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मिस्टर मीडिया: सरकार इस समय मीडिया से इतनी असुरक्षित-असहज क्यों महसूस कर रही है

इन दिनों पत्रकारिता तलवार की नोक पर चलने जैसी हो गई है। ‘द वायर’ के खिलाफ उत्तर प्रदेश सरकार ने एफआईआर दर्ज की है। स्पष्टीकरण के बावजूद यह रवैया बेहद आपत्तिजनक है।

राजेश बादल 4 years ago

राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार ।।

इन दिनों पत्रकारिता तलवार की नोक पर चलने जैसी हो गई है। ‘द वायर’ के खिलाफ उत्तर प्रदेश सरकार ने एफआईआर दर्ज की है। स्पष्टीकरण के बावजूद यह रवैया बेहद आपत्तिजनक है। वायर ने अपनी त्रुटि ठीक कर आलेख दोबारा पब्लिश किया। इसके बावजूद उत्तरप्रदेश सरकार की यह कार्रवाई कोई भी जायज नहीं ठहरा सकता।

एडिटर्स गिल्ड की कार्रवाई सामयिक तथा स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारिता को संरक्षण देने वाली है। लेकिन बात केवल एडिटर्स गिल्ड के बयान से ही पूरी नहीं हो जाती। इसके आगे यह सवाल भी खड़ा होता है कि निर्वाचित प्रतिनिधि मीडिया के साथ इतने हिंसक और प्रतिशोध से भरे हुए क्यों हैं? अपवाद के तौर पर कोई आलेख में कोई तथ्यात्मक भूल हो सकती है, ठीक वैसे ही जैसे हमारे राजनेता संसद में और संसद से बाहर भी जबान फिसलने के कारण अनुचित और अससंदीय भाषा का इस्तेमाल करते हैं। अगर उनके शब्दों का अर्थ समझा जाए तो वे उन्हें हिरासत में लेने के लिए पर्याप्त होते हैं। लोकतंत्र के दो स्तंभों में आपसी समझ की कमी और एक दूसरे पर अविश्वास दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है। यह स्थिति पत्रकारिता के लिए बेहद गंभीर नजर आती है।

इस घटना से पहले केंद्र सरकार सर्वोच्च न्यायालय में गई। उसका कहना था कि मुल्क की सबसे बड़ी पंचायत मीडिया के सभी रूपों को निर्देश दे कि वे लॉकडाउन से जुड़ी खबरें संबंधित सरकारी अफसरों से पुष्टि के बाद ही प्रकाशित-प्रसारित करें। यह कदम भी खिन्न करता है। एडिटर्स गिल्ड ने इसका भी संज्ञान लिया है।

क्या इस तरह के मामलों में भी सुप्रीम कोर्ट की शरण लेना चाहिए। फिर तो यह जवाबी कार्रवाई का एक हथियार बहुत से लोगों को मिल जाएगा। देश में प्रशासनिक मशीनरी के अनेक हिस्से भी ठीक से काम नहीं कर रहे हैं। फिर उन्हें भी अपना दायित्व बोध कराने के लिए आम नागरिक को सीधे सर्वोच्च न्यायालय क्यों नहीं जाना चाहिए। यह समझ से परे है कि अचानक सरकार मीडिया के समस्त अवतारों से इतनी असुरक्षित और असहज क्यों महसूस करने लगी है। जब समूची दुनिया एक अप्रत्याशित संकट से जूझ रही है तो पत्रकारिता ऐसे वातावरण में हुकूमत के प्रति शत्रुता का भाव क्यों दिखाएगी- यह समझने की बात है। लेकिन अगर कोई यह कुतर्क करे कि लॉकडाउन की विसंगतियों और व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए मीडिया न सुझाव दे और न उनके कामकाज में कोई मीन मेख निकाले तो यह कैसे संभव है। पत्रकारिता के अपने भी सरोकार होते हैं। जब देश मुसीबत में हो एक संपादक देश की चिंता पहले करेगा न कि सरकार की। सरकार की प्रशस्ति में गाल बजाने वाले बहुतेरे होते हैं लेकिन तंत्र की गड़बड़ियों को उजागर करने का काम सब नहीं करते। किसी भी राजनेता या इन्तचामियां को अपनी आलोचना सुनने का साहस और संयम भी होना चाहिए। ‘हुकूमते-ए-हिन्द’ को अपनी आलोचना से सबक लेना चाहिए। कबीर ने सदियों पहले यूं ही नही लिख दिया था कि निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छबाय, बिन पानी, साबुन बिना निर्मल करे सुभाय आर्थर आलोचकों को अपने करीब ही रखना चाहिए। वे बिना साबुन और पानी के स्वभाव को निर्मल कर देते हैं। सियासी जमात को यह बात ध्यान में रखना चाहिए।

दूसरी ओर पत्रकारिता में सिर उठा रही कुछ गैर जिम्मेदार प्रवृतियों को भी सावधान होना चाहिए। मैं इस स्तंभ के जरिए लगातार इस बात को रेखांकित कर रहा हूं कि गैर जिम्मेदारी और सरोकारों से पीछे हटने पर अवाम के दिलों से पत्रकार उतर जाएंगे। वैसे भी अरसे से हमारी साख पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। इसलिए सोच में सिर्फ जम्हूरियत और जिम्मेदारी को रखें मिस्टर मीडिया!    


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