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मिस्टर मीडिया: सरोकारों वाले सफ़र पर साख़ का विकराल संकट
हिंदी पत्रकारिता के सफरनामे को लेकर राजेश बादल ने उठाए कई सवाल
राजेश बादल 5 years ago
सात साल बाद हिंदी पत्रकारिता के दो सौ साल पूरे हो जाएँगे। उदन्त मार्तण्ड 30 मई 1826 को निकला। तब किसी ने सपने में भी न सोचा होगा कि एक दिन यह विधा विराट वटवृक्ष बन जाएगी। संसार में हिंदी पत्रकारिता का अपना ख़ास मुक़ाम होगा और लाखों लोगों के लिए रोज़गार का ज़रिया होगी।
क़रीब दो सौ साल का यह सफ़रनामा कैसा रहा। क्या हम वह सब कर पा रहे हैं, जो आज़ादी से पहले हमारे पूर्वज पत्रकार कर गए। उन दिनों सिर्फ़ एक ही मिशन था-आज़ादी। उस राह पर चलते हुए अनगिनत देशप्रेमी पत्रकारों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। इन दो सौ वर्षों में हमने पाया एक बड़ा बाज़ार और उसके दबाव,आधुनिकतम तकनीक और उसके दबाव,पेशेवर अड़चनें और उसके दबाव तथा शोषण भरा माहौल। इसके उलट खोया क्या-बड़े संघर्ष से संचित साख, सरोकारों वाली पत्रकारिता,हिंदी भाषा के प्रति प्रेम,पढ़ने की आदत और सिद्धांतों की ख़ातिर संघर्ष करने की भावना।
अपनी ही राष्ट्रभाषा हिंदी में पत्रकारिता का यह लंबा सिलसिला हमारे भीतर आज गर्व का अहसास क्यों नहीं कराता? हिंदी समाचार पत्रों का विशाल नेटवर्क ठंडा और निस्तेज सा क्यों लगने लगा है? दुनिया में सबसे तेज़ रफ़्तार से खड़ी होने वाली भारतीय टेलिविज़न इंडस्ट्री के हिंदी ख़बरिया चैनल सवालों के घेरे में क्यों रहते हैं? वे सूचनादाता कम,पार्टियों के भौंपू क्यों लगते हैं? निजी रेडियो तंत्र को सरकार अपनी ख़बरें प्रसारित करने की छूट क्यों नहीं देती, सोशल मीडिया के तमाम अवतार वरदान की जगह अभिशप्त मुद्रा में क्यों दिखाई देते हैं? इन सभी प्रश्नों का आकार दिनोंदिन और विकराल आकार क्यों लेता जा रहा है? हिंदी पत्रकारिता के इस मौजूदा पड़ाव पर इन सवालों का उत्तर खोजने की ज़रूरत है।
हो सकता है कि कुछ पत्रकार साथी इस टिप्पणी में निराशावादी सोच की झलक देखें। वे इसके लिए स्वतंत्र भी हैं। मगर विनम्र निवेदन है कि उपलब्धियों से भरे ख़ज़ाने तब तक रीते रहते हैं, जब तक कि उसके आभूषण पत्रकारिता की धड़कती देह पर नहीं सजते। देह की आत्मा पत्रकारिता के मूल्य और सरोकार हैं। अगर कोई क़ौम उन्हें भूल जाए तो मुर्दा देह के सहारे देश की पत्रकारिता नहीं चल सकती। सच है कि दो हज़ार उन्नीस के भारत में महात्मा गांधी, गणेश शंकर विद्यार्थी, सरदार भगतसिंह, माधवराव सप्रे, माखनलाल चतुर्वेदी और पराड़करजी के पत्रकारिता आदर्श जस के तस नहीं माने जा सकते।
यह भी सच है कि बनारसी दास चतुर्वेदी,शामलाल, गिरिलाल जैन,कुलदीप नैयर, राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी और सुरेन्द्र प्रताप सिंह ने जैसी पत्रकारिता की, उसके लिए भी संभावनाएँ आज के दौर में सिकुड़ती जा रही हैं। वर्तमान पत्रकारिता में हिन्दुस्तान कहीं खो गया है। भयावह सिलसिला है। फिर भी हर कालखंड अपने साथ अनंत संभावनाएँ लेकर भी आता है। नई चुनौतियाँ सामने आती हैं तो नए महानायक भी उभरते हैं। शोषण और बाज़ार के दबावों से मुक्त होने के लिए इस अँधेरी हो रही कोठरी में कोई तो रौशनदान खुलेगा। तीस मई के अवसर पर हम यह अपेक्षा तो कर ही सकते हैं।
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