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विपक्षी एकता का संकल्प कितना मजबूत होगा: राजेश बादल
दिल्ली का यह रामलीला मैदान साक्षी है कि जब जब कोई राजनीतिक संदेश देने के लिए यहां जमावड़ा हुआ तो वह बेकार नहीं गया।
राजेश बादल 6 months ago
राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तंभकार।
क़रीब क़रीब आधी सदी से भारत में सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ़ प्रतिपक्षी एकता की बात हो रही है। जब चुनाव निकट आते हैं तो एकता के सुर विपक्षी दलों के गले से फूटने लगते हैं।चुनाव संपन्न हो जाने के बाद एकता के तार टूटने लगते हैं और नए ढंग से गठबंधन आकार लेने लगता है। यदि विपक्षी गठबंधन सरकार बनाने में कामयाब रहा तो सत्ता की मलाई खाने के लिए यह दल साथ चलते रहते हैं। यदि गठबंधन नाकाम रहा तो अपने हितों को ध्यान में रखते हुए यह दल नए समझौते करने लगते हैं। ऐतिहासिक रामलीला मैदान में रविवार को इंडिया गठबंधन की रैली इस परंपरा में एक कड़ी मानी जा सकती है। अनेक सवालों के बीच इतनी अधिक संख्या में विपक्षी पार्टियों के मुखियाओं का एक मंच पर आना भारतीय लोकतांत्रिक सेहत के बारे में आशा तो बंधाता है। लेकिन, स्थानीय स्तर पर विरोधाभासी सियासी समीकरणों के चलते गठबंधन के टिकाऊ होने पर संदेह भी उपजता है।
दिल्ली का यह रामलीला मैदान साक्षी है कि जब जब कोई राजनीतिक संदेश देने के लिए यहाँ जमावड़ा हुआ तो वह बेकार नहीं गया। पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने पहले और दूसरे आम चुनाव के बीच कुछ विराट सभाएँ इस मैदान में कीं। जिस तरह का संदेश देने के लिए उनकी रैली अथवा सभाएं हुईं,वह कमोबेश सफल रहा। उनके बाद 1971 में बांग्लादेश निर्माण के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भारत के लोगों को उस दौर का हाल बयान करने के लिए इसी मैदान का इस्तेमाल किया। बताने की आवश्यकता नहीं कि वे भी अपने मक़सद में कामयाब रहीं। इसके बाद जून 1975 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने आपातकाल के विरोध में यहाँ से श्रीमती गांधी की सरकार के खिलाफ़ जंग का ऐलान किया और कांग्रेस पार्टी के हाथ से सत्ता निकल गई।
इसके बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह ने राजीव गांधी सरकार के विरुद्ध इसी मैदान से हुंकार भरी और परिणाम उनके लिए भी अनुकूल रहे। फिर 2011 में अन्ना हजारे के नेतृत्व में बड़ी सभा इसी रामलीला मैदान में हुई। यह सभा भी जनमत का सोच बदलने में कामयाब रही। लब्बोलुआब यह कि जम्हूरियत पसंद हर देश में कुछ ऐसे प्रतीक होते हैं, जो लोगों तक लोकतांत्रिक खुराक़ पहुंचाने का काम करते हैं। इन प्रतीकों की अपनी ख़ास भूमिका होती है। हालाँकि भारत में इन गठबंधनों को तात्कालिक लाभ तो मिला, लेकिन बाद में वे मतभेदों के कारण टूटते फूटते रहे। आज़ादी के बाद बना सबसे महत्वपूर्ण साझा मोर्चा जनता पार्टी की शक्ल में सामने आया।
मगर वह तीन साल पूरे होते होते मतभेदों की वजह से बिखर गया। कुछ ऐसा ही विश्वनाथ प्रताप सिंह के जनमोर्चा का हश्र हुआ।अनुभव कहता है कि इन गठबंधनों में शामिल छोटे और प्रादेशिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र नहीं रह पाता।वे अपने सियासी स्वार्थों के कारण ठोस वैचारिक धुरी पर नहीं टिके रह पाते और उन गठबंधनों के साथ कभी जुड़ते हैं तो कभी अलग हो जाते हैं। इस तरह गठबंधन का सैद्धांतिक पक्ष कमज़ोर होता है। प्रश्न है कि क्या इंडिया गठबंधन में शामिल दल चुनाव तक या चुनाव के बाद भी एकजुट रहेंगे? इस गठबंधन में तीन तरह की पार्टियाँ शामिल हैं। एक तो वे,जो कांग्रेस के साथ हरदम साथ खड़ी रही हैं। लालू यादव की आरजेडी, शरद पवार की अगुआई वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, डीएमके याने द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम और वामदलों जैसी पार्टियाँ भरोसेमंद श्रेणी में रखी जा सकती हैं।
इनका साथ नहीं टूटा। दूसरी श्रेणी में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिव सेना, उमर फ़ारूक़ की सदारत वाली नेशनल कांफ्रेंस, अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी और हेमंत सोरेन का झारखण्ड मुक्ति मोर्चा रखे जा सकते हैं। इंडिया गठबंधन फ़िलहाल इन पर भरोसा कर सकता है। मेरी दृष्टि में तीसरी श्रेणी के दलों में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और अरविन्द केजरी वाल की आम आदमी पार्टी रखी जा सकती है। इन पार्टियों को तीसरी श्रेणी में रखने का कारण यह है कि वे कभी भी, किसी भी वजह से गठबंधन छोड़ सकती हैं। एक तरफ़ तृणमूल कांग्रेस अपने प्रतिनिधि के रूप में डेरेक ओ ब्रायन को इंडिया गठबंधन की रैली में भेजती है,जो ऐलान करते हैं कि उनकी पार्टी हर हाल में इंडिया गठबंधन के साथ है।
मगर उसी दिन महुआ मोइत्रा की प्रचार सभा में पार्टी सुप्रीमो ममता बनर्जी साफ़ साफ़ कहती हैं कि गठबंधन बंगाल के लिए नहीं है। इसलिए उन्होंने सभी सीटों पर पार्टी के उम्मीदवार घोषित कर दिए हैं और प्रचार भी ज़ोर शोर से शुरू कर दिया है। अब तृणमूल कांग्रेस का असर बंगाल से बाहर तो है नहीं। ऐसे में ममता बनर्जी के कथन का क्या अर्थ लगाया जाए ? सीधा सा अर्थ यही है कि अपने अपने दम पर पार्टियाँ लड़ें। चुनाव के बाद यदि इंडिया गठबंधन इतनी सीटें जीत जाए कि वह सरकार बनाने की स्थिति में हो तो फिर इंडिया में शामिल होने पर तृणमूल कांग्रेस विचार कर सकती है। तब तक तो एकला चलो रे की नीति पर ही पार्टी अमल करेगी।
जहाँ तक आम आदमी पार्टी की बात है तो अरविन्द केजरीवाल की गिरफ़्तारी ने काफी हद तक उसे इंडिया में शामिल होने पर मजबूर भी किया है। अन्यथा इससे पहले उसका सियासी सफ़र भी अकेले चलने की हिमायत करता रहा है। गठबंधन के मामले में वह एक क़दम आगे, दो क़दम पीछे चलती रही है। एक कारण यह भी है कि मौजूदा हालात में इंडिया में शामिल पार्टियों में प्रधानमंत्री पद के लिए संभावित चेहरों पर नज़र डालें तो उनमें से एक चेहरा अरविन्द केजरीवाल का भी हो सकता है। भारत का प्रधानमंत्री होने का एक काल्पनिक अवसर भी मिल रहा हो तो उसे कौन छोड़ेगा ? इसलिए चुनाव परिणाम आने तक अरविन्द केजरीवाल की पार्टी के लिए इंडिया गठबंधन का दामन थामकर रखना विवशता ही है।
इस बात की गारंटी कोई नहीं ले सकता कि चुनाव के बाद भी केजरीवाल इंडिया गठबंधन में बने रहेंगे। तृणमूल कांग्रेस की तरह ही उनकी साख़ भी कुछ कुछ ऐसी ही है। फिर भी गठबंधन का भविष्य चुनाव परिणामों पर निर्भर करेगा।
( यह लेखक के निजी विचार हैं ) साभार - लोकमत समाचार।
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