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आरएसएस सौ बरस में कितना बदला और कितना बदलेगा भारत: आलोक मेहता

मेरे जैसे कुछ ही पत्रकार होंगे, जिन्हें 1972 में संघ प्रमुख गुरु गोलवरकर जी से मिलने, प्रोफेसर राजेंद्र सिंह जी और के सी सुदर्शनजी से लम्बे इंटरव्यू करने को मिले।

समाचार4मीडिया ब्यूरो 4 days ago

आलोक मेहता, पद्मश्री, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक।  

राष्ट्रीय स्वयंसेवकसंघ का स्थापना दिवस विजयदशमी है। हर वर्ष की तरह सरसंघचालक इसी दशहरे (इस बार 12 अक्टूबर ) को अपने स्वयंसेवकों को संघ के एक सौ वर्ष 2025 में पूरे करने पर आदर्शों, मूल्यों के साथ संगठन और हिन्दुस्थान की दशा दिशा रेखांकित करेंगे। यों पिछले दिनों यह बताया जा चुका है कि अन्य संगठनों की तरह शताब्दी वर्ष में कोई धूम धड़ाका नहीं किया जाएगा। किसी भी संगठन के लिए सौ वर्ष के बदलाव भविष्य निर्माण की समीक्षा के साथ भविष्य निर्माण की रुपरेखा तैयारी महत्वपूर्ण ही कही जाएगी। हिंदुत्व, समाज, राष्ट्र को समर्पण के आदर्शों के साथ आज़ादी के आंदोलन से स्वतंत्रता के बाद भी प्रतिबन्ध , जेल यातना तक झेलने के बाद संघ के स्वयंसेवकों के सत्ता के शिखर तक पहुँचने की सफलता किसी भी तरह कम नहीं कही जा सकती है।

इसलिए संघ में शिक्षित प्रशिक्षित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तीसरी बार सत्ता में आने के बाद कुछ लोगों द्वारा यह सवाल उठाना अनुचित लगता है कि भाजपा के सत्ता में आने से संघ को क्या और कितना मिला? इन दिनों राजनीतिक क्षेत्रों और मीडिया में संघ भाजपा नेतृत्व में टकराव और बदलाव तक की चर्चाएं चल रही हैं।  लेकिन इसे राजनीतिक घटनाओं और संघ सहित विभिन्न दलों के नेताओं से मिलने के अपने पत्रकारिता के करीब 50 वर्षों के आधार पर कह सकता हूँ कि मत भिन्नता तो भारतीय जनसंघ के संस्थापकों में से एक बलराज मधोक के समय से रही और भविष्य में भी रह सकती है। लेकिन टकराव और संघ द्वारा अपने ही सिद्धांतों पर चलने वाली भाजपा को कमजोर करने, सबक सिखाने, प्रधानमंत्री को हटाने के प्रयास को केवल एक वर्ग विशेष या संगठनों में निचले स्तर के कुछ नेताओं का भ्रम अथवा उनके अपने स्वार्थ कहा जा सकता है।

इसे संयोग ही कहा जा सकता है कि मेरे जैसे कुछ ही पत्रकार होंगे, जिन्हें 1972 में संघ प्रमुख गुरु गोलवरकर जी से मिलने, प्रोफेसर राजेंद्र सिंह जी और के सी
सुदर्शन जी से लम्बे इंटरव्यू करने को मिले और अब भी संघ और भाजपा के नेताओं से मिलने बातचीत के अवसर मिले। इसका एक कारण यह भी रहा कि प्रारम्भिक वर्षों में संघ के प्रचारकों द्वारा स्थापित हिन्दुस्थान समाचार में संवाददाता के रुप में कार्य किया। उसके प्रबंध संपादक बालेश्वर अग्रवाल, उनके वरिष्ठ सहयोगी एन बी लेले , रामशंकर अग्निहोत्री के साथ राजनैतिक रिपोर्टिंग सीखने करने का लाभ 1975 तक मिला। दिलचस्प बात यह कि उसी अवधि में इन लोगों ने कांग्रेस के तत्कालीन शीर्ष नेताओं यशवंत राव चव्हाण, जगजीवन राम, विद्याचरण शुक्ल, द्वारका प्रसाद मिश्र जैसे नेताओं से परिचय कराया।

इसलिए बाद के वर्षों में भी इंदिरा गाँधी से नरेंद्र मोदी तक प्रधानमंत्रियों से मिलने बात करने समझने के अवसर मिले हैं। इसलिए जब मैं संघ के झंडेवाला में सत्तर के दशक में चमनलालजी की कॉपी या रजिस्टर में प्रचारकों के नाम पते संपर्क के अलावा सीमित संयमित व्यवस्था के दौर से वर्तमान दौर में करोड़ों की लागत से बनी भव्य इमारत, कंप्यूटर में दर्ज लाखों कार्यकर्ताओं के नाम, प्रचारकों के देश विदेश में कार्यों का विवरण सार्वजनिक होते देखता हूँ, तो कैसे मान सकता हूँ कि संघ को क्या मिला?

संघ की शाखाएं भारत में 2022-23 तक 68,651 हो गई। अगले साल अपने अस्तित्व के 100 साल पूरे होने का जश्न मनाने की तैयारी कर रहा संघ देश के सभी ब्लॉक तक पहुँचने और शाखाओं की संख्या को 100,000 तक ले जाने का लक्ष्य बना रखा है। भाजपा सरकार होने से उसे सिर्फ़ तार्किक रूप से ही फ़ायदा नहीं हुआ, बल्कि समाज में उसकी दृश्यता और स्वीकार्यता भी बढ़ती गई। अयोध्या में भव्य मंदिर निर्माण, कश्मीर से 370 की समाप्ति, परमाणु शक्ति सम्पन सुरक्षा के साथ पाकिस्तान चीन को करारा जवाब देने की क्षमता, आर्थिक आत्म निर्भरता के साथ हिन्दू धर्म, मंदिरों का विश्व में प्रचार प्रसार, समान नागरिक संहिता के लिए राज्यों में पहल जैसे संघ के लक्ष्य प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के बिना क्या पूरे हो सकते थे?

संघ भाजपा और सरकार के संबंधों को लेकर सितम्बर 2018 में  सरसंघचालक मोहन भागवत ने 'भविष्य का भारत और संघ का दृष्टिकोण ' विषय पर दिल्ली मे हुई एक व्याख्यान माला में स्पष्ट रुप से कहा था, संघ ने अपने जन्म से ही स्वयं तय किया है कि रोजमर्रा की राजनीति में हम नहीं जाएंगे। राज कौन करे यह चुनाव जनता करती है। हम राष्ट्र हित पर अपने विचार और प्रयास करते हैं। प्रधानमंत्री और अन्य नेता स्वयंसेवक रहे हैं। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वे नागपुर के निर्देश पर चलते हैं। राजनैतिक क्षेत्र में काम करने वाले कार्यकर्त्ता या तो मेरी आयु वर्ग के हैं या मुझे वरिष्ठ और राजनीति में अधिक अनुभवी हैं। इसलिए उनको अपनी राजनीति चलाने के लिए किसी की सलाह की आवश्यकता नहीं है।

यदि उनको सलाह की आवश्यकता होती है तो हम अपनी राय देते हैं। उनकी राजनीति पर हमारा कोई प्रभाव नहीं और सरकार की नीतियों  पर भी कोई प्रभाव नहीं। वे हमारे स्वयंसेवक हैं। उनके पास विचार दृष्टि है। अपने अपने कार्यक्षेत्र में उन विचारों का उपयोग करने की शक्ति है। पत्रकार मित्रों से कभी कभी यह कहता हूँ कि यह सचमुच में परिवार का मामला है। कल्पना कीजिये नरेंद्र मोदी संघ में रहकर सरसंघचालक हो सकते थे और मोहन भागवत प्रधानमंत्री भी हो सकते थे। लेकिन उनके लक्ष्य तो समान ही होते। हाँ , कौन कितना कहाँ सफल हो सकता है इसलिए सबकी भूमिका परिवार तय करता है। फिर उस दायित्व को सफलता से निभाना है।

जहाँ तक बदलाव की बात है, महात्मा गाँधी और नेहरु के विचारों वाली कांग्रेस पार्टी या मार्क्स लेनिन के विचारों वाली कम्युनिस्ट पार्टियां भारत ही नहीं रुस चीन तक में बहुत बदल चुकी हैं। इसलिए जो आलोचक केवल गुरु गोलवलकर की सबसे पुरानी किताब के हवाले से कुछ विचारों को ही वर्तमान संघ या भाजपा के विचार समझाने का प्रयास करते हैं, उन्हें संघ में लगातार हुए वैचारिक मंथन और परिवर्तनों पर भी ध्यान देना चाहिए। जहाँ तक मत भिन्नता की बात है अटलजी के सत्ता काल में स्वदेशी और श्रमिक संगठनों को लेकर दत्तोपंत ठेंगड़ी या मंदिर के मुद्दे पर अशोक सिंघल के बीच की स्थितियां अब कहीं नहीं दिखाई देती।

दूसरी तरफ इस बात का अंदाज लोगों को नहीं है कि शीर्ष स्तर पर संघ के प्रमुख नेता भारत में जन्मे लगभग 98 प्रतिशत लोगों को भारतीय हिन्दू मांनने की बात पर जोर देते रहे हैं , जिसमें  सिख , मुस्लिम , ईसाई , बौद्ध आदि शामिल हैं और वे किसी तरह की धार्मिक मान्यता उपासना करते हों। सरसंघचालक प्रो राजेंद्र सिंह ने 4 अक्टूबर 1997 को मुझे एक इंटरव्यू में स्पष्ट शब्दों में कहा था, हम यह मानते हैं कि भारत में जो मुसलमान हैं उनमें सी केवल दो प्रतिशत के पूर्वज बाहर से आए थे शेष के पूर्वज इसी देश के थे। हम उन्हें यह अनुभूति कराना चाहते हैं कि तुम मुसलमान हो पर भारतीय मुसलमान हो। हमारे यहाँ दर्जनों पूजा पद्धतियां है तो एक तुम्हारी भी चलेगी। इसमें हमें क्या आपत्ति हो सकती है लेकिन तुम्हारी पहचान इस देश के साथ होनी चाहिए।

इस भारतीयकरण के लिए ही संघ भाजपा के नेता मदरसों या वक्फ के कट्टरपंथी विचारों और गतिविधियों को नियंत्रित करने के अभियान में लगी है। हाँ, निचले स्तर पर कुछ अतिवादी नेता हाल के वर्षों में कटुता की भाषा इस्तेमाल करने लगे। यह निश्चित रुप से न केवल मोदी सरकार की बल्कि भारत की छवि दुनिया में ख़राब करते हैं। उन्हें मोदी का असली दुश्मन कहा जा सकता है। इस दृष्टि से लोकतंत्र में न्यायिक व्यवस्था का लाभ है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने सामान्य नियम कानून से ऊपर हटकर उत्तर प्रदेश में ' बुलडोजर से दंड ' देने के क़दमों पर रोक लगाई है। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि पिछले दस वर्षों के दौरान अधिकांश राज्यों में साम्प्रदायिक दंगे नहीं हुए।

सत्तर से नब्बे के दशकों में ऐसे दंगों में सैकड़ों लोग मारे जाते थे। फिर भी कुछ विदेशी संगठन भारत में धार्मिक भेदभाव और उत्पीड़न के अनर्गल आरोपों वाली रिपोर्ट जारी करते हैं। उनका निशाना भारत की आर्थिक प्रगति है। संघ भाजपा की चुनौती यही है कि वह अपने अतिवादियों को निर्णायक महत्व नहीं दे और सत्ता की अपेक्षा सम्पूर्ण भारत और सामाजिक आर्थिक विकास के कार्यों को सर्वोच्च प्राथमिकता दे। जातिवादी राजनीति को साम्प्रदायिक तरीकों से नहीं निपटाया जा सकता है। समाज के सभी वर्गों की प्रगति से देश सशक्त समृद्ध हो सकता है।

असलियत यह है कि नरेंद्र मोदी में आरएसएस को अभी भी विचारधारा और राजनीतिक व्यवहार्यता का एक दुर्लभ संगम दिखाई देता है। इसलिए संघ नेताओं द्वारा मत भिन्नताओं को पारिवारिक संबंधों की तरह सुलझाने के दावे बहुत हद तक सही हैं। बाहर जो भी कहा जाए पूर्वोत्तर या दक्षिण भारत में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और सरसंघचालक मोहन भागवत की टीम ने मिलकर ही अपना प्रभाव बढ़ाया है। उनका लक्ष्य तत्कालिक लाभ के बजाय अगले पचास सौ वर्षों में भारत को अपने विचारों और आदर्शों से सुदृढ़ करना है। इस बार की विजया दशमी इसी तरह के संकल्प की अपेक्षा की जा सकती है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )


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