होम / विचार मंच / पूंजीवादी व्यवस्था और भ्रष्टाचार के दीमक ने पत्रकारों को भी खोखला कर दिया है: निर्मलेंदु

पूंजीवादी व्यवस्था और भ्रष्टाचार के दीमक ने पत्रकारों को भी खोखला कर दिया है: निर्मलेंदु

पीत पत्रकारिता ने धीरे-धीरे अपना पांव पूरी तरह से पसार लिया है। पत्रकार बदला, पत्रकारिता बदली, पत्रकारिता के स्वरूप और मायने भी शनैः शनैः बदल गये हैं।

समाचार4मीडिया ब्यूरो 3 years ago

निर्मलेंदु, वरिष्ठ पत्रकार ।।

पीत पत्रकारिता ने धीरे-धीरे अपना पांव पूरी तरह से पसार लिया है। पत्रकार बदला, पत्रकारिता बदली, पत्रकारिता के स्वरूप और मायने भी शनैः शनैः बदल गये हैं। केवल यही नहीं, सिद्धांत, भाषा और नैतिक मूल्यों का धीरे-धीरे पतन हो रहा है। अब पत्रकारिता मिशन से प्रोफेशन बन गई है। इसका साक्षात उदाहरण यह है कि हाल के वर्षों में जिस गति से कुछ धनकुबेर अपना हित साधने के लिए मीडिया के माध्यम से अपना व्यवसाय साध रहे हैं, उसे देख कर यही लगता है कि अब समय और देशकाल के सापेक्ष पत्रकारिता की दिशा और दशा बदल रही है। शायद इसलिए अब संपादकों की एक नई फौज खड़ी हो गई है। दरअसल, इस फौज को पत्रकारिता से बिल्कुल मतलब नहीं। मतलब है, तो उन्हें सिर्फ और सिर्फ अपनी ‘जेब’ से। इन्हें देश के लिए चिंता नहीं। चिंता है, तो बस अपने व्यवसाय से, पैसे और ऐश-ओ-आराम से। टीआरपी से। कोरोना काल में भी टीआरपी के पेंच में लगे हुए हैं। सच तो यह है कि धीरे-धीरे संपादक नामक ‘संस्था’ का नाम लोप होता जा रहा है और इसीलिए संपादक के रूप में ब्रैंड मैनेजर का महिमा-मंडन हो रहा है।

यदि सत्तर के दशक को पत्रकारिता का ‘स्वर्ग काल’ माना जाए, तो ऐसी स्थिति में यदि यह कहें कि उस स्वर्ग काल के बाद धीरे-धीरे पत्रकारिता का क्षरण हुआ है, तो शायद गलत नहीं होगा। खासकर, न्यूज चैनल्स आने के बाद। दरअसल, कल और आज की पत्रकारिता में धरती और आसमान का अंतर आ गया है। न केवल पत्रकारिता के बुनियादी तत्वों में बदलाव आया है, बल्कि पत्रकारिता के स्तर में लगातार बदलाव दिख रहे हैं। हालांकि यह सच है कि तकनीक और रंगीन पृष्ठों का विकास जरूर हुआ है, लेकिन दुख तो इस बात का है कि पत्रकारिता पर व्यावसायिकता पूरी तरह से हावी हो गई है और पत्रकारिता पर व्यवसाय के हावी होने के कारण ही बाजार में बिकनेवाली आम सामग्री की तरह समाचार भी एक सामग्री बन कर रह गया है। न केवल अखबार, बल्कि न्यूज चैनल भी अब दूसरों को प्रचार देने के बजाय खुद को सर्वश्रेष्ठ साबित करने में लगे हुए हैं। ऐसे में यदि यह कहें कि बाजारवाद की दुहाई देकर न केवल पत्रकारिता ढनाढ्य वर्ग की रखैल बन गई है, बल्कि ज्यादातर पत्रकार जी-हुजूरी की भूमिका में जुट गये हैं, तो शायद गलत नहीं होगा। आश्चर्य की बात तो यह है कि दूसरों के लिए आवाज उठाने वाले ये तथाकथित पत्रकार आज अपने ही कर्मस्थल में शोषित और दमित हैं। चर्चा छिड़ते ही दबी जुबान में अपने बचाव में ये तथाकथित पत्रकार कहते हैं कि पापी पेट का सवाल है भाई। दरअसल, पूंजीवादी व्यवस्था और भ्रष्टाचार के दीमक ने पत्रकारों को भी खोखला कर दिया है। शायद, इसीलिए इन पत्रकारों की न इज्जत है और न ही सम्मान और न ही है ईमान धरम। आश्चर्य की बात तो यह है कि तथाकथित कुछ ‘बड़े’ पत्रकार भी इसी भ्रष्टाचाररूपी दलदल में फंस चुके हैं।

पत्रकार का मतलब होता है, एक आदर्शवान पुरुष और एक जानकार शिक्षक। पहले पत्रकारिता एक मिशन हुआ करती थी, लेकिन अब पत्रकारिता एक नौकरी का रूप ले चुकी है। या तो संपादक गायब हो चुके हैं, या फिर उनमें संपादकीय शक्ति का क्षरण हुआ है। 70 या 80 के दशक में पत्रकार अपने हक की लड़ाई के लिए एकजुट होकर लड़ते थे, लेकिन एक कटु सत्य यह भी है कि अब संस्था के आगे घुटने टेक देते हैं। अब तो खुलेआम पेड न्यूज, यानी खबरों को अपने पक्ष में छपवाने और दिखाने के लिए पैसे भी लेते हैं कुछ तथाकथित पत्रकार। केवल यही नहीं, खबर को न छापने या दिखाने के लिए भी पैसे दिये और लिये जाते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि मीडिया पर समाज अब भी बहुत भरोसा करता है, लेकिन साथ-ही-साथ समाज एक सवाल यह भी उठाता है कि क्या अब भी मीडिया पर भरोसा करना चाहिए?

हालांकि 70 और 80 के दशक में मीडिया पर लोगों का भरोसा अटूट था और दरअसल, इसीलिए इसी दशक में मीडिया के कुछ यंग संपादकों पर आम लोगों का भरोसा धीरे-धीरे बढ़ने लगा। राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी, धर्मवीर भारती। ‘रविवार’ नामक पत्रिका के माध्यम से एक आम पत्रकार के रूप में उभरे एसपी सिंह। रविवार और नवभारत टाइम्स से होते हुए जब ये शख्स खबरिया चैनल ‘आजतक’ में एक एंकर के रूप में दिखे तो लोगों ने उन्हें खूब देखा और सराहा। आश्चर्य की बात तो यह है कि एक अरसा गुजर जाने के बाद भी हिंदी पत्रकारिता में जिस इज्जत और आदर के साथ एसपी सिंह का नाम लिया जाता है, वह सचमुच सराहनीय और अतुलनीय है।

यदि यह कहें कि वर्तमान दौर में एसपी जैसा कोई नहीं, तो गलत नहीं होगा। हिंदी पत्रकारिता में संपादकों की ऋषिकुल परंपरा को हम सब न केवल जानते, बल्कि मानते भी हैं कि आखिरी प्रतिमान प्रभाष जोशी थे, तो ऐसी स्थिति में यह कहना बिल्कुल गलत नहीं होगा कि उसी परंपरा से एसपी का भी वास्ता रहा है। दरअसल, हम आज भी उन्हीं को संपादक के रूप में सम्मान और इज्जत देते हैं, जिन्होंने पत्रकारों को न केवल लिखने की आजादी दी, बल्कि साथ ही साथ सहूलियतें दीं और उनके अधिकारों के लिए आवाजें भी उठाईं। मेरा तो मानना यही है कि वही संपादक कहलाने के योग्य है, जिसने गली-मोहल्लों से सामाजिक सरोकार रखनेवालों को पत्रकारीय सरोकारों से जोड़ा और जिसने न तो पत्रकार बनाने वाली संस्थाओं पर भरोसा किया और न ही किसी पैरवी को तरजीह दी। अब सवाल यह उठता है कि क्या आज हमारे देश की तथाकथित संपादकीय बिरादरी में ऐसा कोई संपादक बचा है, जिसका नाम शिद्दत और इज्जत से लिया जा सके? क्योंकि यह हमारे चारों ओर मौजूद होता है, अतः यह निश्चित सी बात है कि इसका असर समाज के ऊपर भी पड़ेगा। किसी ने भले ही कितने परोपकारी कार्य किये हों और अगर मीडिया चाह ले तो उसकी छवि एक पल में धूमिल कर सकता है।

आज ब्लैकमेलिंग का जमाना है, और शायद इसलिए तमाम पत्रकार संस्थाएं पूर्ण रूप से व्यापारी बन चुकी हैं। मीडिया को लोकतंत्र का एक स्तम्भ हम सभी पत्रकारिता कहते हैं, लेकिन एक सच यह भी है कि तमाम मीडिया हाउस सरकार, पूंजीपतियों और बड़ी बड़ी कंपनियों पर आश्रित हो गए हैं। ऐसे में मीडिया की आजादी ही खतरे में आ गई है। दलाल, नेता, ब्रेकिंग न्यूज, टीआरपी बटोरने में सक्षम हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या मीडिया आज अपनी पहचान और अपना वजूद कायम रखने में सक्षम है? बस सवाल ये ही हैं।

पंडित नेहरू ने कहा था, प्रेस की संपूर्ण स्वतंत्रता चाहूंगा। भले ही इसकी कीमत स्वतंत्रता के दुरुपयोग के रूप में चुकाने का अंदेशा क्यों न हो, तो ऐसे में सवाल यह है कि यदि आज पंडित नेहरू जिंदा होते तो मीडिया की स्वतंत्रता के बदलते यथार्थ को देख अपनी कथनी को न्याय संगत न कहते?

आज अगर गणेश शंकर विद्यार्थी जिंदा होते, तो क्या वह देश के हालात पर कलम नहीं उठाते। सच को सच और झूठ को झूठ कह कर विरोध नहीं करते। कांग्रेस के विभिन्न आंदोलनों में भाग लेने तथा अधिकारियों के अत्याचारों के विरुद्ध निर्भीक होकर प्रताप में लेख लिखने के संबंध में वह 5 बार जेल गए और प्रताप से कई बार जमानत मांगी गई। क्या आज इस 21वीं सदी में कोई ऐसा है, जो पत्रकारिता की पवित्रता को अक्षुण्ण रख सके।

(लेखक दैनिक भास्कर, नोएडा संस्करण के संपादक हैं और ये उनके निजी विचार हैं)


टैग्स पत्रकार मीडिया पत्रकारिता निर्मलेंदु हिंदी पत्रकारिता दिवस वरिष्ठ पत्रकार
सम्बंधित खबरें

‘भारत की निडर आवाज थे सरदार वल्लभभाई पटेल’

सरदार वल्लभभाई पटेल का जीवन ऐसी विजयों से भरा था कि दशकों बाद भी वह हमें आश्चर्यचकित करता है। उनकी जीवन कहानी दुनिया के अब तक के सबसे महान नेताओं में से एक का प्रेरक अध्ययन है।

12 hours ago

भारत और चीन की सहमति से दुनिया सीख ले सकती है: रजत शर्मा

सबसे पहले दोनों सेनाओं ने डेपसांग और डेमचोक में अपने एक-एक टेंट हटाए, LAC पर जो अस्थायी ढांचे बनाए गए थे, उन्हें तोड़ा गया। भारत और चीन के सैनिक LAC से पीछे हटने शुरू हो गए।

2 days ago

दीपावली पर भारत के बही खाते में सुनहरी चमक के दर्शन: आलोक मेहता

आने वाले वर्ष में इसके कार्य देश के लिए अगले पांच वर्षों में दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने और 2047 तक एक विकसित राष्ट्र बनने की नींव रख सकते हैं।

2 days ago

अमेरिकी चुनाव में धर्म की राजनीति: अनंत विजय

अमेरिका में राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव प्रचार हो रहे हैं। डेमोक्रैट्स और रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवारों डोनाल्ड ट्रंप और कमला हैरिस के बीच बेहद कड़ा मुकाबला है।

2 days ago

मस्क के खिलाफ JIO व एयरटेल साथ-साथ, पढ़िए इस सप्ताह का 'हिसाब-किताब'

मुकेश अंबानी भी सेटेलाइट से इंटरनेट देना चाहते हैं लेकिन मस्क की कंपनी तो पहले से सर्विस दे रही है। अंबानी और मित्तल का कहना है कि मस्क को Star link के लिए स्पैक्ट्रम नीलामी में ख़रीदना चाहिए।

1 week ago


बड़ी खबरें

'जागरण न्यू मीडिया' में रोजगार का सुनहरा अवसर

जॉब की तलाश कर रहे पत्रकारों के लिए नोएडा, सेक्टर 16 स्थित जागरण न्यू मीडिया के साथ जुड़ने का सुनहरा अवसर है।

1 hour ago

‘Goa Chronicle’ को चलाए रखना हो रहा मुश्किल: सावियो रोड्रिग्स

इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म पर केंद्रित ऑनलाइन न्यूज पोर्टल ‘गोवा क्रॉनिकल’ के फाउंडर और एडिटर-इन-चीफ सावियो रोड्रिग्स का कहना है कि आने वाले समय में इस दिशा में कुछ कठोर फैसले लेने पड़ सकते हैं।

1 hour from now

रिलायंस-डिज्नी मर्जर में शामिल नहीं होंगे स्टूडियो के हेड विक्रम दुग्गल 

डिज्नी इंडिया में स्टूडियो के हेड विक्रम दुग्गल ने रिलायंस और डिज्नी के मर्जर के बाद बनी नई इकाई का हिस्सा न बनने का फैसला किया है

1 hour ago

फ्लिपकार्ट ने विज्ञापनों से की 2023-24 में जबरदस्त कमाई

फ्लिपकार्ट इंटरनेट ने 2023-24 में विज्ञापन से लगभग 5000 करोड़ रुपये कमाए, जो पिछले साल के 3324.7 करोड़ रुपये से अधिक है।

1 day ago

क्या ब्रॉडकास्टिंग बिल में देरी का मुख्य कारण OTT प्लेटफॉर्म्स की असहमति है?

विवादित 'ब्रॉडकास्टिंग सर्विसेज (रेगुलेशन) बिल' को लेकर देरी होती दिख रही है, क्योंकि सूचना-प्रसारण मंत्रालय को हितधारकों के बीच सहमति की कमी का सामना करना पड़ रहा है। 

1 day ago