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चुनाव में कुछ क्षेत्रीय दलों और नेताओं के लिए अंतिम पड़ाव की स्थिति: आलोक मेहता

लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का परिणाम जो भी हो, उसके नाम का अस्तित्व तो रहेगा। लेकिन कुछ क्षेत्रीय दल तो संभवतः इस स्थिति में आ जाएंगे कि अगले चुनाव में नहीं दिखेंगे।

समाचार4मीडिया ब्यूरो 5 months ago

आलोक मेहता, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक, पद्मश्री।
 
चुनावी राजनीति में कड़े मुकाबले, समझौते , बिखराव , सत्ता और पतन के दिलचस्प मोड़ आते हैं लेकिन इस बार लोकसभा चुनाव में कई राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों तथा नेताओं के लिए अंतिम लड़ाई और सूर्यास्त की दिलचस्प स्थिति है। सबसे पुरानी कांग्रेस पार्टी और राहुल प्रियंका गाँधी के राजनीतिक भविष्य के दांव के साथ कुछ वरिष्ठ नेताओं के लिए अंतिम चुनाव की स्थिति है। इतिहास यह भी याद दिलाता है कि दशकों से कांग्रेस कई रुपों, विभाजनों में दिखती रही है। लगभग बीस साल लोकसभा के चुनाव और पार्टी का नेतृत्व करने के बाद श्रीमती सोनिया गाँधी अब 6 साल के लिए राज्य सभा में आ गई हैं और पार्टी के अध्यक्ष भी मल्लिकार्जुन खड़गे बन चुके हैं। वह भी 83 वर्ष के हो रहे हैं।

इसलिए 2029 के चुनाव में शायद ही चुनावी मैदान में दिखाई दें। दूसरे बड़े नेता पी चिदंबरम 78 वर्ष के हैं। 2014 से उन्होंने अपने प्रिय बेटे कार्तिक चिदंबरम को लोकसभा लड़ने भेज दिया और स्वयं 2016 से राज्य सभा की शोभा बढ़ा रहे हैं। 2029 में वह 83 वर्ष के हो जाएंगे। लोकसभा चुनाव में भी वह सीमित स्थानों पर प्रचार सभा में जाते हैं। उत्तर भारत में तो गृह मंत्री के रुप में राजभाषा विभाग की जिम्मेदारी के बावजूद हिंदी के प्रयोग के लिए तैयार नहीं हुए। संपन्न  बिजनेस राज परिवार के साथ बड़े वकील होने के कारण उन्होंने कांग्रेस में रहकर या अलग दल बनाकर सत्ता का सुख पाया है। अब बेटे के भविष्य को लेकर सक्रिय रहेंगे।

लगभग यही स्थिति 77 वर्षीय कमल नाथ की है। उन्होंने लोक सभा के लिए अपने पुत्र नकुल नाथ को बागडोर सौंप दी है। उनके साथी दिग्विजय सिंह 76 वर्ष की आयु में लोकसभा लड़ रहे हैं। राज्य सभा के सदस्य हैं ही और बेटे को कभी मध्य प्रदेश का मुख्य मंत्री बनने का सपना देखते हैं। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का परिणाम जो भी हो, उसके नाम का अस्तित्व तो रहेगा। लेकिन कुछ क्षेत्रीय दल तो संभवतः  इस स्थिति में आ जाएंगे कि अगले चुनाव में नहीं दिखेंगे। सबसे दुखद स्थिति सत्तर के दशक से सत्ता की राजनीति के मराठा क्षत्रप शरद पवार की है।

कांग्रेस की राजनीति में तीन चार विभाजन, समर्थन विरोध और कई गठबंधनों और एक समय प्रधानमंत्री की दौड़ में अगली पंक्ति में रहने के बाद अपनी बनाई राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का चुनाव चिन्ह इस लोक सभा में ही खो चुके हैं। हाँ, किसी अन्य चुनाव चिन्ह और अपने नाम को आगे रखकर एन सी पी के झंडे तले अपनी बेटी सुप्रिया सुले और नौ अन्य उम्मीदवारों को लोक सभा का चुनाव लड़वा पा रहे हैं। इंदिरा गाँधी और यशवंत राव चव्हाण के साथ बड़े आत्म विश्वास से प्रदेश में मंत्री, मुख्यमंत्री, केंद्र में रक्षा मंत्री और लोक सभा में नेता पद तक रहने वाले शरद पवार अब राहुल गाँधी, उद्धव ठाकरे और अरविन्द केजरीवाल , तेजस्वी लालू यादव के सहारे  डगमगाती राजनीति की नाव धकेल रहे हैं।

हाँ, युवा काल में कबड्डी के खेल संगठन से सार्वजनिक क्षेत्र में आने वाले शरद पवार कबड्डी की तरह अपनी आँख और पैर दोनों पालों के बीच की रेखा पर रखते हैं। सत्ता के खेल में किसी का हाथ थाम साथ ले या उसे आउट करने में अब भी माहिर हैं। उन्होंने पहले भी घोषित कर दिया था कि वह आगे सक्रिय राजनीति नहीं करेंगे। मतलब शरद पवार की एन सी पी का सूर्यास्त। चुनाव के बाद अजित पवार और शरद पवार की बेटी यदि फिर एक साथ आ जाएं तो उनके साथियों के लिए कोई नई राह निकल सकती है।

क्षेत्रीय दलों में सर्वाधिक महत्वाकांक्षी रहे के चंद्रशेखर राव की तेलंगाना राष्ट्र समिति ने हाल ही में अपना नाम भारत राष्ट्र समिति कर लिया था। लेकिन 2001 में के सी आर द्वारा स्थापित इस पार्टी के लिए भी यह लोक सभा चुनाव अंतिम अध्याय की तरह है। पवार परिवार की के सी आर ने भी कांग्रेस के रास्ते से राजनीति में प्रवेश किया लेकिन 1983 आंध्र के प्रसिद्ध सिने अभिनेता और तेलुगु देशम के मुख्यमंत्री  एन टी रामाराव की शरण लेकर मंत्री बन गए। एक कारण यह भी रहा  कि के सी आर परिवार के दामाद थे। बाद में उनको चंद्रबाबू नायडू के मंत्रिमंडल में काम काम का अवसर मिला। आंध्र विधान सभा के उपाध्यक्ष बने। लेकिन 20 वर्षों के बाद अपनी सत्ता और अपने ही अलग तेलंगाना प्रदेश के लिए नई पार्टी बनाकर आंदोलन में उतर गए। तेलंगाना की मांग तो साठ सत्तर के दशक से थी।

के सी आर ने सचमुच बड़ा आंदोलन खड़ा किया और चुनाव में भी विजय प्राप्त कर ली। नए प्रदेश के वायदे से 2004 में कांग्रेस के साथ समझौता कर गठबंधन की मनमोहन सिंह सरकार के मंत्री बन गए लेकिन जब नरसिंह राव खुद अलग तेलंगाना देने को तैयार नहीं हुए थे तो मनमोहन सिंह आसानी से कैसे मान लेते? के सी आर ने नाराज होकर इस्तीफा दिया और लम्बी भूख हड़ताल से सरकार को झुका दिया। इसके बाद अपनी तेलंगाना पार्टी और राज्य में लगातार 2023 तक मनमाने ढंग से राज किया। बेटे सिरिल्ला को मंत्री बनाया। बेटी, के कविता पहले सांसद और फिर विधान परिषद् की सदस्य बन गई। दोनों को मुख्यमंत्री बनने की उम्मीद रही। के सी आर ने कुछ लुभावने कार्यक्रमों से जनता को खुश किया , लेकिन मनमाने निर्णयों और भ्रष्टाचार के लिए परिवार और सहयोगियों को खुली छूट दे दी।

यही नहीं 2022 - 23 आते आते राष्ट्रीय राजनीति में अपना अलग गठबंधन बनाकर प्रधानमंत्री बनने का दिवा स्वप्न देखना शुरु कर दिया। इसका एक बड़ा कारण ज्योतिष और अंध विश्वास भी था। इसी अभियान के तहत कविता ने दिल्ली की आम आदमी पार्टी के नेता मुख्यमंत्री के अरविन्द केजरीवाल के साथ राजनीतिक और आर्थिक सम्बन्ध जोड़ लिए। नतीजा यह हुआ है कि जहाँ तेलंगाना विधान सभा में के सी आर पार्टी बुरी तरह पराजित हो गई और इधर दिल्ली के शराब घोटाले में एक सौ करोड़ की गड़बड़ी के आरोप में कविता जेल पहुँच गई। इस तरह के मामले वर्षों तक चलते हैं। बाद में फैसला जो भी इस लोक सभा चुनाव में तो  भारत राष्ट्र समिति ( बी आर एस ) की हालत खस्ता होती दिख रही है। सो के सी आर के लिए 2029 में कैसे कोई उम्मीद रहेगी? कविता के नए साथी अरविन्द केजरीवाल और उनकी पार्टी राष्ट्रीय राजनीति में डूबती उतरती दिखती रहेगी।

पडोसी पुराने साथी चंद्रबाबू नायडू और तेलुगु देशम पार्टी ( टी डी पी ) भी  आंध्र में अस्तित्व की निर्णायक लड़ाई लोकसभा चुनाव में लड़ रही है। नायडू अब 73  साल के हैं। सत्ता , प्रतिपक्ष और जेल के अनुभव पा चुके हैं। 1995 से 2004 तक मुख्यमंत्री रह चुके। कभी भाजपा , कभी कांग्रेस और अन्य पार्टियों के साथ गठबंधन करते रहे। इस बार प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की भारी लोकप्रियता देखकर भारतीय जनता पार्टी के गठबंधन में शामिल हो गए हैं। आगे विधानसभा और लोकसभा के नतीजों पर ही अँधेरे में सूरज चाँद की आस रहेगी। इस दृष्टि से यह चुनाव भारतीय राजनीति में एक नया अध्याय शुरु करने वाला है।

( यह लेखक के निजी विचार हैं )


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