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भारतीय पत्रकारिता के लिए कई मायनों में टर्निंग पॉइंट रहा है 2023: खुशदीप सहगल

आज देश में एक भी ऐसा मीडिया संस्थान या पत्रकार (मेरे समेत) नजर नहीं आता, जो पूरी तरह निष्पक्ष होकर सिर्फ जनता के हक में ही आवाज बुलंद करे।

समाचार4मीडिया ब्यूरो 9 months ago

पत्रकारिता को होना था मोमबत्ती, बन गई अगरबत्ती

खुशदीप सहगल, वरिष्ठ पत्रकार ।।

2023 भारतीय पत्रकारिता के लिए कई मायनों में टर्निंग पॉइंट रहा। इस साल मेनस्ट्रीम मीडिया को यूट्यूब जैसे वैकल्पिक माध्यमों से कड़ी चुनौती मिली। ये वक्त ऑडियन्स (पाठक, दर्शक, श्रोता) में साख कायम रखने का है। यही वो ग्रे एरिया है जहां, मेनस्ट्रीम और वैकल्पिक दोनों तरह के मीडिया हांफते नजर आ रहे हैं।

AI, डीपफेक, नित नई आधुनिक तकनीक के चलते पत्रकारों का काम और भी चुनौतीपूर्ण हो गया है। क्या सच है, क्या झूठ अब ये पहचानना और मुश्किल हो गया है। ऐसे में स्वतंत्र फैक्ट चेकर्स की भूमिका काफ़ी अहम हो गई है। अब खबरें सबसे पहले X (पूर्व ट्विटर) जैसे प्लेटफॉर्म्स पर ब्रेक होती हैं। अब वो जमाने लद गए जब नेता के घर बाहर जुटकर रिपोर्टर खबर ब्रेक करते थे। अब कोई पत्रकार ओपन सोर्स इंटेलीजेंस (OSINT) को खंगालने में महारत रखता है तो डेस्क से ही बड़ी खबर ब्रेक कर सकता है।

मेनस्ट्रीम मीडिया आज जहां सत्ता पक्ष में झुकाव की वजह से अंधभक्ति के कटघरे में खड़ा नजर आता है, वहीं वैकल्पिक मीडिया के कुछ जाने-माने नाम (जो मेनस्ट्रीम मीडिया में हाशिए पर धकेल देने की वजह से यूट्यूब से जुड़े) हर वक्त अंधविरोध की माला जपते दिखते हैं। यही वजह है कि इन यूट्यूबर पत्रकारों को जो भी टीआरपी मिल रही है वो सिर्फ सत्ता पक्ष के विरोधियों से ही मिल रही है। हर किसी का अपना स्वार्थ पहले है और इसी हिसाब से उसकी पत्रकारिता है।

आज देश में एक भी ऐसा मीडिया संस्थान या पत्रकार (मेरे समेत) नजर नहीं आता, जो पूरी तरह निष्पक्ष होकर सिर्फ जनता के हक में ही आवाज बुलंद करे। जिसकी कही बात पर देशवासी आंख मूंद कर भरोसा कर सकें। कवि सरल सम्पत के शब्दों में कहा जाए तो पत्रकारिता को कायदे से जनता को प्रकाश दिखाने वाली मोमबत्ती बनना चाहिए, लेकिन वो बन गया निहित स्वार्थों की बनावटी खुशबू देने वाली अगरबत्ती।

सत्यम शिवम सुंदरम यानि जो सत्य है वही शिव है और शिव ही सुंदर है। लेकिन आप दिल पर हाथ रखकर बताइए, पिछले कुछ साल में एक भी ऐसी खोजपरक रिपोर्ट का हवाला दीजिए, जिसने सच उधेड़ कर राजनीति के गलियारों को हिला दिया हो। अब तो ऐसा लगता है जैसे कि हम पत्रकारिता के ‘सत्यम छुपम, दिखम सुंदरम’ दौर में जी रहे हैं।

नेता जो कहते हैं उसे एम्पलीफाई करना पत्रकारिता नहीं है। नेता जो जनता से छुपाना चाहते हैं, उसे सामने लाना पत्रकारिता है। इसके लिए ‘Between the lines’ पढ़ने और फिर उसे लोगों को समझाने की कला पत्रकार को आनी चाहिए।

2023 में भारतीय मीडिया ने ऐसा लम्हा भी देखा, जो आज़ाद भारत के इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ। विपक्षी पार्टियों के गठबंधन (राजनैतिक दलों को अपनी ओर से इंडिया कह कर प्रचारित करने का मैं अनुमोदन नहीं करता) की ओर से न्यूज चैनल्स के 14 एंकर्स का बहिष्कार किए जाना। स्वस्थ लोकतंत्र की पहचान सत्ता पक्ष के साथ मजबूत विपक्ष की मौजूदगी भी होता है। ऐसे में विपक्ष पक्षपात का आरोप लगाता है तो ये मीडिया में हर किसी के लिए आत्मचिंतन की बात है।

ग़लती दोनों तरफ़ से हो रही है। जिन एंकर्स के नाम विपक्षी गठबंधन ने गिनाए, उन्होंने इसे सीने पर बैज की तरह प्रचारित किया। कहा, हमें विपक्ष से सवाल पूछने का ये सिला मिला। यानि लोकतंत्र का एक अहम हिस्सा (विपक्ष) मिल कर आपको कटघरे में खड़ा कर रहा है, तो भी आपको कोई मलाल नहीं। दिल पर हाथ रख कर ये सोचने की जगह कि सत्तापक्ष से पिछले नौ साल में कितने सवाल पूछे, हमने क्यों नहीं कर्ताधर्ता को पिछले नौ साल में एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस करने के लिए मजबूर किया। उलटे इन 14 में से कई एंकर्स ने अपनी शान में ट्वीट भी किए, मानों कह रहे हों- “हम तो यूं ही चलेंगे”।

जैसे हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। ऐसे ही यहां भी है। विपक्षी गठबंधन ने भी ये फैसला लेने से पहले क्यों नहीं सोचा कि ये एंकर्स तो किसी की नौकरी बजा रहे हैं, जो संस्थान उन्हें ऐसा करने की छूट दे रहे हैं, उनका बहिष्कार करने की हिम्मत क्यों नहीं दिखाई। रवीश कुमार जिस तरह की पत्रकारिता करना चाहते थे, वो मेनस्ट्रीम मीडिया में रहते हुए भी कर पाए, क्योंकि एनडीटीवी इंडिया में उनके पीछे डॉ. प्रणय रॉय मजबूती से खड़े थे। उनके हरी झंडी दिए बिना क्या रवीश ऐसा कर पाते। वरना वो भी मेनस्ट्रीम मीडिया में हाशिए पर धकेल दिए गए होते।

आखिर में मेरा मीडिया में सभी से एक सवाल- आपकी पत्रकारिता नेताओं, क्रिकेटर्स, फिल्म स्टार्स से शुरू होकर उन्हीं पर क्यों खत्म हो जाती है। अरे भाई लोगों, देश में एक अरब चालीस करोड़ लोग हैं तो उतनी ही कहानियां भी होंगी, उस ओर भी आपकी नजर क्यों नहीं मुड़ती?

पत्रकारिता के पितामह गणेश शंकर विद्यार्थी ने कहा था- पत्रकार को हमेशा सच के साथ रहना चाहिए, तभी वो जनता का हित कर सकता है। उसे ये देखना चाहिए कि छुपाया क्या-क्या जा रहा है और बताया क्या जा रहा है। लेकिन विद्यार्थी जी ने ये रास्ता देश में आखिरी पायदान पर खड़े व्यक्ति की भलाई के लिए सुझाया था, अपने स्वार्थ या हित साधने के लिए नहीं।

लता जी का एक गाना था-

हम ने देखी है उन आंखों की महकती खुशबू

हाथ से छू के इसे रिश्तों का इल्जाम न दो

सिर्फ एहसास है ये रूह से महसूस करो

प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो...

इसलिए, पत्रकारिता को पत्रकारिता ही रहने दो
इसे किसी से रिश्ते का इल्जाम न दो…


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