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'महामारी के दौर में इस तरह कर सकते हैं अंतिम क्रिया व पितृकर्म'

माना जाता है कि तभी उस जीव की मुक्ति होती है, जब उसकी कपालक्रिया अच्छी प्रकार संपन्न होती है

समाचार4मीडिया ब्यूरो 4 years ago

विदित हो कि वर्तमान काल में समस्त विश्वमंडल कोरोना नामक इस अदृश्यमान विषाणु से उत्पन्न रोग के दुष्प्रभाव से प्रभावित है। हालांकि दैविक एवं पैतृक आदि धर्मकर्मादियों के आचरण में कलिकाल का प्रभाव तो स्वयमेव एक दुरूह रोधक है, तथापि संस्कारवान लोग स्वधर्मपालन में यावच्छक्ति सदैव तत्पर रहते हैं। उसमें कोरोना विषाणु से प्रभावित यह काल तो महान संकटकाल की तरह सम्पूर्ण विश्व में आया हुआ है।

भारत के प्रधानमंत्री महोदय द्वारा दिनांक 22 मार्च 2020 से सामाजिक दूरी के अनुपालन का एक आग्रह प्रस्तुत किया गया, तत्पश्चात् 24 मार्च से पूर्णतः लॉकडाउन की उद्घोषणा होने के उपरान्त स्वेच्छा से यत्र-तत्र आवागमन पर रोक लगाई गई तथा यातायात-साधनों के परिचालन पर रोक लगाई गई। ऐसे विविध निरोधक प्रबन्ध सर्वत्र ही लागू हैं। देश की  जनता (प्रजा) की सुरक्षा के लिये भारत सरकार द्वारा उद्घोषित इन समस्त नियमों को समस्त भारतीय सहर्ष स्वीकार कर अपने-अपने घरों में पिहित तालिका की स्थिति में रहने तथा जीने के लिये कटिबद्ध हैं|

प्रसंगानुसार यहां यह विचारणीय है कि इस घोर कोरोना महामारी के संकटकाल में यदि किसी व्यक्ति की इहलौकिकी जीवनलीला समाप्त हो जाए तो उसकी और्ध्वदैहिकी क्रिया कैसे सम्पादित की जाए? गांव या नगर, जहां कहीं स्थित लोगों के बाल,वृद्ध,युवाओं की स्त्री,पुरुषों की  रोग के कारण, दुर्घटना से, या स्वाभाविक मृत्यु हो जाए तो उस अस्थिप्रवाह से लेकर द्वादशाह पर्यन्त जो अनेक क्रियायें सम्पन्न होंगी, उन क्रियाओं को उसके परिवार के सदस्यगण कैसे पूर्ण करें? यह एक गंभीर समस्या है|

क्योंकि भारतीय परम्परा के अनुसार अस्थिप्रवाह तो मात्र गंगाजल में ही संभव है| वर्त्तमान समय में यातायात की असुविधा के कारण गंगा तक पहुंचना संभव नहीं है, इस संदर्भा में शास्त्र में क्या कहा गया है? क्या उचित और क्या अनुचित है? यह जानने की जिज्ञासा सबके मन में उठ रही है| इन जिज्ञासाओं के समाधानार्थ मैं यहां यथोपलब्ध साक्ष्यों के साथ सामान्यचर्चा कर सभी के लिए जो उपयुक्त मार्ग है, उस विषय में अपना शास्त्रसम्मत विचार प्रस्तुत कर रहा हूँ | 

यह सर्वविदित है कि हमारे ऋषि एवं मुनिगण अत्यन्त दयालु तथा मानवों के हितचिन्तक थे। उन्होंने सांसारिक समस्त परिस्थितियों को देखकर उस विषय में उपयुक्त ऊंचे-नीचे विषयों के ऊपर विविधशास्त्रों यथा-वेद, वेदांगस, पुराणेतिहास और धर्मशास्त्र आदि ग्रन्थों में जनकल्याण के लिए विविध विषयों का वर्णन किया है। उन शास्त्रों में न केवल एक परिस्थिति पर ही अपितु विविध परिस्थितियों का अवलोकन करके सांसारिक समस्त समस्याओं का अनुभव कर विविध अनुष्ठेय विधियों के मुख्य प्रतिनिधि विषयों के कर्तव्य और अन्य आपद्धर्मों के वर्णन हैं। तदनुसार यहां विचार किया जाता है कि सामान्य स्थितियों में तो सर्वसामान्य नियमों का अनुपालन होगा, परन्तु विषम परिस्थितियों में कैसे कार्य को सम्पादन करना है? यह एक समस्या है, जो हमारे  सामने है जैसे-‘मृतकों के दाहशरीर का अभाव, यातायात साधनों के अभाव में मृतक का अस्थि प्रवाह’ इत्यादि और्ध्वदैहिक क्रिया सम्पादनार्थ आवश्यक कर्म करने में अशक्त होने पर किस उपाय से उसका सम्पादन हो, इन विषयों पर समुचित शोध के उपरांत जो सर्वजन के हित में उपाय हैं, उन पर सामान्य रूप से प्रकाश डालने का प्रयास मात्र कर रहा हूँ |

दाहशरीर के अभाव में पर्णनरदाह की विधि-

 यहां सर्वप्रथम यह समस्या आती है कि यदि किसी की मृत्यु परदेश में या दूरदेश में  होती है तब उस मृतक का शरीर उसके सम्बन्धियों को दाहसंस्कार के निमित्त नहीं मिलता है। उस परिस्थिति में हमारे ऋषियों ने पर्णनरदाहविधि का र्वणन किया है। आचार्यों ने कहा है कि- दाहशरीराभावे तदस्थि घृतेनाभ्युक्ष्य वस्त्रैराच्छाद्य पूर्ववद् दहेत्। अस्थ्नामप्यलाभे षष्ट्यधिकपलाशपत्त्रशतत्रयेण मनुष्याकृतिं विन्यस्य शिरसः स्थाने नारिकेलफलं दत्वा- ‘असौ स्वर्गाय लोकाय स्वाहा’ इत्युक्त्वा एवं पर्णनरं पूर्ववद् दग्ध्वा तद्भस्म जले क्षिप्त्वा त्रिरात्रमशुचिर्भवेत्। अर्थात् दाहशरीर के अभाव में उनकी अस्थि भी यदि मिल जाए तो उस अस्थि को घृत से अभ्युक्षण कर वस्त्र से ढंककर दाहविधि के अनुसार दाहसंस्कार करना चाहिए| यदि किसी भी यत्न से अस्थि भी प्राप्त न हो तो 362 पलाश के पत्तों से मनुष्य की आकृति बनाकर शिर के स्थान पर नारियल देकर- असौ स्वर्गाय लोकाय स्वाहा यह बोलकर पर्णनर को दाहविधि के अनुसार उसे जलाकर, उसके भस्म को जल में प्रवाहित कर तीन रात तक अशौच मनाये।

362 पलाशपत्रों से मनुष्याकृति का निर्माण कैसे करना है इस विषय में मनुष्य आकृति विन्यास प्रकार उपस्थापित करते हैं । यथा-

शिरस्यशीत्यर्धं दद्याद् ग्रीवायां तु दशैव तु। बाह्वोश्चैवं शतं दद्यादङ्गुलीषु तथा दश।।

उरसि त्रिंशतं दद्याद् विंशतिं जठरे तथा। शिश्ने द्वादशान् दद्यात् त्रिंशतं जानुजङ्घयोः।।

पादाङ्गुलीषु दश दद्याद्देतत् प्रेतस्य कल्पनम्। ऊर्णासूत्रेण बद्ध्वा तु प्रलेप्तव्यस्तथा यवैः।।

सुपिष्टैर्जलमिश्रैस्तु दग्धव्यश्च तथाऽग्निना। असौ स्वर्गाय लोकाय स्वाहेत्युक्त्वा विधानतः।।     ऊर्णासूत्रेण बद्ध्वा तु प्रलेप्तव्यस्तथा यवैः।।

ऊपर दिये गये वचनों के अनुसार पलाश के पत्तों से मनुष्य की आकृति निर्माण के समय  कितने पत्ते कहां स्थापित करने हें यहां क्रम से विचार करते है।

शिर में-40

दोनों बाहुओं में-100×2=200

शिश्न में-12

गर्दन में-10

हाथ की उंगलियों में-10

जानु एवं जङ्घाओं में-30

हृदय में-30

उदर में-20

पैर की उंगलियों में-10, 80,230,52

कुल मिलाकर 80+230+52 =362 पलाश के पत्ते यहां आवश्यक हैं। ऐसे ही बताये गये प्रकार से निर्मित पर्णनर की यथाविधि दाहसंस्कार आदि करना चाहिये पुत्र द्वारा दाहसंस्कार विहित है। वहां दाहसंस्कारकर्ता स्नातः शुचिवस्त्रादिधरः अर्थात् स्नान किया हुआ, पवित्र वस्त्र धारण किया हुआ, कुश हाथ में लिये पूर्वाभिमुख बैठकर नये मिट्टी के बर्तन में जला लेकर शव को  दक्षिण दिशा में शिर करके निम्न मंत्र को पढ़ते हुए -

गयादीनि च तीर्थानि ये च पुण्याः शिलोच्चयाः। कुरुक्षेत्रं च गङ्गाञ्च यमुनां च सरिद्वराम्।।

कौशिकीं चन्द्रभागां च सर्वपापप्रणाशिनीम्। भद्रावकाशां सरयूं गण्डकीं तमसां तथा।।

धैनवं च वराहं च तीर्थं पिण्डारकं तथा। पृथिव्यां यानि तीर्थानि चतुरःसागरांस्तथा।।

इमं मन्त्रं पठित्वा तु तातं कृत्वा प्रदक्षिणम्। मन्त्रेणानेन देह्यग्निं जनकाय हरिं स्मरन्।। 

इन तीर्थों का मन में ध्यान करते हुए उनका जल में आह्वान कर उस जल से शव को स्नान करवाकर नूतन वस्त्र यज्ञोपवीत पुष्पचन्दन से सजाकर लकडी की बनी चिता पर या जिस किसी भी उपलब्ध चिता पर कुशा बिछाकर उत्तर की ओर शिर करके अधोमुख पुरुष को तथा उत्तानमुखी स्त्री को सुला दें। तत्पश्चात् अपसव्य होकर दक्षिणाभिमुख वाम हाथ से पञ्चग्रन्थिसमन्वित या सप्तग्रन्थिसमन्वित उल्मुक (जलते हुए तृण) लेकर -

कृत्वा सुदुष्करं कर्म जानता वाप्यजानता। मृत्युकालवशं प्राप्तं नरं पञ्चत्वमागतम्।।

धर्माधर्मसमायुक्तं लोभमोहसमावृतम्। दहेयं सर्वगात्रणि दिव्यान् लोकान् स गच्छतु।।

एवमुक्त्वा ततः शीघ्रं कृत्वा चैव प्रदक्षिणाम्। ज्वलमानं तदा वह्निं शिरःस्थाने प्रदापयेत्।। 

यह दो मन्त्र पढ़कर स्त्री-पुरुषों की तीन बार प्रदक्षिणा कर ज्वलदुल्मुक शिरोदेश में रख दें। उसके बाद चिता में तृणकाष्ठघृतादि दालकर कपोतावशेष जलाये। आदित्यपुराण में कहा गया है कि- निश्शेषस्तु न दग्धव्यः शेषं किञ्चित्त्यजेत्ततः। अब उचित समय पर कपालक्रिया करना चाहिये। तथाहि- अर्धे दग्धेऽथवा पूर्णे स्फोटयेत्तस्य मस्तकम्। गृहस्थानान्तु काष्ठेन यतीनां श्रीफलेन च।। 

इस वचन से जब मृतक का शरीर आधा जला रहता है, तब उसका कपाल विस्फ़ोट होकर अन्दर का सूक्ष्म प्राण बाहर निकलता है। माना जाता है कि तभी उस जीव की मुक्ति होती है, जब उसकी कपालक्रिया अच्छी प्रकार संपन्न होती है। उसके बाद उसी दिन या किसी अन्य दिन उसकी अस्थियों का चयन विहित है। अब यह विचार करते हुए आचार्य लोग कहते हैं कि- 

प्रथमेऽह्नि तृतीये वा सप्तमे नवमेऽपि वा। अस्थिसञ्चयनं कार्यं निजैस्तद्गोत्रजैर्मतैः||

अस्थ्नां तु सञ्चयः सद्यः कर्त्तव्यो दाहवासरात्। द्वितीयेऽह्नि त्र्यहाशौचे पूर्णे चैव चतुर्थके।।

चतुर्थे ब्राह्मणानान्तु पञ्चमेऽह्नि तु भूभुजाम्। नवमे वैश्यजातीनां शूद्राणां दशमात्परे।। 

इस प्रकार ऋषियों ने देश काल परिस्थिति भेद से सबकी सुविधा को ध्यान में रखकर अनेक विकल्प दिये हैं | सद्यः पक्ष अर्थात् तत्काल, दूसरे दिन, तीसरे दिन, चौथे दिन, पांचवें दिन, सातवें दिन या नौवें दिन स्नान कर ऊर्ध्वपुण्ड्र कर विधिपूर्वक अस्थिचयन का कर्म करना चाहिये।

अस्थियों का सञ्चय तो शास्त्र में कहे अनुसार एकोद्दिष्ट पूर्वक आवाहित शंकर आदि देवों को विसर्जित कर वाग्यमन पूर्वक चिता को गोदुग्ध से अभिषिक्त कर अपसव्य होकर दक्षिणाभिमुख पहले पांच शिरोदेश की अस्थि, उसके बाद अन्यान्य अस्थियों को शमीपलाशशाखाओं से निकाल कर दाहिने हाथ का अंगूठा तथा कनिष्ठिका इन दो उंगलियों से पलाश के पत्ते की बनी हुई पूरा में रखकर दूध से सिक्त कर उस पर घृत का अभिघारण करें। गन्धोदक और पञ्चगव्य से अस्थि को स्नान कराकर क्षौमवस्त्र से लपेटकर आच्छादनवस्त्र से ढककर नये मिट्टी के बर्तन में धीरे से रखें। उपर्युक्त दिनों में उस बर्तन को गङ्गा में प्रवाहित कर देना चाहिये।

गंगा में अस्थि विसर्जन की विधि-

किसी का बेटा, पोता आदि स्नान कर अस्थिकुम्भ खोलकर गंगा किनारे जाकर वहां स्नान कर उन अस्थियों का प्रोक्षण कर हिरण्य-मध्वाज्य-तिल-गन्ध-पुष्पों को हाथ में लेकर मृद्भाण्ड में रखकर दायें हाथ से उस पात्र को लेकर दक्षिण दिशा की ओर देखते हुये- नमोऽस्तु धर्माय यह बोलते हुए जल में प्रवेश कर प्रेत के स्वर्ग कामना के लिये दक्षिण की तरफ़ होकर- स मे प्रीयताम् यह बोलकर पितृतीर्थ से गङ्गाजल में प्रवाहित कर दे। उसके बाद स्नान कर सूर्य को देखकर आचमन कर कुश आदि लेकर- अद् कृतैतद्गङ्गायामस्थिप्रक्षेपप्रतिष्ठार्थमेतावद्द्रव्यमूल्यकहिरण्यमग्निदैवतं यथानामगोत्राय ब्राह्मणाय दक्षिणामहं ददे। इस वाक्य के द्वारा यथाशक्ति दक्षिणा ब्राह्मण को देकर, ब्राह्मण के मुख से स्वस्ति यह प्रतिवचन सुनकर श्राद्धकर्मनिमित्त गंगाजल और गङ्गौट आदि लेकर घर आ जाएं। इस अस्थिविसर्जनात्मक कर्म गङ्गा आदि पुण्य जलों में करने के महत्त्व का वर्णन पुराणों में किया गया है-

यावदस्थि मनुष्यस्य गङ्गायाः स्पृशते जलम्। तावत्स पुरुषो राजन् स्वर्गलोके महीयते।।  

यावदस्थि मनुष्याणां साध्यामृतजले स्थितम्। तावद्वर्षाणि तिष्ठन्ति शिवलोके सुपूजिताः।। 

यावदस्थि मनुष्याणां गङ्गातोयेषु तिष्ठति। तावद्वर्षसहस्राणि स्वर्गलोके महीयते।। 

यह ऊपर लिखे गये वचन से गंगाजल में मृतक के अस्थिप्रवाह के विषय का वर्णन कर अब यह विचार करते हैं कि अस्थियों के गंगा में प्रवाह का समय क्या होना चाहिये ? तब बोले कि-

दशाहाभ्यन्तरे यस्य गङ्गातोयेऽस्थि मज्जति। गङ्गायां मरणे यादृक् तादृक् फलमवाप्नुयात्।। अर्थाद्दश दिनों के अन्दर अस्थि विसर्जन कर लेना चाहिये। परन्तु यहां विचारना यह चाहिये कि अभी जिस प्रकार कोरोना महामारी का संकटकाल है, यातायात की पूर्ण असुविधा है ऐसी दशा में गङ्गाजल में अस्थिप्रवाह के निमित्त जाना और दशाहाभ्यन्तर में ही गंगा में अस्थि प्रवाह करना  संभव नहीं है, तब क्या करें?

 गंगा के अभाव में अश्वत्थवृक्ष के मूल में अस्थि विसर्जन की विधि-

इस विषय में श्रीरामचन्द्रझा द्वारा सम्पादित, चौखम्भा विद्या भवन वाराणसी से प्रकाशित वाजसनेयियों की श्राद्धपद्धति के 39 वें पृष्ठ में अस्थिचयनप्रयोग के अवसर पर लिखित है कि-

अथवा अश्वत्थवृक्षमूले पङ्कशैवालयुतगर्ते वा निभृतं धारयेत्। चिताभस्मादि तोये निःक्षिपेत्। बल्यन्नमन्त्यजादिभ्यो दद्यात्, जले वा क्षिपेत्। ततः गोमयाऽम्बुभिः चिताभूमिशुद्धिं विधाय चिताभूमेः आच्छादनार्थं वृक्षः पुष्करकः पट्टको वा कारयितव्यः। ततः सचैलो बन्धुभिः सह स्नायात्। 

यद्यपि अस्थिचयन करणे के दश दिन के भीतर गंगा में प्रवाह विहित है। गङ्गा तक जाने में असमर्थता हो तो अश्वत्थ (पीपल) वृक्ष की जड में गड्ढे में कीचड शैवालादि के साथ उस अस्थि वाले वर्तन को रखने का विधान बतलाया गया है। यहां पुनः कोई शंका करता है कि अश्वत्थवृक्षमूल में ही क्यों? अन्य वृक्षों के मूल में क्यों नहीं ? इस विषय में मेरा यह विचार है कि वेदों में कहा गया है कि- अश्वत्थो देवसदनः।  अर्थात् अश्वत्थ (पीपल) देवताओं का निवास स्थान है| इससे ज्ञात होता है कि अश्वत्थ कोई सामान्यवृक्ष नहीं है अपितु वह देवों का निवास स्थान है। जहां देवगण रहते हैं, उस स्थान को स्वर्ग कहते हैं| विचार कीजिये केवल मनुष्य ही नहीं अपितु संसार के समस्त जीव का अन्तिम लक्ष्य तो स्वर्गप्राप्ति ही है। स्वर्ग ही हमारा मोक्ष स्थान है, वह स्थान यह अश्वत्थ (पीपल) भी है तो इसी को स्वर्गस्थान मानकर वहीं अपनी कामना करनी चाहिए| इसी उद्देश्य से उसी स्थान में अस्थि रखने का विधान किया गया है, यह मेरा अभिमत है।

समुद्रजल (लवणाम्भ)  में अस्थि विसर्जन की विधि-

वैखानसगृह्मसूत्र में समुद्र के जला में अस्थि प्रवाह करने का वचन प्राप्त होता है | वहाँ कहा गया है कि -

यस्यास्थीनि मनुष्यस्य क्षिपेयुर्लवणाम्भसि। तावत्स्वर्गनिवासोऽस्ति यावदिन्द्राश्चतुर्दश।।  

वर्तमान स्थिति में दक्षिण देशा के निवासी जो गंगा से अत्यधिक दूर देश में रहते हैं उन लोगों को समुद्र निकटवर्ती है, अतः वे लोग वैखानसगृह्मसूत्र मैं कहे गए वचनों का अनुपालन करते हुए समुद्र जल में ही अस्थिप्रवाह करें।

सभी जल गंगाजल के समान हैं-

इस धरती पर समुपलब्ध समस्त जल गंगाजल के समान हैं ऐसा भी पुराणों में कहा गया है। यथा- 

सर्वं गङ्गासमं तोयं सर्वे ब्रह्मसमा द्विजाः। सर्वं देयं स्वर्णसमं राहुग्रस्ते दिवाकरे।।

सर्वं गङ्गासमं तोयं वेदव्याससमा द्विजाः। स्नानं वायसतीर्थे यो गङ्गास्नानफलं लभेत्।। 

उपर्युक्त दोनों व्यासवचनों में सर्वं गङ्गासमं तोयं यह कथन हमें उपदेश देता है कि सभी जलों में गङ्गाजल के समान हमारी श्रद्धा होनी चाहिये| ऐसी श्रद्धा जब् हमारी होगी तभी हमलोग जलों के महत्त्व को समझेंगे तथा जलों के संरक्षण के प्रति जिम्मेदार बन सकेंगे| आज जो जल का दुरूपयोग हो रहा है वह मात्र जल के महत्त्वों को नहीं जानने और जल के प्रति श्रद्धा भाव नहीं रहने के कारण हो रहा है| जब भारत का प्रत्येक नागरिक जल को गङ्गाजल के समान मानकर उसकी पूजा करेगा तो मुझे विश्वास है कि यहां कभी भी जल का संकट नहीं होगा | यद्यपि ये दोनों व्यासवचन ग्रहण स्नान के संदर्भ में कहे गये हैं, फिर भी यदि हम इसे उस भावना से भी देखें तो हमारा कल्याण ही होगा। यदि ग्रहण के समय यह स्वीकार्य है तो अन्य समय में भेदबुद्धि की आवश्यकता ही क्या है? जैसे अग्नि को पावक कहते हैं वह अग्नि चूल्हे का हो, यज्ञकुण्ड का हो या किसी गौशाला का हो उन सभी अग्नियों में जलाने एवं शुद्ध करने की क्षमता नित्य व्याप्त रहती है|  उन अग्नियों मे जो भी अशुद्ध द्रव्य दाला जायेगा, उसे वह अग्नि पवित्र अवश्य करेगा, इसीलिये अग्नि को पावक कहा जाता है। इसी प्रकार वायु भी प्रवाहित होकर संसार में व्याप्त दुर्गन्धात्मक अशुद्धियों को दूरकर उन्हें पवित्र करता है, अत एव वायु को पवन कहा गया है। जल भी पवित्रकारक है, चाहे वह जल वापी, कूप, तडाग, नदी या समुद्र का हो वः जल शोधन तो करता ही है शतपथब्राह्मण में जल को शोधक और यज्ञीय कहा गया है-

हरिः ॐ व्व्रतमुपैष्यन्। अन्तरेणाहवनीयञ्च गार्हपत्यञ्च प्राङ्तिष्ठन्नप ऽउपस्पृशति तद्यदप ऽउपस्पृशत्यमेध्यो वै पुरुषो यदनृतं वदति तेन पूतिरन्तरतो मेध्या वा ऽआपो मेध्यो भूत्वा व्व्रतमुपायानीति पवित्रं वा ऽआपः पवित्रपूतो व्व्रतमुपायानीति तस्माद्वा ऽअप ऽउपस्पृशति।।  

इस श्रौतवाक्य में मेध्या वा आपः यह वाक्य हमें अवश्य शोधबुद्धि से देखना चाहिये। जल को यहां मेध्य कहा गया है, मेध्य कहने से "यज्ञ के योग्य" ऐसा अर्थ निकलता है। जल के  मेध्यत्व होने से ही यज्ञों में अपांप्रणयन कर्म के आदि में किया जाता है। वह जल चाहे गङ्गा का हो वा किसी वापी-कूप-तडाग का हो वह समस्त प्रकार का जल मेध्य ही है। यद्यपि गङ्गाजल का  महत्त्व अधिक है इसमें किसी को कोई भी संदेह नहीं। तथापि गङ्गातिरिक्त जलोम में भी मेध्यत्व तो है ही यह इस वेदवचन से सुस्पष्ट ज्ञात होता है। इसलिये यदि कोई अस्थिप्रवाह के लिये गङ्गातट पर जाने में असमर्थ हो तो पास में विद्यमान किसी भी पवित्रनदी में भी अस्थिप्रवाह कर सकता है।

अश्वत्थवृक्षमूल में पङ्कशैवालादियुक्त गड्ढे में मिट्टी के बर्तन में स्थित अस्थियों का स्थापन भी शास्त्रसम्मत ही है। इस प्रकार वर्त्तमान संकट के समय में लोग अपनी सुविधा के अनुसार समस्त कार्यों को कर सकें, एतदर्थ हमारे ऋषि-मुनि-आचार्यों ने अनेक विकल्प के मार्ग प्रशस्त किये हुए हैं जिनका अनुसरण कर हम अपना कर्त्तव्य पूरा कर सकते हैं| इत्यलमति विस्तरेण। जयतु संस्कृतम्। जयतु भारतम्। जयन्तु वेदाः।

विद्यावाचस्पति डॉ. सुन्दर नारायण झा
सह आचार्य, वेदविभाग,  श्री लाल बहादुर शास्त्री रास्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय


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