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जीवित पत्रकारों को श्रद्धांजलि दे देना कितना जायज होगा?

हिंदी पत्रकारिता दिवस पर कहा-सेहतमंद हो पत्रकारिता, इसके लिए दुआ करें, श्रद्धांजलि न दें!

समाचार4मीडिया ब्यूरो 5 years ago

आनंद सिंह, वरिष्ठ पत्रकार।।

गुरुवार की सुबह फेसबुक चेक कर रहा था। कुछ लोगों ने लिखा-आज हिंदी पत्रकारिता दिवस है, पत्रकारों को श्रद्धांजलि! मन थोड़ा व्यथित हुआ। जीवित पत्रकारों को श्रद्धांजलि क्यों भाई...। कुछ प्रतिक्रियाएं पढ़ीं। एक ने लिखा-आप जो चाहें, लिख नहीं सकते। दूसरे किसी ने लिखा-अब दौर गोदी मीडिया का है। किसी ने लिखा-अब पत्रकारिता बाजारू हो गई है। इसी किस्म की प्रतिक्रियाएं पढ़ने को मिलीं। ये सब एकतरफा लगीं मुझे। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि हिंदी मीडिया में अवमूल्यन हुआ है लेकिन जब हम समग्रता में चीजों को देखते हैं तो बात कुछ और ही नजर आती है। आपको समझना पड़ेगा कि हिंदी के शीर्ष अखबारों की पाठकों तक पहुंच बढ़ी है।

इंडियन रीडरशिप सर्वे, 2019 की पहली तिमाही की रिपोर्ट देख लें। दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, हिंदुस्तान, अमर उजाला, प्रभात खबर जैसे अखबारों की पाठक संख्या बढ़ी है। कैसे? क्या पाठकों को हम गोबरगणेश समझते हैं। अखबारों की पाठक संख्या बढ़ने के कई कारण हो सकते हैं पर एक मोटा संकेत यह समझें कि फेसबुक-ट्विटर और वॉट्सऐप के जमाने में भी अगर 24 घंटे के बाद पाठक अखबार पढ़कर अपडेट हो रहे हैं तो यह पत्रकारों की बहुत बड़ी ताकत है, सफलता है। लाइव खबरों के जमाने में हम टीवी पर खबरें तो देख लेते हैं लेकिन उसकी पुष्टि के लिए हमें 24 घंटे इंतजार भी करना पड़ता है (और वह हम कर भी रहे हैं) क्योंकि हमें लगता है कि आज भी खबरों का कन्फर्मेशन अखबार पढ़ने के बाद ही हिंदी पट्टी के लोग करते हैं। तो, जिन पत्रकारों के दम पर अखबार बढ़ रहे हैं, उन्हें जीते-जी श्रद्धांजलि देना कितना उचित होगा, यह आप पर छोड़ा।

1992 में जब लोकमत समाचार, नागपुर से मैंने करियर की शुरुआत की तो 2500 रुपये वेतन मिलता था। उस दौर में हमारे प्रधान संपादक थे श्री एसएन विनोद जी। उन्हें कितनी सैलरी मिलती थी, यह तो हमें नहीं पता पर इतनी जरूर मिलती थी, जिससे उनकी कार हर दिन चमचमाती थी।  झख सफेद-क्रीम कलर की सफारी शर्ट-पैंट का क्रीज नहीं टूटता था। आज के दौर में मैं निजी तौर पर ऐसे अखबारों के संपादकों को जानता हूं, जिनकी सालाना सैलरी 50 लाख से डेढ़ करोड़ रुपए तक है। हिंदी न्यूज चैनलों की बात तो छोड़ ही दें।

2019 की पत्रकारिता में कुछ डार्क स्पाट भी हैं। दरअसल, ये पहले से भी रहे हैं। अभी इनका रंग ज्यादा सुर्ख हो गया है। लेकिन, ये एक फीसद से भी कम हैं। हर संस्थान में ऐसे लोग आपको मिल जाएंगे। लेकिन इन एक फीसद लोगों के कारनामों को लेकर 99 फीसद को गलत कह देना, श्रद्धांजलि दे देना कितना जायज होगा? मूल भाव में पत्रकारिता आज भी अपने सूचना देने के सार्वभौमिक दायित्व का निर्वहन कर रही है जिसमें ईमानदारी, शुचिता और कर्तव्यनिष्ठा का मूलभाव संलिप्त है। हां, यह दीगर है कि आप आज के दौर में अगर कर्मवीर, उदंत मार्तण्ड, आर्यावर्त, सर्चलाइट और आज वाली तासीर खोज रहे हैं, तो आपको निराशा ही हाथ लगेगी क्योंकि बीतते दौर के साथ चीजें बदल चुकी हैं और यह कहने की बात नहीं कि बदलाव सृष्टि का नियम है।

आज के अखबारों में व्यवसाय को लेकर गंभीर चिंता है। यह चिंता उस सोच को आगे बढ़ाती है, जिसमें हमें हर पत्रकार को हर माह की सात तारीख को पूरा का पूरा वेतन भी देना होता है। आप माखनलाल चतुर्वेदी के अखबार कर्मवीर में छपे उस विज्ञापन को याद करें जिसमें उन्होंने ऐसे पत्रकारों को रखने की इच्छा व्यक्त की थी जो अंग्रेज हुक्मरानों के विरुद्ध लिखे, वेतन न ले, दो रोटी खाकर जिंदा रहे। क्या आज ऐसे पत्रकार मिलेंगे? जाहिर है, नहीं। वह द्रोह काल था। आज द्रोह काल नहीं है। लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार है, जिसने मीडिया को छूट दे रखी है। थोड़ी-बहुत पसंद-नापसंद का ध्यान रखने में कोई गुरेज नहीं, क्योंकि जो आपको सरकारी विज्ञापन दे रहा है, वह अपनी एक सीमा के बाहर जाकर बुराई शायद ही सुने।

हिंदी पत्रकारिता की सेहत और सुधरे, हम यही कामना करते हैं। हिंदी पत्रकारिता को जिन महापुरुषों ने शिखर पर पहुंचाया, उन्हें आत्मिक आदरांजलि।

(वर्तमान में दैनिक जागरण, नोएडा के आउटपुट हेड (दक्षिण हरियाणा) के पद पर कार्यरत लेखक के यह निजी विचार हैं)

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