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क्या मोदी और विपक्ष की तैयारियों में दस साल का फर्क है?: श्रवण गर्ग

प्रधानमंत्री जब कहते हैं कि वे भारत को दुनिया की तीसरी बड़ी आर्थिक ताक़त बनाना चाहते हैं तो उसके पीछे की हकीकत को समझना होगा।

समाचार4मीडिया ब्यूरो 7 months ago

श्रवण गर्ग, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तंभकार।

हजारों करोड़ की धनराशि के चुनावी बांडों की खरीदी ,जिसका कि हाल ही में खुलासा हुआ है, के पीछे का असली सच क्या है? क्या सच सिर्फ यही है कि विपक्षी दलों की तुलना में भाजपा को कई गुना ज़्यादा चंदा प्राप्त हुआ ? यह सच अधूरा है ! पूरे सच के लिए इस  बात की तह में जाना होगा कि भाजपा को मदद करने वाली ताक़तें कौन सी हैं ? वे कंपनियाँ और उनके मलिक कौन हैं जिनके निहित स्वार्थ वर्तमान सत्ता और व्यवस्था को बनाए रखने में हैं ? वे लोग कौन हैं जो सत्तारूढ़ दल में शामिल हो रहे हैं और उन्हें चुनावी टिकिट मिल रहे हैं ? ‘निष्पक्ष’ चुनावों के ज़रिए सरकार अगर सत्ता से बाहर हो जाती है तो इन शक्तियों के साम्राज्यवाद का क्या होगा ?

प्रधानमंत्री जब कहते हैं कि वे भारत को दुनिया की तीसरी बड़ी आर्थिक ताक़त बनाना चाहते हैं तो उसके पीछे की हक़ीक़त को समझना होगा ! सरकारें कभी आर्थिक ताक़त नहीं बनतीं ! समूचा देश बनता है। जिस देश में अस्सी करोड़ से ज़्यादा नागरिक मुफ़्त के अनाज पर ज़िंदा हों वे राष्ट्र को आर्थिक ताक़त नहीं बना सकते। वे करोड़ों पढ़े-लिखे बेरोज़गार जो नौकरियों की तलाश में अपनी उम्र खर्च कर रहे हैं वे भी मुल्क के आर्थिक रूप से शक्तिशाली बनने में मदद नहीं कर सकते।

सवाल यह है कि प्रधानमंत्री किनके ज़रिए और किनके लिए भारत को ‘फाइव ट्रिलियन डॉलर’ की इकोनॉमी  बनाना चाहते हैं ? क्या उन लोगों के लिए जिनके ख़िलाफ़ राहुल गांधी ने मोर्चा खोल रखा है ? जिनके साथ सत्ता की साठ-गांठ को लेकर राहुल संसद से सड़क तक हमले जारी रखे हुए हैं ?

कहा यह भी जा सकता है कि जैसे-जैसे बड़े घरानों के ख़िलाफ़ राहुल के नेतृत्व में विपक्ष के हमले बढ़ते जाएंगे, ये निहित स्वार्थ भाजपा को सत्ता में बनाए रखने के लिए ‘प्रोटेक्शन मनी’ के तौर पर अपनी चंदे की राशि में इजाफा करते जाएँगे। (राहुल उसे ‘एक्सटॉरशन मनी’ कहते हैं।)। सत्तारूढ़ दल के उम्मीदवारों को जिताने की जिम्मेदारी भी ये घराने अपने ऊपर ले लेंगे। पार्टी का काम हल्का हो जाएगा। भूखी और बेरोज़गार जनता कभी संगठित नहीं हो सकती। निहित स्वार्थों का गिरोह पूरी तरह संगठित है। सबसे बड़ा दान मुख्य भगवान के चरणों में चढ़ाया जाता है। बाक़ी देवी-देवताओं और पुजारियों की पेटियों में फिर श्रद्धा के अनुसार चढ़ावा पड़ता है। पार्टियों को दिये जाने वाले चंदे का गणित भी यही है।

‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ की समाप्ति के बाद मुंबई के शिवाजी पार्क में हुई लाखों लोगों की सभा में राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री के बारे में कहा था वे केवल एक मुखौटा हैं। बॉलीवुड के एक्टरों की तरह अभिनय करते हैं। राहुल ने प्रधानमंत्री के पीछे खड़ी पूँजीपतियों की ताक़त को ही मोदी की असली ‘शक्ति’ बताते हुए कहा था उनकी लड़ाई प्रधानमंत्री की इसी ‘शक्ति’के साथ है। (जैसा कि बाद में होना था, प्रधानमंत्री ने तेलंगाना की एक जनसभा में राहुल द्वारा बताई गई ‘शक्तियों’ के ख़िलाफ़ लड़ाई को नारी शक्ति के प्रति किया गया अपमान बताते हुए उसे ‘सनातन’ के विवाद के साथ जोड़ दिया।)

जिस ‘शक्ति’ का राहुल ने मुंबई में ज़िक्र किया था उसकी ताक़त के बारे में हाल ही में एक अंतरराष्ट्रीय संस्था की रिपोर्ट जारी हुई है। साल 2022-23 के लिए संस्था ‘World Inequality Lab’ द्वारा जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत के सर्वाधिक अमीर एक प्रतिशत लोगों की आय में हिस्सेदारी बढ़कर  22.6% और संपत्ति में हिस्सेदारी बढ़कर 40.1% हो गई है। ऐसा सौ साल में पहली बार हुआ है।

विपक्षी एकता और इतनी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद लोकसभा चुनाव के परिणामों को लेकर भाजपा अगर इतनी आश्वस्त ‘दिखाई’ पड़ती है तो उसके पीछे कोई बड़ा कारण होना चाहिए !  निष्पक्ष अंग्रेज़ी दैनिक ‘द हिंदू’ की सहयोगी अंग्रेज़ी पत्रिका ‘द फ्रंटलाइन’ के हाल के अंक में प्रकाशित एक आलेख में एक अमेरिकी शोध संस्थान की रिपोर्ट के हवाले से बताया गया है कि मोदी 2029 और 2034 के चुनावों की तैयारियों में जुट गए हैं। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लीकार्जुन खड़गे ने हाल में बिना रूस का नाम लिए भारत के लोकसभा चुनावों की विश्वसनीयता को लेकर भी भय व्यक्त लिया था।

रूस में हुए चुनावों में पुतिन की सत्ता में धमाकेदार वापसी के बाद दुनिया की नज़रें भय और जिज्ञासा के साथ अब जिन दो देशों के चुनाव परिणामों पर टिक गईं हैं उनमें एक भारत और दूसरा अमेरिका है। भारत के नतीजे 4 जून को और अमेरिका के नवम्बर के पहले सप्ताह में आ जाएँगे। अमेरिका में डॉनल्ड ट्रम्प एक बार फिर मैदान में हैं। ट्रम्प और मोदी के बीच मित्रता उस समय प्रकाश में आई थी जब भारतीय प्रधानमंत्री ने पिछले अमेरिकी चुनावों (2020) के वक्त टैक्सास के  ह्यूस्टन शहर में हुई एक रैली में ‘अब की बार ट्रम्प सरकार ‘ का नारा लगवायाथा। ह्यूस्टन की रैली में ट्रम्प और मोदी के स्वागत के लिए पचास हज़ार से ज़्यादा भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक उपस्थित थे।

अमेरिकी मूल के नागरिकों की एक बड़ी आबादी और यूरोप के कई देश इस समय ट्रम्प की व्हाइट हाउस में वापसी की चर्चाओं से चिंतित और भयभीत हैं। ट्रम्प ने पिछले दिनों यहाँ तक कह दिया था कि वे अगर हार जाते हैं तो अमेरिका में खून-ख़राबा हो जाएगा। ज्ञातव्य है नवम्बर 2020 के चुनावों में ट्रम्प की हार के बाद उनके सवर्ण समर्थकों के एक बड़े समूह ने अमेरिकी संसद पर हमला (6 जनवरी 2021) बोल दिया था और व्यापक हिंसा फैलाई थी।अमेरिका आज तक उस हमले की दहशत से बाहर नहीं आ पाया है।

‘द फ्रंटलाइन’ पत्रिका के आलेख का यह दावा भी है कि भारत में 67 प्रतिशत लोग ‘एकतंत्रीय’ शासन व्यवस्था के समर्थक हैं। अमेरिका में अगर राष्ट्रपति पद के चुनाव परिणामों को लेकर नागरिकों में भय का माहौल है तो क्या अपनी जीत के प्रति मोदी की निश्चिंतता को लेकर भारत में चोरी-छुपे भी कोई चिंता नहीं व्यक्त की जा रही है ? क्या विपक्ष और जनता परिवर्तनों के लिए दस साल और प्रतीक्षा करने को तैयार है ? ऐसा नज़र तो नहीं आता !

(यह लेखक के निजी विचार हैं )


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