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विश्व रेडियो दिवस: कम्युनिटी रेडियो को लेकर आज भी भ्रमजाल में है समाज

मध्यप्रदेश के आदिवासी अंचलों में कम्युनिटी रेडियो की गूंज सुनाई दे रही है। राज्य के सुदूर आदिवासी अंचलों के आठ जिलों में कम्युनिटी रेडियो की स्थापना की गई है।

समाचार4मीडिया ब्यूरो 3 years ago

मनोज कुमार, वरिष्ठ पत्रकार ।।

मध्यप्रदेश के आदिवासी अंचलों में कम्युनिटी रेडियो की गूंज सुनाई दे रही है। राज्य के सुदूर आदिवासी अंचलों के आठ जिलों में कम्युनिटी रेडियो की स्थापना की गई है। इन रेडियो स्टेशनों के माध्यम से ग्रामीण एवं आदिवासी समुदाय में सूचना, शिक्षा एवं मनोरंजन के बुनियादी जरूरतों को पूरा किया जा रहा है।

कम्युनिटी रेडियो में निहित उद्देश्यों अनुरूप ‘रेडियो वन्या’ समुदाय के द्वारा समुदाय के लिए, समुदाय से कार्यक्रम निर्माण कराने एवं प्रसारण करने की जवाबदारी भी समुदाय को सौंप रखा है। इसके अलावा मध्यप्रदेश शासन का संस्कृति विभाग का ‘रेडियो आजाद हिन्द’ आजादी के तराने सुना रहा है। राजधानी भोपाल में स्थित रेडियो आजाद हिन्द देश के स्वाधीनता संग्राम से जुड़े प्रसंगों को सुनाता है। हालांकि मध्यप्रदेश का पहला कम्युनिटी रेडियो चंदेरी में स्थापित हुआ था। वर्तमान में कम्युनिटी रेडियो एवं कैम्पस रेडियो की संख्या अन्य राज्यों की तुलना में संतोषजनक है। इसके अलावा विदिशा, सीहोर, उज्जैन के साथ ही राज्य के प्रमुख जिलों में सामुदायिक रेडियो का संचालन किया जा रहा है।

कम्युनिटी रेडियो के माध्यम से शासन की कल्याणकारी योजनाओं के साथ साथ उनके दैनंदिनी जीवन में काम आने वाली सूचना का लाभ भी समुदाय को मिल रहा है। इसके साथ ही इन रेडियो स्टेशनों पर समुदाय की जीवनशैली, संस्कृति, परम्परा, साहित्य एवं विभिन्न संस्कारों का दस्तावेजीकरण किया जा रहा है। स्थानीय बोली में कार्यक्रम के प्रसारण होने के कारण समुदाय को समझने और सुनने में आसानी होती है। 

रेडियो साक्षी रहा है पराधीन भारत से स्वाधीन भारत की यात्रा का। रेडियो गवाह बना हुआ है वर्तमान और युवा भारत का। रेडियो की यात्रा समाज में सूचना, शिक्षा और मनोरंजन को आगे बढ़ाती है। भारतीय समाज की धडक़न है रेडियो। रेडियो संचार का ऐसा प्रभावी माध्यम है जिसे साथ रखने में ना तो टेक्रालॉजी आड़े आती है और ना ही शिक्षित होने की शर्त। जैसे किसी समय हर घर की मेज पर टेलीफोन हुआ करता था, वैसे ही हर भारतीय के घर में रेडियो सेट मिल जाता था। रेडियो के साथ ट्रांजिस्टर भी हुआ करता था। कोई ग्रामीण, कोई मजदूर कांधे में डाले गीत गुनगुनाता आगे बढ़ जाता था। समय बदला, टेक्रालॉजी बदली और रेडियो-ट्रांजिस्ट्रर के विकल्प के तौर पर मोबाइल आ गए। अब हर हाथ में रेडियो था। वैसे ही जैसे टेलीफोन सेट की जगह मोबाइल फोन ने ले ली। संचार के दूसरे माध्यम भी विकसित और परामार्जित हुए। टेलीविजन के आगमन के बाद कहा जाने लगा कि अखबार का समय अब खत्म होने वाला है और सोशल मीडिया के विस्तार के बाद टेलीविजन को लेकर भी यही बात कही जाने लगी। लेकिन रेडियो का ना तो कोई विकल्प आया और ना उसके असामायिक हो जाने की कोई चर्चा हुई। 

संचार के विभिन्न माध्यम पर जब विश्वसनीयता को लेकर सवाल खड़े हुए तो रेडियो निरपेक्ष भाव से सबको सुन रहा था, गुन रहा था। उसकी प्रामाणिकता उसकी पहचान थी। ऐसा भी नहीं है कि रेडियो के दिन बीते नहीं लेकिन हर बार वह चेहरा बदलकर आ जाता था। आकाशवाणी पूर्णत: शासकीय  नियंत्रण का प्रसारण सेवा है तो मनोरंजन का खजाना लेकर एफएम रेडियो आ धमका। एफएम शहरी लोगों के बीच में अपनी पैठ बना चुका है तो ग्रामीण समुदाय के लिए कम्युनिटी रेडियो का आगमन हुआ। भारत जैसे विशाल जनसंख्या और भौगोलिक ताना-बाना वाले इस महादेश के लिए कम्युनिटी रेडियो एक आवश्यकता है। सूचना का विस्फोट हो रहा है लेकिन गांव और आदिवासी अंचलों में रहने वाले अधिसंख्य लोगों सूचनाविहिन थे। ऐसे में कम्युनिटी रेडियो ने उन्हें जोड़ा। ना केवल जोड़ा बल्कि उनकी जीवनशैली, साहित्य-संस्कृति, परम्परा का दस्तावेजीकरण करने में सहायता की। कम्युनिटी रेडियो के भारत में आगमन के समय शैक्षिक परिसरों तक सीमित था लेकिन भारत सरकार ने इसे व्यापक बनाया और गांव तथा ग्रामीणों की आवाज बनने में सहायता की। हालांकि अभी कम्युनिटी रेडियो विस्तार के दौर में है लेकिन जल्द ही वह हर गांव, हर ग्रामीण की आवाज बन चुका होगा।

कम्युनिटी रेडियो को लेकर समाज आज भी भ्रमजाल में है। इसका एक बड़ा कारण है कि इससे संबंधित साहित्य एवं जानकारी का अभाव होना। हालांकि सामुदायिक रेडियो के विस्तार के लिए भारत सरकार अनेक स्तरों पर प्रयास कर रही है कि लोगों को अधिकाधिक जानकारी मिल सके ताकि वे कम्युनिटी रेडियो की स्थापना एवं संचालन सहजता से कर सकें। कम्युनिटी रेडियो एक ऐसा जीवंत माध्यम है। 

कम्युनिटी रेडियो की स्थापना की दिशा में मध्यप्रदेश सरकार की पहल अनोखा है। संभवत: देश का एकमात्र राज्य है जहां सुदूर आदिवासी अंचलों में आठ रेडियो संचालित हैं। मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की संकल्पना को साकार करते हुए 9 सामुदायिक रेडियो की स्थापना की गई। इनमें से 8 कम्युनिटी रेडियो रेडियो आदिमजाति कल्याण विभाग मध्यप्रदेश शासन की नवाचारी संस्था ‘वन्या’ द्वारा संचालित किया जाता है। एक अन्य  कम्युनिटी रेडियो रेडियो स्वाधीनता संग्राम पर केन्द्रित प्रथम कम्युनिटी रेडियो रेडियो ‘रेडियो आजाद हिन्द’ भी मध्यप्रदेश शासन द्वारा संचालित किया जाता है। राज्य के सुदूर आदिवासी अंचलों में सूचना, शिक्षा और मनोरंजन पहुंचाने की दृष्टि और सोच के साथ स्थानीय बोली में सामुदायिक रेडियो का प्रसारण आरंभ किया गया। वर्तमान में राज्य के आदिवासी बहुल जिला झाबुआ, चंद्रशेखर आजाद नगर, जिला अलीराजपुर, खालवा जिला खंडवा, चिचोली जिला बैतूल, पातालकोट जिला छिंदवाड़ा, सेसइपुरा जिला श्योपुर, चाड़ा जिला डिंडोरी एवं नालछा जिला धार में संचालित है। सामुदायिक रेडियो के संचालन के लिए निहित उद्देश्यों को पूर्ण करते हुए स्थानीय युवाओं को रेडियो संचालन की जिम्मेदारी दी गई है। इन केन्द्रों से स्थानीय बोलियों में सूचनाओं का आदान-प्रदान, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक गतिविधियों का दस्तावेजीकरण किया जाता है। 

सामुदायिक रेडियो सुदूर ग्रामीण एवं आदिवासी अंचलों में सूचना, शिक्षा एवं मनोरंजन की बुनियादी जरूरतों को पूर्ण करने का माध्यम है। राज्य के बड़े शहरों में स्थित विभिन्न शैक्षिक परिसरों में भी कैम्पस रेडियो संचालित है। एफएम रेडियो में आरजे शिक्षित एवं प्रशिक्षित होते हैं और वे शहरी समुदाय से आते हैं जबकि सामुदायिक रेडियो के आरजे ठेठ समुदाय के बीच से आते हैं। इनके पास प्रशिक्षण तो होता है लेकिन व्यवहारिक होता है। शैक्षिक योग्यता बहुत कम होती है लेकिन ये लोग अपने समुदाय को, समुदाय की जरूरतों को और उनकी भाषा-बोली को बेहतर ढंग से समझते हैं और उसका प्रतिनिधित्व ठीक से कर पाते हैं। यही कारण है कि भारत जैसे विशाल देश में समुदाय का यह रेडियो सूचना और शिक्षा के मान से बेहद जरूरी बन गया है। मध्यप्रदेश में जिस तरह राज्य की कल्याणकारी योजनओं को सुदूर अंचल तक पहुंचाने के लिए सामुदायिक रेडियो की स्थापना की गई है, वह अन्य राज्यों के लिए एक उदाहरण की तरह है। आने वाले समय में समुदाय का यह रेडियो जन-जन की आवाज बनेगा। सामुदायिक रेडियो फैशन का नहीं बल्कि पैशन बन चुका है। 

(ये लेखक के निजी विचार हैं और वे शोध पत्रिका ‘समागम’ के संपादक हैं) 


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