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ताइवान को अलग-थलग करने के लिए चीन कर रहा संयुक्त राष्ट्र का दुरुपयोग: अरुण आनंद

चीन ताइवान को अलग-थलग करने के लिए यूएन को हथियार की तरह उपयोग कर रहा है क्योंकि वह इसे हड़पना चाहता है।

समाचार4मीडिया ब्यूरो 1 year ago

अरुण आनंद, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तम्भकार।  

पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (पीआरसी) यानी कम्युनिस्ट चीन ने 1971 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में चीन गणराज्य यानी ताइवान की सीट हथियाने के  लिए विश्व समुदाय के साथ चालाकी की। ताइवान ने तब से संयुक्त राष्ट्र में दोबारा प्रवेश करने के कई प्रयास किए लेकिन संयुक्त राष्ट्र द्वारा हर बार उसकी अर्जी को अस्वीकार कर दिया जाता है। लगभग ढाई करोड़ आबादी वालें देश ताइवान के लिए अपना अस्तित्व बचाने की राह कठिन रही है। 1971 के बाद से, उन्हें विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और यहां तक कि विश्व स्वास्थ्य संगठन में प्रवेश से वंचित कर दिया गया है। और यह चीन ही है जो ताइवान को अलग-थलग करने के लिए यूएन को हथियार की तरह उपयोग कर रहा है क्योंकि वह इसे हड़पना चाहता है।

चीन पूरी दुनिया में झूठे दावे कर रहा है कि ताइवान स्वतंत्र देष नहीं बल्कि उसका एक प्रांत है। 1960 के दशक में, ताइवान और साम्यवादी चीन दोनों के समान संख्या में देशों के साथ राजनयिक संबंध थे। आज, ताइवान के केवल 13 देशों के साथ राजनयिक संबंध हैं जिनमें मुख्य रूप से बहुत छोटे देश शामिल हैं। ताइवान के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय में किसी भी समर्थन को समाप्त करने के लिए चीन  विशेष रूप से अपने आर्थिक बल का दुरूपयोग कर रहा है।
 
चीनी जबरदस्ती और लिथुआनियाः एक केस स्टडी

नवंबर 2021 में, लिथुआनिया ने ताइवान को विलनियस में एक नया प्रतिनिधि कार्यालय खोलने की अनुमति दी। कार्यालय को आधिकारिक तौर पर विलनियस में ताइवान का प्रतिनिधि कार्यालय  का नाम दिया गया। यह एक महत्वपूर्ण कदम था क्योंकि पिछले 18 वर्षों में यूरोप में  पहले नए ताइवान प्रतिनिधि कार्यालय का  उद्घाटन हुआ था। इससे पहले ताइवान ने 2003 में स्लोवाकिया में एक प्रतिनिधि कार्यालय खोला था। सोमालीलैंड के बाद यह दुनिया में ताइवान के नाम से अस्तित्व में आने वाला दूसरा ऐसा कार्यालय  था। चीन नाराज था और उसने ताइवान के साथ द्विपक्षीय संबंध समाप्त करने के लिए लिथुआनिया पर दबाव बनाने का फैसला किया।

ग्लोबल ताइवान इंस्टीट्यूट (जीटीआई) ने इस स्थिति का आकलन किया और  इस टकराव पर एक शोध रपट निकाली जिसने चीन के तौर-तरीकों का पर्दाफाश करते हुए कहा कि विलनियस में ताइवान के प्रतिनिधि कार्यालय के खुलने से चीन का  गुस्सा फूट पड़ा। नतीजतन, बीजिंग ने लिथुआनिया में अपने राजनयिक प्रतिनिधित्व की स्थिति को चार्जे डीफेयर के स्तर तक घटा दिया, लिथुआनिया में अपने दूतावास का नाम बदलकर उसे चार्ज डीफेयर कार्यालय  का नाम दे दिया, और लिथुआनियाई पक्ष से भी ऐसा करने का आग्रह करना शुरू कर दिया।

इसके तुरंत बाद, चीन में लिथुआनियाई राजनयिकों को तत्काल बीजिंग छोड़ने के लिए मजबूर किया क्योंकि उनके राजनयिक स्टेटस को रद्द कर दिया गया था। फिर, दिसंबर 2021 में, चीन को लिथुआनियाई निर्यात लगभग पूरी तरह से अवरुद्ध हो गया, लिथुआनियाइ माल के सामान्य प्रवाह के 90 प्रतिशत से अधिक को चीनी बाजार में प्रवेश करने से रोक दिया गया। इन अनौपचारिक व्यापार प्रतिबंधों (चीन ने लिथुआनियाई सामानों को मंजूरी देने का औपचारिक आदेश कभी जारी नहीं किया) का लिथुआनिया की अर्थव्यवस्था पर बहुत कम प्रभाव पड़ा, क्योंकि चीन को निर्यात लिथुआनिया के कुल निर्यात का एक प्रतिशत से भी कम था।

हालांकि, उन अनौपचारिक रिपोर्टों के बाद चिंता काफी बढ़ गई  जिनमें बताया गया था  चीन ने यूरोपीय संघ की उन कंपनियों से निर्यात पर रोक लगा दी जिनमें लिथुआनियाई मूल के घटक शामिल थे। लिथुआनिया, हालांकि, चीन की इस जोर जबरदस्ती के बाद भी डट कर खड़ा है और चीनी दबाव को मानने से इंकार कर ताइवान के साथ अपने संबंधों को और मजबूत कर रहा है। सौभाग्य से, इसके चीन के साथ बहुत मजबूत आर्थिक संबंध नहीं थे, इसलिए इसकी अर्थव्यवस्था पर ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ा। लेकिन उन सभी के लिए जिनके चीन के साथ मजबूत आर्थिक संबंध हैं, इस गतिरोध में एक सबक है।

व्यावहारिक रूप से, चीन के साथ सबसे संवेदनशील संबंधों को कम कर देना बेहतर होगा, ताकि बाद में दर्दनाक परिणाम न भुगतने पड़े। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि चीन के खिलाफ संभावित लड़ाई के लिए पूरे यूरोपीय संघ के केंद्रित प्रयासों के साथ-साथ सभी लोकतांत्रिक भागीदारों के समर्थन की आवश्यकता होगी। चीन एक बड़ा देश है, लेकिन वह ज्यादातर अकेले अपनी डफली बजाता है। जीआईटी की रिपोर्ट में कहा गया है कि चीन  की तानाशाही  का सामना करने के लिए छोटे-बड़े सभी देशों की और एकता सबसे प्रभावी तरीका है।
 
कैसे चीन ने संयुक्त राष्ट्र की ताइवान तक पहुंच को अवरुद्ध कर दिया है

1971 के बाद से, चीन ने न केवल ताइवान के सरकारी प्रतिनिधियों को संयुक्त राष्ट्र से बाहर रखा है, यहां तक कि नागरिक समाज और निजी नागरिकों को भी संयुक्त राष्ट्र में उन पर लगाए गए गंभीर प्रतिबंधों के माध्यम से चीनी अन्याय का सामना करना पड़ा है। जनरल मार्शल फंड की एक रिपोर्ट के अनुसार, आरओसी यानी ताइवान पासपोर्ट धारकों को संयुक्त राष्ट्र की इमारतों और कार्यालयों तक में प्रवेष पर पर प्रतिबंध का सामना करना पड़ रहा है।  

पिछले कुछ वर्षों में, कम्युनिस्ट चीन द्वारा गैर-सरकारी संगठनों, नागरिक समाज के प्रतिनिधियों और यहां तक कि उन बुद्धिजीवियों को  यूएन में रोकने के कई उदाहरण सामने आए हैं जो ताइवान से जुड़े हैं यां उससे किसी भी प्रकार की सहानुभूति रखते हैं। संयुक्त राष्ट्र के संसाधनों तक पहुँचने या संयुक्त राष्ट्र-संगठित मंचों और कार्यक्रमों में  चीन उन्हीं संगठनों के प्रतिनिधियों को भाग लेने देता है जो अपनी वेबसाइट पर ताइवान को चीन के एक प्रांत के रूप में प्रदर्शित करते हैं।
 
चीन की इस दादागिरी से प्रभावित संगठन जो इन भू-राजनीतिक विवादों में शामिल नहीं होना चाहते हैं, बारीकियों से अनजान हैं, या नकारात्मक नतीजों से बचने की कोशिश करते हैं, आम तौर पर संयुक्त राष्ट्र में अपनी मौजूदगी सुनिश्चित करने के लिए चीन की इस तानाशाही के आगे झुक कर समझौता कर लेते हैं। समय आ गया है कि ताइवान के साथ हो रहे इस भेदभाव को समाप्त किया जाए और दुनिया भर में इस का खुलासा होना चाहिए कि कैसे चीन वैश्विक मंचों का दुरूपयोग कर रहा है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं)


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