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मिस्टर मीडिया: गांधी से साहसी पत्रकार कौन?

वे सरकार के उस फ़रमान को नही मानते, जिसमें कहा गया था कि सरकार की अनुमति के बिना कोई समाचारपत्र नहीं निकाल सकता। साथ ही एक शब्द भी बिना अनुमति के नहीं छप सकता...

राजेश बादल 5 years ago

राजेश बादल

वरिष्ठ पत्रकार

सारा देश गांधीमय है। इस बार याद के अहसास की तीव्रता तनिक ज़्यादा है। मीडिया भी हर बार की अपेक्षा इस बार अधिक स्थान राष्ट्रपिता को दे रहा है। सिर्फ़ इसीलिए नहीं कि यह साल महात्मा जी के जन्म का डेढ़ सौवां साल है ,बल्कि इसलिए कि इस बार सरकारी मशीनरी भी पुरजोर प्रयास कर रही है। अन्यथा हर बार दो अक्टूबर और तीस जनवरी को गांधी हमारे दिलों में जागता है और उसके बाद सो जाता है। मीडिया भी कोई अपवाद नहीं है। 

सवाल यह है कि आज कि पत्रकारिता में जो चुनौतियां हैं, उनका मुकाबला करने के लिए हमारे अंदर साहस है अथवा नहीं? क्या गांधी की पचपन साला पत्रकारिता से हमने कुछ ग्रहण किया है। गांधी ने तो साफ कहा था कि देश की आजादी के लिए मेरा  संघर्ष तो वही है  जो एक हिन्दुस्तानी को करना चाहिए। असल काम तो मेरा पत्रकारिता का है। मैंने जीवन भर पत्रकारिता ही की है और बिना समझे एक शब्द भी नहीं लिखा, न ही कोई शब्द अपनी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ लिखा है। तो अगर गांधी उस दौर में अपने साहस का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर सकते थे, जिस काल में गोरी हुकूमत  सर्वाधिक क्रूर और अमानवीय ढंग से व्यवहार कर रही थी। उनसे बड़ा साहसी पत्रकार कौन हो सकता था। 

याद करिए वायसरॉय पर जानलेवा हमले के बाद बर्तानवी सत्ता ने क्रांतिकारियों के प्रति अत्यंत हिंसक रवैया अख्तियार किया था। गदर पार्टी के सदस्यों, काकोरी केस के सेनानियों से लेकर जलियांवाला बाग़ नरसंहार और चंद्रशेखर आजाद,सरदार भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की शहादत। किशोरों तक को सूली टांगा जाने लगा था। सारा देश थर थर कांप रहा था। पूरे देश में डर की सत्ता थी।

ऐसे में 1919 में गांधी जी क़ानून का विरोध करते हैं। वे सरकार के उस फ़रमान को नही मानते, जिसमें कहा गया था कि सरकार की अनुमति के बिना कोई समाचारपत्र नहीं निकाल सकता। साथ ही एक शब्द भी बिना अनुमति के नहीं छप सकता। गांधी बिना इजाज़त सत्याग्रह का प्रकाशन करते हैं। वे संपादक की हैसियत से लिखते हैं कि सत्याग्रह का प्रकाशन बिना सरकारी आज्ञा लिए किया का रहा है और इसके कंटेंट की अनुमति भी नहीं ली जाएगी। यह तब तक जारी रहेगा, जब तक कि क़ानून वापस नहीं लिया जाता। ऐसा हुआ और जल्लाद सरकार देखती रही। यह था गांधी का साहस। उनकी पत्रकारिता सच का आग्रह करती थी। तभी तो वह सत्याग्रह था। इस निर्भीक पत्रकारिता का शतांश भी हम कर सकें तो शायद  आज की चुनौतियों का सामना कर पाएंगे। इस मंत्र को ध्यान में रखना होगा मिस्टर मीडिया!

 


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