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संस्कृति मंत्रालय को अपेक्षाकृत सक्रियता के साथ काम करने की आवश्यकता: अनंत विजय

ताजमहल के गुंबद के आसपास पौधे का उगना लापरवाही नहीं बल्कि एएसआई की कार्य संस्कृति का उदाहरण है। संस्कृति मंत्रालय को अपेक्षाकृत सक्रियता के साथ काम करने की आवश्यकता है।

समाचार4मीडिया ब्यूरो 2 weeks ago

अनंत विजय, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तंभकार।

पिछले दिनों ये आगरा के ताजमहल के गुंबद से पानी टपकने का समाचार चर्चा में आया। कारण ये बताया गया कि ताजमहल के गुंबद पर एक पौधा उग आया था और उसकी जड़ों से होकर पानी टपका। उस पौधे का वीडियो और फोटो इंटरनेट मीडिया पर खूब प्रचलित हुआ। तरह-तरह की टिप्पणियां की गईं। ताजमहल वैश्विक धरोहर की श्रेणी में आता है और इसके रख-रखाव का दायित्व भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण का है।

गुंबद से पानी टपकने के समाचार को पढ़ने के बाद जिज्ञासा हुई कि देखा जाए भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण की वेबसाइट पर ताजमहल के सबंध में क्या जानकारियां हैं। भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण की वेबसाइट खोलते ही इसके मुख्य पृष्ठ पर ताजमहल की तस्वीर नजर आती है जहां लिखा भी है कि ये वैश्विक धरोहर है। वैश्विक धरोहर की देखरेख या रखरखाव इस तरह से की जाती है कि उसके ऊपर पौधा उग आए और अधिकारियों को हवा तक नहीं लगे।

यहां ये बात ध्यान दिलाने योग्य है कि भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण का एक कार्यालय आगरा में भी है। इतना ही नहीं आगारा किला की एक दीवार पर भी छोटे-छोटे पौधे उग आए हैं और वो बढ़ रहे हैं। उसपर पता नहीं कब तक भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण के जिम्मेदार अफसरों का ध्यान जाएगा। दरअसल इस बात को संस्कृति मंत्रालय के रहनुमाओं को समझना होगा कि संस्कृति और सांस्कृतिक विरासत को संभालने और सहेजने के लिए संवेदनशील मानव संसाधन की आवश्यकता है। ऐसे मानव संसाधन की जिनको संस्कृति की समझ भी हो और उसको सहेजने को लेकर एक उत्साह भी हो।

ताजमहल की ही अगर बात करें तो ना सिर्फ गुंबद में पौधे उग आए हैं बल्कि ध्यान से देखें तो मुख्य मकबरे में पश्चिम की दिशा में जो पत्थरों के बीच बीच लगे हुए कई शीशे टूटे हुए हैं। शीशे के अलावा भी दीवारों और गुंबदों के अंदर की तरफ की गई पच्चीकारी के रंगीन पत्थर कई जगह से निकले हुए हैं। पच्चीकारी के उन पत्थरों के निकल जाने से उतना क्षेत्र अजीब सा लगता है। पच्चीकारी के पत्थरों की कीमत को कम ही होती है फिर क्या समस्या है।

जानकारों का कहना है कि पत्थरों की कीमत भले ही कम होती है लेकिन उसको लगाने में बहुत श्रम और समय लगता है। इस कारण उसको तत्काल नहीं बनवाया जाता है। दूसरा पक्ष ये है कि अगर पच्चीकारी के पत्थरों के टूटने के बाद अविलंब उसकी मरम्मत नहीं की जाती है तो पत्थरों को जोड़ना और भी मुश्किल हो जाता है। क्या भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण के अधिकारी या कर्मचारी ताजमहल का चक्कर नहीं लगाते या उनको ये सब दिखाई नहीं देता है या देखकर अनदेखा किया जाता है।

बात तो इस पर भी होनी चाहिए कि क्या भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण के पास इस वैश्विक धरोहर की देखभाल करने के लिए पर्याप्त धन है या नहीं। ऐसा नहीं है कि सिर्फ ताजमहल में ही आपको इस तरह के लापरवाही दिखाई देगी बल्कि कई विश्व प्रसिद्ध धरोहरों में और सैकड़ों वर्षों से भारतीय शिल्पकला के उदाहरण के तौर पर सीना ताने खड़े इमारतों में भी इस तरह के उदाहरण आपको मिल सकते हैं।

इस स्तंभ में ही पूर्व में इस बात की चर्चा की जा चुकी है कि किस तरह से ओडिशा के कोणार्क मंदिर के प्रवेश द्वार पर लगे हाथी की सूंढ में दरार आ जाने के बाद उसको सीमेंट-बालू से भर दिया गया था। कोणार्क सूर्य मंदिर भी यूनेस्को की विश्व धरोहर की सूची में है। कोणार्क मंदिर में इस तरह की लापरवाही ना केवल भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण की लापरवाही बल्कि अपने धरोहर को सहेजने की असंवेदनशील प्रवृत्ति को भी सामने लाता है। इसी तरह कभी आप त्रिपुरा के उनकोटि चले जाइए। भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण की लापरवाही का उदाहरण आपको पूरे परिसर में सर्वत्र बिखरा हुआ नजर आएगा।

एक तरफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में लाल किला की प्राचीर से देशवासियों से  पंच प्रण की बात करते हैं जिसमें अपनी विरासत पर गर्व की बात करते हैं। विरासत पर गर्व करने के लिए यह बेहद आवश्यक है कि हम अपनी विरासत को संरक्षित करें। संस्कृति मंत्रालय के अधीन आनेवाली संस्था भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण की अपनी विरासत को सहेजने में लापरवाही और उदासीनता दिखाई देती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दूसरे कार्यकाल में 13 दिसंबर 2022 को राज्यसभा में संस्कृति मंत्रालय की स्टैंडिंग कमेटी ने एक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। संस्कृति मंत्रालय से संबद्ध संसद की इस समिति ने अपनी रिपोर्ट संख्या 330 में भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण के कामकाज को लेकर गंभीर प्रश्न उठाए थे।

रिपोर्ट में समिति ने मंत्रालय/ भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण में धनराशि के उपयोग को लेकर बेहद कठोर टिप्पणी भी की थी। समिति के मुताबिक मंत्रालय ने अपने उत्तर में इस बात का उल्लेख नहीं किया है कि भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण को जो धनराशि आवंटित की गई थी उसका आवंटन और उपयोग किस तरह से किया गया। इसके अलावा भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण में खाली पदों को भरने में हो रहे बिलंब पर भी समिति ने कठोर टिप्पणियां की थी।

पता नही उसके बाद क्या हुआ। क्या भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण में विशेषज्ञों की नियुक्ति हुई या अफसरों के भरोसे ही कार्य चलाया जा रहा है। तब समिति की रिपोर्ट में बताया गया था कि भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण के आर्कियोलाजी काडर में 420 पद स्वीकृत हैं जिसमें से 166 पद खाली थे। संरक्षण काडर में कुल स्वीकृत पद 918 थे जिनमें से 452 पद रिक्त थे। संस्कृति मंत्रालय के कामकाज को लेकर संसदीय समिति की इस रिपोर्ट में इस बात पर नाराजगी जताई गई थी कि करीब पचास फीसद पद कैसे खाली हैं। क्या मंत्रालय या भारतीय पुरात्तत्व सर्वेक्षण इस बात का आकलन नहीं कर पाई थी कि भविष्य में कितने पद खाली होनेवाले हैं।

दरअसल संस्कृति मंत्रालय में कामकाज की एक अजीब सी संस्कृति पनप गई है। मंत्रालय में संवेदनहीन अधिकारियों के साथ साथ उन बाहरी संस्थाओं को कई कार्य करने का दायित्व दिया गया है जिनको संस्कृति की समझ ही नहीं है। किसी पब्लिक रिलेशन एजेंसी को भारतीय संस्कृति को वैश्विक स्तर पर छवि बनाने के काम में लगाया गया था। उनके लोग संस्कृति से संबंद्ध लेखकों-कलाकारों की बैठकों में नोट्स लेते हैं।

उसके आधार पर पावर प्वाइंट बनाकर भारतीय संस्कृति की छवि बनाने का कार्य करने का प्रयास करते हैं। पता नहीं ये कार्य हो पाया नहीं लेकिन इन बैठकों में जब पब्लिक रिलेशन कंपनी से जुड़े लोग कलाकारों या शिक्षाविदों से पूछते कि नृत्य या संगीत की इतनी शैलियों को कैसे समेटा जाए तो हास्यास्पद स्थिति बन जाती। सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी ही नहीं बल्कि भारतीय जनता पार्टी से लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तक भारतीय सांस्कृतिक विरासत को लेकर गंभीरता से संवाद और कार्य करने के पक्षधर हैं।

बावजूद इसके संस्कृति मंत्रालय के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती। सिस्टम अपनी गति से ही चलता रहता है। संस्कृति मंत्रालय में यथास्थितिवाद को झकझोरनेवाला नेतृत्व चाहिए जो संस्कृति की बारीकियों को समझ सके, उसके विविध रूपों को लेकर गंभीर हो और अधिकारियों को प्रधानमंत्री की नीतियों को लागू करने के लिए ना केवल प्रेरित कर सके बल्कि कस भी सके।   

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - दैनिक जागरण।


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