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प्रकृति पता नहीं कब से अलार्म बजा रही है कि कृपया जाग जाइए: शशि शेखर

उस वक्त हम असम जाने वाली राजधानी एक्सप्रेस के जरिये गढ़मुक्तेश्वर को गजरौला से जोड़ने वाले पुल को पार कर रहे थे। जैसे ही हमारा डिब्बा मंझधार के ऊपर पहुंचा, मैंने हाथ जोड़कर मां गंगा को प्रणाम किया।

समाचार4मीडिया ब्यूरो 3 months ago

शशि शेखर, प्रधान संपादक, हिन्दुस्तान ।।

ईसा के जन्मने से न जाने कितना पहले महर्षि वेदव्यास ने महाभारत में गंगा की महिमा का कुछ इन शब्दों में बखान किया था। पुनाति कीर्तिता पापं द्रष्टा भद्रं प्रयच्छति। अवगाढ़ा च पीता च पुनात्यासप्तमं कुलम्।। अर्थात्, अपना नाम जपने वालों के यह समस्त पाप नाश कर देती है, दर्शन करने वालों का कल्याण करती है और जो कोई भी इसमें स्नान करता है और इसके जल का पान करता है, उसकी सात पीढ़ियां तर जाती हैं। इस श्लोक की चर्चा अचानक क्यों?

पिछले रविवार को गंगा दशहरा था और मैं ऐसे अन्य श्लोकों को बुदबुदा रहा था कि एक त्रासद अनुभव याद आ गया। उस वक्त हम असम जाने वाली राजधानी एक्सप्रेस के जरिये गढ़मुक्तेश्वर को गजरौला से जोड़ने वाले पुल को पार कर रहे थे। जैसे ही हमारा डिब्बा मंझधार के ऊपर पहुंचा, मैंने हाथ जोड़कर मां गंगा को प्रणाम किया।

गंगा मेरे लिए धार्मिक आस्था से कहीं अधिक मां के ममत्व-सा भाव रखती है। मेरी भाव-विह्वलता देखकर सामने की सीट पर बैठे हुए एक गोरे दंपति ने पूछा- ‘यह आप क्या कर रहे थे?’ मैंने बताया कि ‘नीचे जो नदी बह रही है, वह मां गंगा है।’ ‘गंगा, वह महान गंगा?’- उसने विस्मित भाव से पूछा। मैं उसको कोई जवाब देता, उससे पहले उसकी मुंहफट संगिनी बोल पड़ी कि ‘हमें तो लगा था....!’ उसके अगले शब्द मेरे मन-प्राण को बींध गए थे। किसी की धार्मिक आस्था को चोट न लगे, इस लिहाज से मैं उस त्वरित, पर ईमानदार प्रतिक्रिया को दोहराना नहीं चाहता।

गंगा हमारे लिए सदियों से जीवनदायिनी है और मृत्यु के बाद भी यह हमारा साथ नहीं छोड़ती। यह हमें मोक्ष देती है। इसी मान्यता के साथ मेरी परवरिश हुई थी। देश-परदेस में जब कोई नदी देखता हूं, प्रयागराज, काशी या मिर्जापुर में बहती हुई वह सदानीरा याद आती है, जिसकी धारों से अठखेलियां करता हुआ मेरा अल्हड़पन बीता था। मैं गंगा को भी बचपन की उस मासूम निर्मलता की मानिंद मानता हूं। लेकिन ! गंगा वैज्ञानिक अर्थों में अब निर्मल नहीं रह बची है।

 गंगा प्रदूषण पर हरिद्वार के गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय में पर्यावरण विभाग के अध्यक्ष रह चुके प्रो बीडी जोशी का अध्ययन बताता है कि मौजूदा वक्त में इस महानदी में बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड 7.0 मिलीग्राम प्रति लीटर है, जो आवश्यकता से बेहद अधिक है। इसी तरह, उसकी तलहटी में ‘सॉलिड वेस्ट’ की 1460 यूनिट पाई जाती हैं, जो मानक से अधिक है। नतीजतन, गंगा की पारदर्शिता बाधित होते-होते अब पांच प्रतिशत तक सिमट गई है।

एक शोध के मुताबिक, मई से जून 2024 तक इस छोटी अवधि में प्लास्टिक कचरे में 25 फीसदी तक की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। ऋषिकेश से हरिद्वार तक मछलियों की संख्या भी 80 फीसदी रह बची है और उनकी प्रजातियों में काफी कमी आई है। पहले इसके प्रवाह में 89 किस्म की मछलियां मिलती थीं, अब सिर्फ 66 डूब-उतरा रही हैं। मगरमच्छों और घड़ियालों की गिनती में भी गिरावट है।

आमतौर पर लोग सारा दोष पर्यटकों और तीर्थयात्रियों की बढ़ती संख्या पर मढ़ देते हैं, परंतु इसके बहुत से कारण हैं। अब इस पतित-पावनी के दूसरे तीर्थस्थान की ओर बढ़ते हैं। प्रयागराज से ऐन पहले पड़ने वाले कौशांबी में कई हिस्से ऐसे हैं, जहां इन दिनों लोग आराम से पैदल चलते हुए गंगा पार कर जाते हैं। संगम में भी डुबकी लगाने के बजाय बैठकर स्नान करना पड़ रहा है। यह हाल तब है, जब युमना अपने समूचे जल के साथ वहां गंगा में समाहित हो चुकी होती है। फिलवक्त गंगा और यमुना को मिलाकर सिर्फ सात हजार क्यूसेक जल ही आगे की ओर जा पाता है। टोंस और इस जैसी अन्य तमाम नदियों के सम्मिलन के बावजूद जैसे-जैसे नदी नीचे की ओर बढ़ती है, हालात खराब होते जाते हैं।

यही वजह है कि काशी का वर्णन करते हुए भय लग रहा है। इसी शहर में बरसों पहले अस्सी पर प्रवाहमान गंगा की धाराओं में अठखेलियों करते हुए मेरा बचपन बीता था। वहां पश्चिमी छोर पर दशाश्वमेध और सक्का घाट के सामने अभी से धारा के बीच टीले उभरने शुरू हो गए हैं। अगर गरमी लंबी खिंची, तो हालात और बदतर हो सकते हैं। गंगा की इस बदनसीबी की एक वजह यह भी है कि उसकी ‘ड्रेजिंग’ हुए अरसा बीत गया। हरिद्वार से गंगा सागर तक इस नदी को समय और चरणबद्ध ड्रेजिंग कार्यक्रम की आवश्यकता है।

वाराणसी में गंगा को निर्मल बनाने के लिए काफी धन खर्च किया गया है, परंतु हालात क्या हैं! आज शहर से जो 467 एमएलडी सीवेज बहता है, उसमें से 70 से 75 एमएलडी तक बिना शोधन के गंगा में समा रहा है। वाराणसी के नाम की शुरुआत वरुणा नदी से होती है, उसमें भी 67 एमएलडी सीवर बिना शोधन के हर रोज गिरता है। यही वरुणा आगे बढ़कर गंगा की ‘डाउन स्ट्रीम’ का हिस्सा बनती है।

यहां बनारस और उसके आसपास के इलाकों में मछली के शौकीनों के लिए एक चेतावनी। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के एक शोध में दावा किया गया है कि प्रयागराज से बक्सर के बीच गंगा में जन्मने, पलने और पनपने वाली तमाम मछलियां प्रदूषित हो चुकी हैं। यही नहीं, उसके जल से सिंचित होने वाले दोआब में सब्जियां और अन्य खाद्यान्न भी दूषित हो रहे हैं। एक समय था, जब मुझ जैसे सैकड़ों लोग पीपे का पुल पार कर रामनगर जाया करते थे। वहां गंगा के किनारे उगी हुई शुद्ध और ताजी सब्जियां, खरबूजे या तरबूज मिला करते थे। मिलते तो आज भी हैं, पर...।

लिखने को बहुत कुछ लिखा जा सकता है। इससे पहले भी बहुत कुछ लिखा जा चुका है। लगभग चालीस बरस पहले मैंने एक नामी पत्रिका के लिए गंगा पर कवर स्टोरी लिखी थी। उस वक्त भी आंकडे़ भयावह थे। प्रकृति पता नहीं कब से अलार्म बजा रही है कि कृपया जाग जाइए। गंगा, यमुना और उनकी सहायक नदियों के बिना उत्तर भारत की शस्य श्यामला और उर्वरा भूमि की कल्पना भी नहीं की जा सकती, पर हुकूमतें बदल गईं, साथ ही हालात बिगड़ते चले गए। गंगा की रक्षा नारों से नहीं, समूचे समाज और सियासी सदनीयती से ही होगी।

गंगा के बारे में बात करते हुए अक्सर सोचता हूं कि अगर महाकवि विद्यापति आज हमारे बीच होते, तो क्या ऐसी अमर पंक्तियां लिखने का साहस संजो पाते-
कि करब जप-तप जोग-धेआने। जनम कृतारथ एकहि सनाने।/ भनइ विद्यापति समदओं तोही। अन्तकाल जनु विसरहु मोही। यानी हे मां, जब तुम्हारी जलराशि में मात्र एक स्नान से पूरा जीवन कृतार्थ हो जाता है, तो जप-तप, योग-ध्यान क्या करें? माता, तुमसे बस इतनी ही प्रार्थना है कि जब मेरा अंत समय आए, तब मुझे बिसरा मत देना।

( यह लेखक के निजी विचार हैं ) - साभार - हिंदुस्तान डिजिटल।


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