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'मेनका गांधी के शब्दों पर सवाल उठाना आसान है, लेकिन उनके जैसा बनना नामुमकिन'

सोशल मीडिया पर मेनका गांधी के खिलाफ जंग छिड़ी हुई है। वेटनरी डॉक्टर उन्हें खुलकर निशाना बना रहे हैं। डॉक्टरों को मेनका गांधी के शब्दों पर आपत्ति है

नीरज नैयर 3 years ago

नीरज नैयर, युवा पत्रकार ।।

सोशल मीडिया पर मेनका गांधी के खिलाफ जंग छिड़ी हुई है। वेटनरी डॉक्टर उन्हें खुलकर निशाना बना रहे हैं। डॉक्टरों को मेनका गांधी के शब्दों पर आपत्ति है, जो उन्होंने वरिष्ठ डॉक्टर के खिलाफ इस्तेमाल किए। शब्दों की मर्यादा जब भी टूटती है, गुस्से का ज्वार फूटता है। न यह पहली बार हो रहा है और न आखिरी बार। ट्विटर पर बॉयकॉट मेनका गांधी ट्रेंड कर रहा है, जिसमें हर रोज सैंकड़ों ट्वीट शामिल हो रहे हैं। आवेश की इस वर्चुअल गंगा में ऐसे लोग भी अपने हाथ धो रहे हैं, जिनके खुद के हाथ कभी न कभी बेजुबानों के खून से रंगे होंगे। जाहिर, इस मुद्दे से लोगों को सांसद और पशुप्रेमी मेनका गांधी के खिलाफ जहर उगलने का मौका मिल गया है। निश्चित तौर पर विरोध में शामिल अधिकांश लोगों को यह भी नहीं पता होगा कि मामला क्या है और मेनका गांधी की नाराजगी की वजह क्या रही। अक्सर ऐसे मामलों में एक पक्षीय विचारधारा वाले एकजुट हो जाते हैं और यही एकजुटता किसी भी बात को बरगद के पेड़ जितना बड़ा कर देती है। 

जिस मामले पर बवाल हो रहा है वो दरअसल आगरा और गोरखपुर के वेटनरी डॉक्टरों को लेकर है। इसकी एक ऑडियो क्लिप भी वायरल हो रही है, जिसमें मेनका गांधी को तल्ख अंदाज में बात करते सुना जा सकता है। आज के आईटी युग में सोशल प्लेटफॉर्म पर आने वाली हर चीज को लेकर एक धारणा कायम कर ली जाती है और कोई नया व्यक्ति इस धारणा का हिस्सा बनेगा या नहीं ये वहां मौजूद ‘लाइक’, रीट्वीट और कमेंट आदि पर निर्भर करता है। यानी सीधे शब्दों में कहें तो लाइक-कमेंट सही को गलत और गलत को सही बनाने की ताकत रखते हैं। इसी वायरल क्लिपिंग में 70 हजार का जिक्र भी किया गया है, जो संभवतः डॉक्टरों ने कुत्ते के इलाज के लिए वसूले, लेकिन उसके बावजूद उसकी हालात खराब होती गई। क्या ये गौर करने लायक विषय नहीं है?     

अस्पताल में जब भारी भरकम फीस भरने के बावजूद लापरवाही से किसी मरीज की मौत हो जाती है, तो दुख से उपजे आक्रोश को सही करार देने वालों की फौज खड़ी हो जाती है। डॉक्टरों पर सवाल खड़े किए जाने लगते हैं, उनके लिए ‘पैसों के पुजारी’ जैसे शब्द गढ़े जाते हैं और जब बात बेजुबानों की आती है तो सबकुछ बदल जाता है। विरोध और गुस्से को लेकर ये दोगलापन किस लिए? मैं ये कतई नहीं कहता कि वेटरनरी डॉक्टरों की पूरी कौम खराब है। कई ऐसे डॉक्टर हैं, जो कार में आने वाले ब्रीड डॉग और सड़क पर घूमने वाले आवारा कुत्तों में कोई फर्क नहीं करते, क्योंकि उनकी संवेदनाएं पैसों के बोझ में दबी नहीं हैं। मैं खुद भी व्यक्तिगत तौर पर कई ऐसे डॉक्टर्स को जानता हूं। लेकिन ये कड़वी सच्चाई है कि अधिकांश वेटनरी डॉक्टर बेजुबानों को जेब भरने का साधन समझने लगे हैं और अपने पेट्स को लेकर इन डॉक्टरों के पास जाने वाले 10 में 8 लोगों को कभी न कभी इस सच्चाई का सामना करना पड़ा होगा। 

उन 8 लोगों में एक मैं भी हूं। कई मौकों पर मैंने वेटनरी डॉक्टरों की शपथ और उनके मिशन के बीच के अंतर को महसूस किया है। आगरा में कई सालों पहले एक रिटायर्ड वेटनरी डॉक्टर की वजह से मेरा जीता जागता डॉग बुत बनकर रह गया था। दरअसल, मैंने एक फीमेल डॉग रेस्क्यू किया था जिसका नाम था हैंसी। उसके पैर के पास सूजन ने मुझे विचलित किया और मैं उसे किसी बड़े खतरे से बचाने के लिए डॉक्टर के पास पहुंच गया। इससे अंजान की जिसे मैं खतरे से बचाने वाला समझ रहा हूं वो असल में खुद ही खतरा बन जाएगा। डॉक्टर ने मेरे पोमेरियन डॉग को तीन-चार काले पीले इंजेक्शन लगाए। उस समय न मुझमें इस विषय को लेकर खास समझ थी और न ही मैं डॉक्टर के अनुभव पर सवाल उठाना चाहता था। वापसी के कुछ घंटों बाद ही डॉग की हालत खराब होने लगी। जब मैं दोबारा क्लीनिक पहुंचा, तो डॉक्टर ने दो-तीन इंजेक्शन और लगा दिए गए। अगले 24 घंटों में हैंसी एक ऐसी बुत बन गई, जो सिर्फ कराह सकती थी। उसके हाथ-पैर अकड़ गए, जीभ मुंह से बाहर आ गई और उसने तड़प-तड़प कर दम तोड़ दिया। उस स्थिति में क्या मुझसे डॉक्टर के साथ शालीनता की उम्मीद की जा सकती थी?

कुछ सालों बाद मैंने एक और डॉग रेस्क्यू किया और उसका नाम भी हैंसी रखा। पुणे में रहने के दौरान अचानक एक दिन उसका शरीर एक तरफ मुड़ गया। कुछ हद तक वैसी स्थिति जब डॉग अपनी पूंछ पकड़ने के प्रयास में मुड़ते हैं। लगभग 20-25 किमी का सफर तय करके मैं एक विख्यात वेटनरी डॉक्टर के पास पहुंचा, जहां पुन: ये अहसास हुआ कि बेजुबानों के अधिकांश डॉक्टरों की संवेदनाएं मर चुकी हैं। मेरे डॉग की पीड़ा से डॉक्टर साहब का कोई लेना-देना नहीं था। वो औपचारिकता के लिए आए और बगैर फिजिकल एग्जामिन के आश्वासन दिलाया कि सबकुछ ठीक हो जाएगा। इसके बाद वह अपना लैपटॉप लेकर शेयर बाजार की दुनिया में व्यस्त हो गए और उनके नौसिखए सहायक एक के बाद एक टेस्ट करते गए। मेरे डॉग की मूल समस्या को छोड़कर उन्होंने सबकुछ किया। करीब 4 घंटे तक ये चलता रहा और साहब एक बार भी देखने नहीं आये। अंत में तकरीबन 20 हजार का बिल थामकर कहा गया कल आना, तब देखते हैं। इसके कुछ दिन बाद हमारी हैंसी सीनियर भी हमें छोड़कर चली गई। क्या इस स्थिति में मुझसे डॉक्टर के साथ शालीनता की उम्मीद की जा सकती है?

भोपाल में रहने के दौरान हाल ही में जब मैं एक घायल स्ट्रीट डॉग को वेटनरी डॉक्टर के पास लेकर गया, तो वहां भी पिछली बार जैसा अनुभव हुआ। एक स्वस्थ पैसे वाले कुत्ते की ग्रूमिंग कर रहे डॉक्टर ने तड़प रहे स्ट्रीट डॉग को देखने में कोई जल्दबाजी नहीं दिखाई। यहां तक कि उसे अंदर लाने भी नहीं दिया, वो काफी देर तक जमीन पर छटपटाता रहा। पैसे वालों से पैसा बनाकर जब साहब आए तो उसे हाथ से नहीं बल्कि अपने पैरों से एग्जामिन किया, जैसे वो कोई जीवित प्राणी नहीं बल्कि निर्जीव वस्तु है। क्या ऐसे डॉक्टरों के लिए सम्मान की उम्मीद की जानी चाहिए? 

मेनका गांधी के शब्दों पर आपत्ति जताकर उनके खिलाफ आपत्तिजनक शब्द इस्तेमाल करने वालों को पहले उस मालिक का दर्द भी समझना चाहिए, जिसके डॉग को मोटी फीस देने के बाद भी सही इलाज नहीं मिला। मेनका गांधी को मैं सालों से जानता हूं और उनसे मिलने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ है। सौभाग्य इसलिए कहूंगा, क्योंकि जितनी शिद्दत से वह बेजुबानों के लिए काम करती हैं, उनकी पीड़ा को अपनी पीड़ा समझती हैं, उतना कोई इंसानों के लिए भी नहीं कर सकता और ऐसी शख्सियत से मिलना मेरा सौभाग्य है। मेनका गांधी तक पहुंचना बाकी नेताओं तक पहुंचने जितना मुश्किल नहीं है, वह महज एक ई-मेल पर जानवरों की मदद के लिए उपलब्ध हो जाती हैं। दिन भर जानवरों के अधिकारों के लिए लड़ना, उन्हें क्रूरता से बचाने के प्रयास करना और व्यक्तिगत रूप से खुद एक-एक अपडेट लेना क्या कोई आसान काम है? संभव है कि इस आपा-धापी में गुस्से के ज्वार में शब्दों की सौम्यता कहीं बह गई हो, लेकिन इसके लिए मेनका गांधी के संपूर्ण जीवन, सामाजिक कार्यों पर प्रश्न चिन्ह लगाना। उनके लिए ‘घटिया’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल करना क्या जायज है? इस पर विचार किया जाना चाहिए। निसंदेह इस वर्चुअल तूफान का सामना भी वह बखूबी कर लेंगी। इसलिए नहीं कि वह सत्ताधारी पार्टी की सांसद हैं, बल्कि इसलिए कि उनके पास लाखों प्रशंसकों की शक्ति है। जो यह जानते हैं कि मेनका गांधी किसी बेजुबान के साथ गलत नहीं होने देंगी।


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