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मिस्टर मीडिया: सरकारी मीडिया की साख़ भी लगी है दांव पर
सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव पत्रकारिता का बहुत सम्मान और साख़ बढ़ाने वाले नहीं हैं
राजेश बादल 5 years ago
राजेश बादल
वरिष्ठ पत्रकार।।
सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव पत्रकारिता का बहुत सम्मान और साख़ बढ़ाने वाले नहीं हैं। निजी क्षेत्र के मीडिया पर हम इस स्तंभ में काफी चर्चा कर चुके हैं। इस बार सरकारी माध्यमों की भूमिका और उनकी ज़िम्मेदारी की बात। चुनाव की तारीख़ों का ऐलान होने के बाद आकाशवाणी केंद्रों के समाचार, दूरदर्शन का कवरेज और उसके प्रोफेशनल्स की पत्रकारिता सारा देश देख रहा है। इसके अलावा भारतीय संसद के दोनों चैनलों की निरपेक्षता भी समीक्षकों की बारीक़ नज़र से छिपी नहीं है।
इस सप्ताह चुनाव आयोग को एक रिपोर्ट मिली। इसके मुताबिक़ दूरदर्शन और इसके क्षेत्रीय चैनलों पर एक महीने में भारतीय जनता पार्टी को 160 घंटे और कांग्रेस को केवल 80 घंटे स्थान मिला। ज़ाहिर है कि अन्य राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों की हालत इससे बेहतर नहीं है। दूरदर्शन का चुनावी राजनीतिक कवरेज निष्पक्षता और संतुलन के बुनियादी सिद्धांत का पालन नहीं कर रहा है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने प्रसार भारती प्रबंधन को चुनाव आयोग के इस निष्कर्ष से अवगत करा दिया है। दूरदर्शन को संपादकीय सामग्री पर निगरानी के लिए एक कमेटी बनानी पड़ी है। यह कमेटी चुनाव आयोग को समय-समय पर अपने आंकड़ों और सामग्री की जानकारी देगी। प्रसारभारती के मुख्य कार्यकारी अधिकारी शशि शेखर वेम्पती ने चुनाव आयोग से संतुलित और निष्पक्ष कवरेज का वादा किया है। ग़ौरतलब है कि चुनाव आयोग ने यह रिपोर्ट कांग्रेस की शिक़ायत पर मांगी थी। शिक़ायत में कहा गया था कि दूरदर्शन जानबूझकर कांग्रेस को पर्याप्त स्थान नहीं दे रहा है। जांच में यह सच पाया गया।
इन दिनों आकाशवाणी के अधिकांश बुलेटिन प्रधानमंत्री के भाषणों या उनके कार्यक्रमों से प्रारंभ होते हैं। बारीक अंतर यह है कि विपक्ष के सेकंड और मिनट उनके नेताओं के यात्रा कार्यक्रमों की जानकारी देने में निकल जाते हैं और उसी समय में सत्तारूढ़ दल के नेताओं ख़ासकर प्रधानमंत्री के संबोधनों से समाचार निकाल कर प्रसारित किए जाते हैं। यानी समय में चाहे बेशक़ बराबरी दिखाई दे, मगर उस अवधि के कंटेंट में काफी अंतर होता है। इसे कोई भी कैसे रोक सकता है। इसी तरह चुनाव पर केंद्रित जनादेश में अव्वल तो पसंदीदा पत्रकार बुलाए जाते हैं, जिससे आलोचना का स्वर न के बराबर रहे। इसके बावजूद जब कार्यक्रम का पुनर्प्रसारण होता है तो उसमें भी संपादित अंश होते हैं। स्पष्ट है कि इसमें से बीजेपी के पक्ष में धुन निकलती है। यहां तक कि एनडीए के सहयोगी दलों को भी पर्याप्त स्थान नहीं मिल रहा है। मुझे यह देख-सुन कर 1977 की आकाशवाणी की याद आ रही है। भले ही यह संस्था सरकारी भौंपू बन गई थी, मगर सत्तारूढ़ दल को फ़ायदा दिलाने में नाकाम रही थी।
संसद के दोनों चैनल अपनी स्थापना के कई साल तक निष्पक्ष पत्रकारिता से पहचान बना चुके थे। इन दिनों ये चैनल भी सवालों के घेरे में हैं। संसद के दोनों सदनों में प्रतिपक्षी दलों की संख्या के अनुपात में चैनलों पर स्थान नहीं मिल रहा है। ज़ाहिर है इससे पेशेवर छबि को धक्का पहुंचा है। इस सिलसिले में मुझे पूर्व थलसेनाध्यक्ष जनरल वीपी मलिक की एक टिप्पणी याद आ रही है। तेरह साल पहले कारगिल युद्ध पर उनकी एक किताब ‘कारगिल-एक अभूतपूर्व विजय’ आई थी। इसमें उन्होंने कारगिल युद्ध के बाद चुनाव के दिनों में मीडिया की भूमिका पर अपनी बेबाक राय रखी थी। उनका अनुभव था कि मीडिया ने जानबूझकर ग़लत रिपोर्टें दीं। रिपोर्टों की प्रकृति दुष्टतापूर्ण और निंदनीय थी। जनरल मलिक का यह आकलन भी था कि सरकार प्रभावित मीडिया स्वतंत्र रूप से काम नहीं कर पाता। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि सरकारी और नियुक्त अथवा प्रायोजित मीडिया भारत में सफल नहीं हो सकता। इस तरह पेशेवर सिद्धांतों से हटने के कारण साख़ दांव पर लग जाती है मिस्टर सरकारी मीडिया!
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