई टिप्पणियों की जानकारी ले तो पता चलेगा कि उसके ही राज्य में कितनी भद्दी, अश्लील, अपमानजनक और स्तरहीन बातें कही गई हैं। अगर प्रदेश पुलिस को उन टिप्पणियों में कुछ अपमान नहीं दिखाई देता तो इस कथन में तो कुछ अपमानजनक था ही नहीं। एक वयस्क महिला 2019 के भारत में किसी भी बालिग व्यक्ति को विवाह का आमंत्रण भेजने के लिए क्यों स्वतंत्र नहीं है? इसमें अनुचित क्या है? मुख्यमंत्री इस प्रस्ताव को अस्वीकार करने का हक रखते हैं। यह तो उल्टा पुलिस के विरुद्ध महिला अपमान का मामला बनता है।
चिंता का आकार इस मामले से कहीं बहुत बड़ा, विकराल और भयावह है। सत्ता प्रतिष्ठान किस राजनीतिक और सार्वजनिक शुचिता तथा आचरण की बात करते हैं? मीडिया उनके निजी व्यवहार पर कोई टिप्पणी न करे, लेकिन राजनेताओं को यह आजादी कौन सा कानून देता है कि वे अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ ओछी और अपमानजनक भाषा का उपयोग करने में कोई संकोच नहीं करते। मीडिया पर तुगलकी कार्रवाई करते हैं। वे सार्वजनिक तौर पर महिला की लात-घूँसे से पिटाई करते हैं। बदनामी होती है तो बहन बनाने में शर्म का अनुभव तक नहीं करते। जिस पर गुजरात पुलिस को सुओ मोटो (Suo moto) एक्शन लेना था, वह तो हुआ नहीं और उत्तर प्रदेश में महिला का अपमान हो तो समाचार प्रसारित करने पर पत्रकार सीखचों के पीछे कर दिया जाए। यह भारतीय कानून का पुलिस-प्रशासन और सियासत के लिए फरमाइशी चेहरा है।
ज्यादा दिन पुरानी बात नहीं है। दो बरस पहले छत्तीसगढ़ में 14 पत्रकारों को हिरासत में लिया गया था। वरिष्ठ पत्रकार विनोद वर्मा की गिरफ्तारी और उनके परिवार को मानसिक यातना हम कैसे भूल सकते हैं? छत्तीसगढ़ पुलिस को आज तक कोई सुबूत नहीं मिला। 2017 में भारत में दस पत्रकारों की हत्या हुई। रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स की रिपोर्ट में हिन्दुस्तान को प्रेस के नजरिए से लाल खतरे का निशान दिखाया गया है। तत्कालीन गृह मंत्री राजनाथ सिंह के निर्देश पर 20 अक्टूबर को उनके मंत्रालय ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को पत्रकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने का निर्देश दिया गया था। पर उसका खुद उन राज्यों में ही पालन नहीं हुआ, जहां बीजेपी सरकार थी। इससे पहले 23 मई को भी ऐसे ही निर्देश दिए गए थे। और पीछे जाएं तो एक अप्रैल 2010 को भी गृह मंत्रालय ने यही घड़ियाली अभिनय किया था।
पत्रकारों पर दमनकारी कार्रवाई के चलते पहले अनेक मुख्यमंत्री अपनी बलि चढ़ा चुके हैं। बिहार प्रेस बिल और उसके बाद 1987 का प्रेस कानून सियासी दलों को भूलना नहीं चाहिए। अगर एक बार बर्र के छत्ते में सियासी दल और नेता हाथ डालेंगे तो अंजाम क्या होगा-यह बताने की जरूरत नहीं है। हां, अपने को सावधान और अधिक जिम्मेदार बनाने की आवश्यकता है मिस्टर मीडिया!
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