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मिस्टर मीडिया: ग़ैरज़िम्मेदारी के 3 उदाहरण भारतीय मीडिया के औसत चरित्र को उजार करते हैं

अच्छी पत्रकारिता करने के लिए किसी तरह की प्रतिद्वंद्विता नहीं होती

राजेश बादल 5 years ago

हद है। इससे नीचे और कहाँ तक जा सकते हैं? शायद इन दिनों यही होड़ बची है। अच्छी पत्रकारिता करने के लिए प्रतिद्वंद्विता नहीं होती। घटिया से घटिया हरक़तों के ज़रिये अपने आपको निर्वस्त्र दिखाने पर तुले हुए हैं। अपने दिमाग़ों की अश्लील सड़ाँध को सोशल मीडिया पर परोसकर अपनी बदबू फैलाने में शर्म भी महसूस नहीं करते। वैचारिक मीडिया से रिश्ता रखने वाली एक भद्र महिला ने लंदन में अपने एक मित्र से गांधी और नेहरू के समलैंगिक रिश्तों के बारे में सुना। उस सुनी सुनाई बात को मीडिया में विस्तार दे दिया। न मित्र के पास कोई सुबूत और न इन भद्र महिला के पास कोई प्रमाण। चटख़ारे लेने के लिए भारत के दो शिखर पुरुष ही बचे थे? वह भी उस स्थिति में, जब अपने पर लग रहे आरोपों के बारे में क़ैफ़ियत देने के लिए दोनों राष्ट्रनेता इस लोक में नहीं हैं।

मीडिया की ज़िम्मेदारी सभी पक्षों से बात करके किसी तथ्य को पेश करने की होती है। इस मामले में तो सब ताक में रख दिया गया। इन विद्वान महिला ने किसी ज़माने में अपने प्रगतिशील विचारों से हिन्दुस्तान में स्त्री विमर्श को नया मोड़ दिया था। अब उन्हीं के हवाले से यह बेहूदा,अभद्र,अशालीन, अश्लील और अमर्यादित टिप्पणी अत्यंत दुखद है। हज़ारों साल की संस्कृति पर गर्व करने वाले मुल्क़ में अब संस्कारों का इतना अकाल है कि पूर्वजों पर निशाना साधते लाज भी नहीं आती।

सवाल यह है कि एक डंडा-ठोक आचार संहिता हमारे ऊपर क्यों नहीं होनी चाहिए? मीडिया की आज़ादी के नाम पर अपने अश्लील कल्पना लोक की सार्वजनिक नुमाइश आप क्यों करना चाहते हैं? गांधी, नेहरू, आंबेडकर, इंदिरा, राजीव, अटल बिहारी और नरेन्द्र मोदी से लेकर स्मृति ईरानी तक हम किसी को नहीं छोड़ते। उनके कार्यों का मूल्यांकन हम नहीं करना चाहते। हमें सिर्फ़ उनके लैंगिक रिश्तों में आनंद आता है।

दो दिन पहले एक और पढ़ी-लिखी महिला पर गुजरात के एक विधायक ने पाशविक अत्याचार किया। हमने उसकी तस्वीर धड़ल्ले से दिखाई। न केवल दिखाई, बल्कि पहचान भी उजाग़र की। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश का भी हमने मख़ौल उड़ाया। क्या मानहानि और मर्यादा के संबंध में बुनियादी क़ानून भी हम नहीं जानते। हो सकता है-कुछ लोग यह कुतर्क करें कि मीडिया इस तरह से न दिखाता तो विधायक अपनी करतूत की माफ़ी भी न माँगता। पर यह भ्रम है। विधायक का हृदय परिवर्तन नहीं हुआ है। उसने सिर्फ़ पार्टी की कार्रवाई से बचने के लिए ऐसा किया है। इस घटना के बाद भी उसके आचरण में बदलाव नहीं आने वाला है। लेकिन मीडिया ने उस सम्मानित महिला को अवश्य सार्वजनिक रूप से अपमानित कर दिया है। इस घटना के कवरेज का और भी शिष्ट तरीक़ा हो सकता था। टीआरपी बटोरने के लिए हम कुछ भी दिखाने के लिए स्वच्छंद नहीं हैं, न ही क़ानून तोड़ सकते हैं।

तीसरा उदाहरण भी इसी सप्ताह का है। भूटान के प्रधानमंत्री आए और भारतीय मीडिया का स्तर देख कर चुपचाप चले गए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शपथ समारोह में भूटान से शिरक़त करने आए प्रधानमंत्री ने पाया कि हिन्दुस्तान में उनके स्थान पर पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री की फोटो लगाई गई है। वे तो ख़ामोश रहे, मगर पूर्व प्रधानमंत्री अपने को रोक नहीं पाए। उन्होंने तो यहाँ तक कहा कि अगर किसी देश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्थान पर किसी और की फोटो लगा दी गई होती तो भारतीय मीडिया बखेड़ा खड़ा कर देता।

यह भी ग़ैरज़िम्मेदार पत्रकारिता का एक नमूना है। परदेसी राजनयिकों-राष्ट्राध्यक्षों के नाम और तस्वीर को लेकर हम इतने लापरवाह हो जाते हैं कि उसको क्रॉस चेक करने की ज़रूरत भी नहीं समझते। वह भी जब, भूटान जैसा पड़ोसी-एकदम भारत के एक राज्य की तरह घरेलू रिश्तों वाला मुल्क़ हो। इस त्रुटि के लिए क्या किसी को माफ़ किया जा सकता है? एक ही सप्ताह में ग़ैरज़िम्मेदारी के तीन उदाहरण भारतीय मीडिया के औसत चरित्र को उजागर करते हैं। क्या हम उस चरम स्थिति का इंतज़ार कर रहे हैं, जब दर्शक, पाठक और श्रोता ग़लतियों (मेरी नज़र में अपराध) के लिए सार्वजनिक रूप से हमारा मान मर्दन करने लगें? कुछ तो सीखिए मिस्टर मीडिया!

वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल की 'मिस्टर मीडिया' सीरीज के अन्य कॉलम्स आप नीचे दी गई हेडलाइन्स पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं-

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