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मिस्टर मीडिया: महाराष्ट्र में क्यों चूके मीडिया के महारथी?
राजनीति में किसी भी घटना के अनेक पहलू होते हैं। पत्रकार के रूप में काम करते हुए हर कदम पर इन पहलुओं का ध्यान रखना पड़ता है
राजेश बादल 4 years ago
राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार।।
महाराष्ट्र की राजनीति बारह घंटे में उलट गई। त्रिकोणीय गठबंधन को शरद पवार के भतीजे ने पटखनी दे दी। बीते एक सप्ताह से अजित पवार अपनी खिचड़ी पका रहे थे। उनके वाद्य यंत्रों से अलग सुर निकल रहे थे। लेकिन मीडिया के तमाम अवतार मंच पर होने वाले नाटक और उसके अभिनेताओं की भूमिका पर ही नज़र बनाए हुए थे। परदे के पीछे चल रहे घटनाक्रम की वे उपेक्षा करते रहे। आमतौर पर हर छोटी-बड़ी कवरेज में ड्रेस से लेकर बॉडी लैंग्वेज तक के बारीक तार निकालने वाले मीडिया महारथी इस बार कुछ भी नहीं भांप सके।
राजनीति में किसी भी घटना के अनेक पहलू होते हैं। पत्रकार के रूप में काम करते हुए हर कदम पर इन पहलुओं का ध्यान रखना पड़ता है। महाराष्ट्र के मामले में साफ कहा जा सकता है कि अखबार और टेलिविजन के संवाददाता चूक गए। सवाल यह खड़ा होता है कि पत्रकारिता में यह लड़खड़ाहट क्या एक दिन में आई है अथवा विश्लेषण या आकलन का अभ्यास धीरे-धीरे चटकता जा रहा है। यदि हां, तो इस चटकन का कारण क्या है?
इतने घंटे बीत जाने के बाद भी महाराष्ट्र के राजनीतिक ड्रामे की पटकथा के अनेक पन्ने मीडिया के मंचों पर फड़फड़ा रहे हैं, लेकिन उसमें लिखे संवाद किसी भी चैनल में अब तक नहीं आए हैं। रातों रात इस नाटकीय परिवर्तन के पीछे कुछ सवाल भी उभरते हैं। इन सारे प्रश्नों को अभी तक छोटे परदे पर स्थान नहीं मिला है। अजित पवार कुछ समय से अपने अलग रंग में थे। खोजी राजनीतिक पत्रकार इन रंगों को नहीं देख सके।
जब सरकार ही अस्तित्व में नहीं है तो किसानों के नाम पर शरद पवार की करीब घंटे भर प्रधानमंत्री से गोपनीय बैठक का कोई और कारण क्यों नहीं हो सकता? इसे किसी ने नहीं पढ़ा। आमतौर पर बेहद आक्रामक और बयान युद्ध में बाजी मारने वाली भारतीय जनता पार्टी ने चंद रोज से अप्रत्याशित खामोशी क्यों ओढ़ ली थी? क्या किसी ने इसकी पड़ताल करने की कोशिश की? यह भी कि शांति से चल रहे राष्ट्रपति शासन पर ऐसा क्या आपातकाल आ पड़ा कि राजभवन और राष्ट्रपति भवन को अपने प्रोटोकॉल व परंपरा से हटना पड़ा।
अंधेरी काली रात में किसी ने बहुमत का दावा किया। आधी रात को राज्यपाल को जगाकर उन्हें समर्थन देने वाले राजनेता मिलते हैं। राज्यपाल रात में ही राष्ट्रपति भवन को खबर देते हैं। तड़के ही राष्ट्रपति भवन का सचिवालय हरकत में आता है। राष्ट्रपति शासन हटा लिया जाता है। नोटिफिकेशन हो जाता है। नए मुख्यमंत्री की शपथ भी हो जाती है।
राजनीतिक शिष्टाचार का पालन नहीं करते हुए सन्नाटे में शपथ का यह अनूठा नमूना है। राजभवन इससे अपने आपको सवालों के घेरे में लाया है। मीडिया के कितने मंचों पर इस बारे में खुलकर चर्चा हुई? अजित पवार को तो त्रिकोणीय गठबंधन में भी उप मुख्यमंत्री पद मिलना था। उसके पीछे की कहानी क्या है? अभी भी एनसीपी के 54 विधायकों के हस्ताक्षर, देवेंद्र फडणवीस को बहुमत, उनकी संवैधानिक स्थिति और दलबदल कानून के अनेक पृष्ठों को पलटने की आवश्यकता है।
दरअसल बीते एक दशक में पत्रकारिता धर्म निभाने में वैचारिक और संपादकीय पक्ष कमजोर पड़ता दिखाई दिया है। सिर्फ सूचना प्रधान पत्रकारिता ही अस्तित्व में रही है। मैनेजमेंट भी अपने रोल पर काम कर रहे पत्रकारों से यही चाहता रहा है कि वह जिस राजनीतिक दिशा में जा रहा है, वे सब उसका पालन करें। पत्रकारों और संपादकों की अपनी योग्यता तथा सियासी समीक्षा इससे अत्यंत दुर्बल होती गई। बीट पर काम कर रहे संवाददाता भी यह सोचकर खबर छोड़ देते हैं कि उनकी जानकारी को समाचारपत्र या समाचार चैनल में जगह नहीं मिलेगी।
इसका नुकसान यह हुआ कि जमीनी सूचनाओं, विश्लेषणों व निष्कर्षों के लिए दरवाज़ा बंद हो गया। दोनों ही स्थितियों में क्षति पत्रकारिता को हुई और राजनीति ने इसका फायदा उठाया। एक तरह से किसी राजनीतिक दल को कवर करने वाले पत्रकार के लिए उस पार्टी को पसंद आने वाली खबरों को परोसना ही कर्तव्य हो गया। उसे अपनी बीट वाले दल के भीतर चल रही उठापटक और खींचतान से आंखें मूंदना पड़ा। अपने इस गंभीर आंतरिक संकट को समझने का प्रयास कीजिए मिस्टर मीडिया!
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
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