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अजीत अंजुम ने माना कि ICU में जाने से बचा जाना चाहिए था
बिहार में खतरनाक बीमारी से कई बच्चों की हो चुकी है मौत
समाचार4मीडिया ब्यूरो 5 years ago
एक लाइन में कहूं तो मुझे आईसीयू में नहीं जाना चाहिए था। मैं गया भी नहीं था। मैं अपने कैमरामैन को Sri Krishna Medical College and Hospital (SKMCH) के निचले फ्लोर पर छोड़कर आईसीयू का हाल देखने गया था। जैसे ही दरवाजे के पास पहुंचा, एक नर्स ये कहते हुए तेजी से बाहर निकली और बाहर खड़े गार्ड को पूछती दिखी कि क्या तमाशा है, बच्चा मर गया, डॉक्टर साहब कहां हैं?
नर्स की बात सुनकर मेरा माथा ठनका। भीतर से जोर-जोर से रोने की आवाज आ रही थी। वो बच्चे की मां थी। मैंने तुरंत मोबाइल निकाला और बाहर कॉरिडोर में डॉक्टर को खोज रही नर्स का विडियो बनाना शुरू किया (वो विडियो इस पोस्ट के साथ है)। ये विडियो ही इस बात का सबूत है कि मैं वहां कैमरा लेकर भी नहीं गया था। मोबाइल से शूट करने के दौरान ही इशारों से रिपोर्टर को कैमरामैन बुलाने को कहा। नर्स बचाव की मुद्रा में आई। फिर मैं आईसीयू की तरफ गया। मोबाइल से ये विडियो रिकॉर्ड किया। पांच मिनट तक दरवाजे पर कैमरे का इंतजार करता रहा। भीतर से आ रहीं रोने की आवाजें मुझे विचलित करती रहीं। कैमरा आने के बाद जब मैंने डॉक्टर की गैरमौजूदगी पर रिकॉर्ड करना शुरू किया, तभी डॉक्टर आ गए। उनसे सवाल-जवाब के दौरान ही पता चला कि दूसरे आईसीयू में भी बच्चे की मौत हुई है।
डॉक्टर एश्वर्य ने जो बातें बताईं, वो हैरान करने वाली थीं। उन्होंने दवा, डॉक्टर, नर्स से लेकर सुविधाओं की कमी धाराप्रवाह होकर बताई। उन्होंने कहा कि एक सीनियर डॉक्टर के जिम्मे चार आईसीयू हैं, जबकि इससे काफी ज्यादा डॉक्टरों की तैनाती होनी चाहिए। उन्होंने कुछ दवाओं के नाम बताए, जो दूसरे और तीसरे लेवल की जरूरी दवा हैं, लेकिन यहां नहीं हैं। उन्होंने ये भी कहा कि मैनेजर से इन दवाओं की मांग की है, लेकिन नहीं मिली हैं। नर्स के बारे में उन्होंने कहा कि यहां ट्रेंड नर्स होनी चाहिए, जबकि ये सब स्टूडेंट्स नर्स हैं।
इतना सब बताने के लिए मैंने डॉक्टर एश्वर्य की तारीफ की और ये सोचकर वहां से निकल ही रहा था कि अब मेडिकल सुपरिटेंडेंट से किल्लतों के बारे में बात करूंगा, तभी एक शख्स की दनदनाते हुए आईसीयू में इंट्री हुई। वो शख्स एक बेड पर अपने बच्चे के इलाज के लिए शोर कर रही महिला को जोर-जोर से डांटने लगा। वो कह रहा था-चुप हो जाओ, नहीं तो उठाकर फिंकवा देंगे। मुझसे फिर रहा नहीं गया। मैंने कैमरा ऑन करवाया। उस शख्स के आखिरी शब्द मेरे कैमरे में रिकार्ड हैं। मैंने उस शख्स से पूछा कि आप इस महिला को क्यों डांट रहे हैं? ये भी पूछा कि आप कौन हैं? मेरे सवाल का जवाब उस शख्स ने नहीं दिया और कैमरा बंद कराने की कोशिश की। वहां मौजूद दो परिजनों ने रोते हुए अव्यवस्था की शिकायत की। ये जानकर और देखकर मेरे भीतर थोड़ा गुस्सा था। बाद में किसी ने बताया कि वो साहब स्थानीय पत्रकार हैं और अक्सर वहां देखे जाते हैं।
आईसीयू से मैं सीधा मेडिकल सुपरिटेंडेंट के कमरे में गया। उनसे अस्पताल की कमियों पर सवाल-जवाब किया। वो मानने को तैयार नहीं थे कि किसी तरह की कोई कमी है। उल्टे डॉक्टर एश्वर्य के खिलाफ गलतबयानी के लिए कार्रवाई की बात कहने लगे। मैंने उनसे कहा कि आप मेरे साथ आईसीयू चलिए और देखिए-सुनिए कि आपके डॉक्टर ही क्या कह रहे हैं। वो मेरे साथ चलने को तैयार हुए। उनके साथ हम दो आईसीयू तक गए। दोनों में उस वक्त भी डॉक्टर नहीं थे। आईसीयू में तैनात चार में से किसी भी नर्स को ये तक नहीं पता था कि किस डॉक्टर की यहां ड्यूटी है। ये सब देखकर मेडिकल सुपरिटेंडेंट ने भी कैमरे पर माना कि ऐसी आपात स्थिति में हर हाल में डॉक्टर को होना चाहिए था। ये गलत बात है। उन्होंने ये भी माना कि अस्पताल में डॉक्टरों की कमी है। मैंने उनसे बार-बार कहा कि आप सरकार से और यहां आ रहे मंत्रियों से क्यों नहीं कह रहे कि अतिरिक्त नर्सेज और डॉक्टर यहां भेजे जाएं। उन्होंने कहा भी कि इस बारे में बात की है और डॉक्टर व नर्स आने वाले हैं।
मेरा गु्स्सा इस बात को लेकर था कि डॉक्टर, दवा और नर्स की कमी का जो काम सबसे आसानी से हो सकता है, वो अब तक क्यों नहीं हुआ है। जिस अस्पताल में सत्तर-अस्सी बच्चों की मौत हो चुकी हो, केंद्रीय मंत्रियों के दौरे हो चुके हों, वहां का आईसीयू इंचार्ज अगर कहे कि बच्चों की जान बचाने के लिए जरूरी दवा और वेंटिलेटर जैसी सुविधाएं नहीं हैं, तो गुस्सा नहीं आना चाहिए?
मुझे तब तक पता चल चुका था कि अगले दिन केंद्रीय मंत्री हर्षवर्धन आने वाले हैं। मैं उनसे यही सब सवाल करने के लिए रुका रहा। डॉक्टर हर्षवर्धन के मुआयने के दौरान उन्हें ये सब बताने और पूछने के लिए पांच घंटे तक अस्पताल के बरामदे में मैं खड़ा रहा। डॉक्टर एश्वर्य ने जिन दवाओं की कमी का जिक्र किया था, वो सब मैंने उनके विडियो देखकर नोट किए। हर्षवर्धन मुझे अच्छी तरह से जानते हैं, लेकिन उस वक्त मेरे लिए वो सिर्फ स्वास्थ्य मंत्री थे, जिनसे सीधा सवाल पूछा जाना चाहिए था। मैंने उनसे पूछा भी, लेकिन उन्होंने नहीं माना। तब मैंने कहा कि आप अपने पीछे बैठे मेडिकल सुपरिटेंडेंट से पूछिए। जो सुपरिटेंडेंट साहब कल तक डॉक्टरों की कमी कबूल कर चुके थे, वो कोई भी कमी मानने को तैयार नहीं हुए।
मैं चाहता तो बहस कर सकता था, लेकिन मैंने प्रेस कॉन्फ़्रेंस की मर्यादा का ख्याल रखते हुए बात खत्म कर दी, वरना कहा जाता कि आप कोई एजेंडा लेकर आए हैं। वैसे भी ये कोई इंटरव्यू नहीं था कि मैं दस काउंटर सवाल पूछता। मैं मायूस भी हुआ कि आईसीयू के डॉक्टर से मिली जानकारी पर संज्ञान लेने की बजाय उसे हल्के में उड़ा दिया गया। मैं बदमगजी नहीं करना चाहता था, इसलिए चार-पांच सवालों के बाद चुप हो गया कि अब बाकी रिपोर्टर पूछें। वहां से चलने के बाद भी अफसोस करता रहा कि मैंने मोबाइल से विडियो निकालकर क्यों नहीं दिखाया, हंगामा होता तो होता।
खैर, अब आखिरी बात! इतना सब होने के बाद भी मैं ये मानता हूं कि मुझे आईसीयू में जाने से बचना चाहिए था। एक दिन पहले ही कई चैनलों पर आईसीयू से रिपोर्टर के वाकथ्रू चले थे। तब मुझे लगा था कि सही नहीं है। मुजफ्फरपुर जाने से पहले जब मेरे शो के दौरान आईसीयू की तस्वीरें प्ले की गई थीं, तो ऑनएयर मैंने कहा था कि आईसीयू की ऐसी तस्वीरें हम नहीं देखना चाहते, ये भी ऑनरिकॉर्ड है।
मैं जानता हूं कि आईसीयू का क्या प्रोटोकॉल होता है, लेकिन मुजफ्फरपुर जाकर लगा कि ये आईसीयू वो है ही नहीं, जिसकी छवि आपके दिमाग में है। मेरे जाने के पहले भी पचासों लोग बेरोकटोक वहां जा रहे थे और मेरे आने के बाद भी। रही बात ड्यूटी पर तैनात डॉक्टरों की, तो मैं नहीं कह रहा कि वो अपनी ड्यूटी में कोई कमी छोड़ रहे होंगे। कमी है तो डॉक्टरों की, नर्स की। अगर चार आईसीयू पर एक सीनियर डॉक्टर होगा तो वो कहां-कहां भागेगा। वो भी तब, जब हर बेड पर दो-दो बीमार बच्चे हों।
मेरी शिकायत, मेरा गुस्सा सिस्टम और सरकार से है कि बच्चों की मौतों का सिलसिला शुरू होने के बीस दिन बाद भी उस मेडिकल कॉलेज-अस्पताल की ऐसी हालत क्यों थी? क्यों नहीं पटना, दिल्ली या कहीं और से अतिरिक्त डॉक्टर बुला लिए गए? क्यों नहीं वहां दवा और वेंटिलेटर के पर्याप्त इंतजाम हुए? क्यों नहीं दस-बीस एंबुलेंस की तैनाती हुई? क्यों नहीं आपात स्थिति को देखते हुए दो-चार अस्थाई आईसीयू बना दिये गये?
ऐसे बीसियों सवाल मेरे जेहन में आज भी हैं। मैंने उन बच्चों के परिजनों को देखा है। वो इतने गरीब लोग थे कि कई के पास अपने बच्चे के बेजान जिस्म को घर ले जाने के लिए वाहन खर्च तक नहीं था। इसी से आप सोचिए कि जिनके पास अपने बीमार बच्चे को बचाने के लिए अस्पताल तक लाने के लिए दो-चार सौ रुपए नहीं होते, वो किस तबके के होंगे? करीब डेढ़ सौ बच्चों की मौत के बाद भयंकर गर्मी से त्रस्त वार्ड में कल कूलर लगा है। क्या कूलर के इंतजाम में बीस दिन लगने चाहिए था?
ये तो उत्तर बिहार के सबसे बड़े अस्पताल का हाल है, बाकी छोटे सरकारी अस्पतालों और पीएचसी की हालत पर अभी बात करना भी बेमानी है। इतना सब होने के बाद भी मैं आईसीयू में अपने जाने को जस्टीफाई नहीं कर रहा। आखिरी बात तो यही है कि बचा जाना चाहिए था।
(वरिष्ठ पत्रकार अजीत अंजुम की फेसबुक वॉल से)
अजीत अंजुम द्वारा रिकॉर्ड किया गया विडियो आप यहां देख सकते हैं-
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